ये बंधन सिर्फ कच्चे धागों का नहीं है – लक्ष्मी त्यागी

कल्पिता मन ही मन खुश हो रही है ,’श्रावण मास’ जो चल रहा है ,इन दिनों’ शिवपूजन’ के साथ -साथ’ हरियाली तीज ‘ उसके पश्चात’ रक्षाबंधन’ भी आती है। कल्पिता मन ही मन गुनगुनाने लगती है -”अब के बरस भेजो ,भैया को बाबुल सावन में लीजो बुलाए !” जब से विवाह करके अपनी ससुराल आई है, यही कि होकर रह गई है। सावन का महीना ही ऐसा है जब उसे एक उम्मीद होती है उसका भाई

उससे मिलने आएगा। उसका सिंधारा लेकर आएगा और राखी पर भी वह राखी बंधवाने आ जाता था। वह कभी अपने घर नहीं गयी जबकि जेठानी हर वर्ष अपने मायके जाती। अपने भाइयों से ,अपने परिवार से मिलने की उम्मीद तो पूरे साल ही रहती है, किंतु’ श्रावण’ पर उसे एक उम्मीद रहती ही है,अब तो वो लोग आएंगे ही आएंगे। 

दोनों भाइयों के विवाह के पश्चात ,दोनों ही अपनी घर -गृहस्थी में व्यस्त हो गए। नई -नई भाभियाँ आईं थीं कल्पिता ने उन्हें खाने पर बुलाया। मन ही मन बहुत प्रसन्न थी ,उसके पश्चात दोनों अपनी -अपनी नौकरियों पर चले गए। उनका कभी आना होता ,कभी कल्पिता डाक से ही राखी भेज देती। वह सोचती ,जब आएंगे ,तब मिल लेंगे।

 एक दिन कल्पिता की जेठानी से उससे पूछा -तुम अपने भाइयों से इतना प्रेम करती हो ,किन्तु आज तक उन्होंने कभी ये नहीं कहा -बहन !कभी हमारे घर भी आना ,दूर से ही, बातें कर लेते हैं। तुम्हारे उनसे संबंध तो अच्छे हैं। तुमसे मिलने यहां आ जाते हैं और तुम उनकी ख़ातिरदारी में लगी रहती हो। कभी तुम्हारी भाभियों ने भी कहा -दीदी हमसे मिलने, हमारे घर आना। ”

अब तक कल्पिता ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था किन्तु अब उसे एहसास हुआ ,ये बात तो सही है ,कभी भइया अथवा भाभी ने ये नहीं कहा – दीदी !तुम भी कभी मिलने आया करो ! संयोग से कल्पिता की मम्मी की तबियत बिगड़ गयी और उसे अपनी मम्मी को देखने घर जाना पड़ा। वहां जाकर

कल्पिता ने महसूस किया ,अब ये घर उसका नहीं रहा। जितने प्यार से वो अपने भाभी -भइया का स्वागत करती है ,सभी ऐसा व्यवहार कर रहे थे जिसकी पहेली कल्पिता समझ नहीं पाई। उन्होंने व्यवहार ही ऐसा किया कि आदमी दुबारा आने की हिम्मत ही न करे। उन्होंने कहा भी कुछ नहीं और छोड़ा भी नहीं ,उसे महसूस करा दिया कि वो एक बड़ी गलतफ़हमी में जी रही थी। 

कल्पिता का मन रोने को हुआ किन्तु उसने अपने आपको संभाला ,मन ही मन अपने को समझाया ,मम्मी की तबियत के कारण परेशान हैं, इसीलिए ऐसा व्यवहार कर गए। अबकि बार राखी पर आउंगी ,तो मेरी सारी गलतफ़हमी दूर हो जाएगी। संयोग से बड़े भाई ने नया मकान लिया और कल्पिता को बताया भी नहीं ,किन्तु उसे इस बात की जानकारी हो गयी थी। बड़े भाई ने मकान खरीदा है ,ऐसे

समय में ,लोग तो बाहर वालों को भी बुलाते हैं ,मैं तो उसकी अपनी बहन थी। अंदर कमरे में जाकर खूब रोई ,उसके लिए ख़ुशी की खबर थी कि भाई ने नया बड़ा मकान लिया है,अपनी सास और जेठानी से बाँट लेती किन्तु छुपा गयी। वे उससे पूछतीं -‘घर के मुहूर्त में तुम्हें नहीं बुलाया।’ प्रतिदिन फोन की तरफ देखती ,शायद मेरे लिए घर से फोन आये ,या भाभी बुलाये किन्तु दिन- प्रतिदिन उसकी निराशा बढ़ती गयी। 

रक्षाबंधन पर सोचा ,अब जाउंगी तो सबसे मिलना हो ही जायेगा ,किन्तु भाई का फोन आया। “रक्षाबंधन “पर मैं ,आ रहा हूँ क्योंकि यदि आप आईं तो, घर में कोई नहीं होगा। तुम्हारी भाभी तो अपने मायके अपने भाई को राखी बांधने जाएगी।

 तब कल्पिता बोली -वो कितने बजे जाएगीं ?

