यह रिश्ता टूटता ही नहीं -शुभ्रा बैनर्जी 

“मां,कल हम लोग आ रहें हैं।वकील अंकल को बुलवा लीजिएगा।घर के पेपर्स तैयार हैं ना?मैंने दो साल पहले ही कहा था आपसे।अब ना -नुकुर मत करिएगा।इस बार आप आ रहीं हैं हमारे साथ बैंगलुरू।और हां ,हमारा कमरा तो काली है ना,या उसमें भी बच्चे रहते हैं? मैं अपने कमरे में कोई भी बदलाव नहीं देखना चाहता।जो जहां है, वहीं पर रहना चाहिए।समझा देना अपने बच्चों को , ठीक से।” सुहास बोले ही जा रहा था, शालिनी का जवाब सुनने के लिए भी समय नहीं था।जानती थी शालिनी।ऊंचे पद पर आई टी कंपनी में काम करने वाले सुहास को अब इस गांव से, घर से कोई लगाव नहीं था।इकलौता था ना, तो अपनी चीजें किसी के साथ शेयर कभी करना ही नहीं पड़ा।थोड़ा स्वार्थी हो गया था।ख़ैर है तो शालिनी का इकलौता बेटा।तीन साल पहले उसके बाबा की मौत हो गई थी।तब से मां को साथ चलने को कह रहा था, और‌ शालिनी कोई ना कोई बहाना बना देतीं।बीच में जब थोड़ी बीमार पड़ीं, तो उसको खबर मिलते ही दौड़ा आया।जिद करके ले ही जाता, यदि शालिनी ने अपने घर पर पढ़ने वाले बच्चों की परीक्षा की दुहाई ना दी होती।पिछले पचास सालों से पढ़ा रही हैं शालिनी।अब स्कूल से तो रिटायरमेंट मिल गई है, पर आस -पास के काम वाली बाईयों‌ के बच्चे, झुग्गी झोपड़ी के बच्चे घर पर पढ़ा रही थी शालिनी।पति की अच्छी खासी पैंशन थी, साथ में‌ शालिनी जो को भी पैंशन मिल रही थी।घर पर किराना‌ और अनाज भरवां लेती साल‌भर का।फिर‌ किसी के लिए यूनिफार्म, जूते, बैग, टिफिन, रिबन‌, ला‌-लाकर देती रहतीं थीं वे।

सुहास इस बार‌ भी‌ जिद तो जरूर करेगा, तब क्या बहाना बनाएगी? इसी उधेड़बुन में थी, कि गोलू(कबाड़ वाले का लड़का)आया मिठाई लेकर। पोलीटेक्निक में इलेक्ट्रॉनिक में‌ एडमिशन हो गया है उसका सरकारी कॉलेज में।शालिनी को आंगन के उस बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठाया गोलू ने,।किताब को मोड़कर‌ माइक बनाया और‌ चिल्लाते हुए बोला”अम्मा, अब मैं‌ दिन‌ में‌ पढ़ाई करूंगा कॉलेज में, शाम को यहां आकर बच्चों को‌ पढ़ाया करूंगा।हमें हार नहीं माननी है।आप हमारे साथ हो तो ‌, हम हर परीक्षा पास करके दिखा देंगे।” जश्न का माहौल बन गया।शालिनी अम्मा ने झट से आटे का हलवा भी बना लिया। स्पेशल ट्रीट तो बनती है।

नीचे इतना शोरगुल सुनकर सुहास और उसकी पत्नी(गौरी) नीचे उतरे।आते ही जोर से डांटते हुए कहा सुहास ने”तुम लोगों को जरा भी अक्ल नहीं है क्या? मां की तबीयत अभी -अभी सुधरी है।तुम लोग इतना हल्ला मचाते हो।इतनी रात हो गई।चलो अपने घर जाओ।अम्मा अब आराम करेंगी न।”, 

लगभग बीस बच्चों का झुंड खुशियां मना रहा था।सुहास की बातें सुनकर वो एकदम से चुप हो गए।एक जाकर बाल्टी में गर्म पानी ले आया,और शालिनी जी के पैर उसमें डुबो दिया।एक दौड़कर,शुगर और प्रैशर चेक करने वाला यंत्र ले आया।तुरंत अम्मा को लिटाकर बड़े ही जतन से चैक करते हुए बोला”मीठा तो नहीं खाईं थीं ना अम्मा आप?”,

शालिनी ने ना में सिर हिलाया। उसने भी खुश होकर चिल्लाते हुए कहा”कल खाएंगे हम सब मीठा।आपका शुगर और बी पी बिल्कुल सामान्य है।तुम निश्चिन्त होकर सो जाओ अब।भैया आप लोग भी हो जाइये।”सुहास बीवी के साथ ऊपर जाने लगा तो देखा।मां के कमरे में एक बच्चा चादर झाड़ कर बिछा दिया‌ ।एक ने मच्छरदानी भी लगा दी जतन से। बाल्टी का गर्म पानी फेंककर, उसे सही जगह पर रखा उन्होंने।फिर सुहास से कहा” भैया ताला लगा लेना आप ।हम चलते हैं।”सुहास को समझ ही नहीं आ रहा था कि मां हैं किसकी।इन अनाथ -भिखारियों के साथ सारा दिन रहती हैं।अब तो मैं आ गया हूं।साथ में‌ हमारे बच्चे भी हैं।मां‌ ने उन्हें एक बार भी गोद में नहीं‌ लिया।नीम -हकीम झोला छाप कंपाउंडरों से इलाज करवाती हैं‌‌क्या अपना।

अरे इतना पैसा है ।शहर चलें‌ हमारे साथ।अच्छे से अच्छे अस्पताल में इलाज‌‌ हो‌ जाएगा।नहीं अब बहुत हुआ।अपने शौक की खातिर अपनी सेहत बिगाड़ने पर तुली हैं मां।मैं कल‌ सवेरे ही बात करता हूं।सुबह तो सुहास की देर से हुई आदतन।नौ बजे का रूटीन है उठना।उठकर देखा, मां मूंग के चीले बना रही थीं।बड़े से भगोने‌‌में काले चने भींगे हुए रखें थे।साथ में‌ गुड़।बच्चे आ -आकर गुड़ चना खा रहे थे, और चीला टिफिन के डिब्बे में खुद ही पैक करके ले जा रहे थे।इस समय अम्मा किसी बड़ी कैंटीन में खाना बनाने वाली बावर्ची ही लग रही थी।सुहास ने कुछ नहीं कहा।वह समझ चुका था कि, उसकी बात मान कभी सुनेंगी नहीं।हां बहू की बात टाल नहीं पाएंगी वे।गौरी को सुहास ने अच्छे से समझा बुझा कर मां के पास भेजा, बात करने को।गौरी मन ही मन मां का बहुत सम्मान करती थी।अपने कमरे में गौरी को अकेली पाकर, मां झट से बिस्तर से उठी, और अलमारी खोलकर‌ ढेरों साड़ियां, शाल, स्वेटर निकालकर देने लगी।सभी एक से बढ़कर एक।गौरी ने पूछा “ये आप कब खरीदी? मुझे क्यों दे रहीं हैं? आपकी हैं ना ये सब?” 

शालिनी ने बहू को चुप कराते हुए कहा”ये जो बच्चे आतें‌ हैं ना यहां,जब कुछ बन जातें हैं।मेरे लिए तोहफे खरीद कर ले आतें हैं