यही कोई दस -ग्यारह बजे का मुहूर्त है ,थोड़ा पहले ही निकलेगी। 

तब तो मैं आ जाती हूँ ,थोड़ा जल्दी आ जाउंगी ,जब मैं राखी बांध दूंगी ,तब वो अपने घर चली जाएँगी ,उनका घर तो नजदीक ही है। तुम्हारा नया मकान भी देख लूँगी और भाभी से मिले भी कई बरस हो गए उनसे भी मिलना हो जायेगा। वो तो फोन ही नहीं करतीं शिकायत भरे लहज़े में कल्पिता बोली।

अच्छा !मैं देखता हूँ, बात करता हूँ ,फोन करके बताता हूँ ,क्या करना है ?कल्पिता कई दिनों तक उसके फोन की प्रतीक्षा करती रही किन्तु उसका फोन नहीं आया। ‘रक्षा बंधन ‘ तो नज़दीक ही आ रही है। कल्पिता आज बाज़ार गयी और और राखी ले आई। उन राखियों को  देख ,उसने गहरी स्वांस ली और मुस्कुराई ,मेरे भाई ! ये बंधन सिर्फ इन कच्चे धागों का ही मोहताज़ नहीं है ,ये तो मात्र एक रस्म है ,ताकि इस त्यौहार के बहाने, रिश्तों में ताज़गी बनी रहे। उस बहन को लगे, आज भी वो मेरा अपना घर है ,उस पर अधिकार है ,वहां मेरे अपने रहते हैं वरना उस घर को तो मैं बरसों पहले ही

,छोड़कर आ चुकी हूँ। मैं जानती हूँ ,शायद तुम भी, इस रिश्ते को निभाने के लिए विवश हो, वरना तुम्हें कहना नहीं पड़ता ,मैं आ रहा हूँ। बल्कि मुझे भाभी का फोन आता ,जो कहती – दीदी !कब आ रही हो ? जल्दी आ जाना ,मुझे भी अपने भाई को राखी बांधने जाना है किन्तु अब वो प्यार, सम्मान रहा ही नहीं ,जो अधिकार से कहता -दीदी !कब आ रही हो ? मैं प्रतीक्षा करूंगा ,सोचते -सोचते उसकी आँखों से अश्रुधार बह चली ,ये उसका अपना दर्द था जिसे वो किसी से कह भी नहीं सकती थी। 

तब कल्पिता ने ,उन राखियों को अच्छे से सहेजा और दो लिफाफों में राखी रखनी आरम्भ कर दी ,अब वो किसके पास जाएगी ?छोटा तो अपना व्यवहार पहले ही दिखा चुका था। उन लिफ़ाफों पर उसने पता लिखा और पोस्ट करवा दी।

लिफाफे देखकर उसकी जेठानी बोली – अरे !तुम ये क्या कर रही हो ? तुम्हारे भाई तो नजदीक ही रहते हैं ,उनसे मिलने नहीं जाओगी ,सालभर का तो त्यौहार होता है ,जब बेटियां अपने मायके जाती हैं ,जेठानी ने कहा। 

नहीं ,पता नहीं क्यों ?आजकल मेरी तबियत ठीक सी नहीं रहती ,मेरा जाना नहीं हो पायेगा ,कल भाभी का फोन भी आया था ,वो तो बहुत खुशामद कर रहीं थीं ,’दीदी !आप आती हो तो घर में रौनक सी आ जाती है ,आप नहीं आओगी तो त्यौहार ,त्यौहार नहीं लगेगा किन्तु मैंने मना कर दिया। आप भी तो अपने घर जाओगी तो घर में भी तो कोई रहना चाहिए ,तबियत ठीक सी नहीं लग रही, कहते हुए अपने

कमरे में आकर रोने लगी। जैसे ,कुछ टूट सा रहा है। कोई बात नहीं, ये रिश्ता तो ऊपर वाले ने ही, बनाकर भेजा है ,इन कच्चे धागों से नहीं बना ,हमारा रिश्ता तो तब भी रहेगा ,राखी बाँधू या न बाँधूं फिर भी ,मैंने रस्म नहीं तोड़ी ,त्यौहार को सूना नहीं जाने दिया। काश ! कि भाभी भी बहन होकर, दूसरी बहन के दर्द को समझ पाती किन्तु मैंने अपने भाई को दुविधा से निकाल लिया।

 कुछ दिनों पश्चात भाई का फोन आया ,मैं राखी पर नहीं आ पाया ,तेरी भाभी को अपने मैके जो जाना था। 

कोई बात नहीं भइया !इधर मेरी भी तबियत ठीक सी नहीं थी ,वरना मैं ही आ जाती ,तुम नए मकान में भी व्यस्त रहे होंगे ,खर्चा भी बहुत हुआ होगा ,मैं समझ सकती हूँ ,कोई बात नहीं ,त्यौहार तो हर साल आता है ,कहकर जबरन मुस्कुराने का प्रयास किया किन्तु हंस नहीं पाई ,तभी बोली -भइया !अभी रखती हूँ ,शायद कोई आया है, कहकर तुरंत ही फोन रख दिया क्योंकि वो नहीं चाहती थी कि उसके भाई को पता चले कि वो रो रही थी।  

           ✍🏻 लक्ष्मी त्यागी

 #ये बंधन सिर्फ कच्चे धागों का नहीं है 

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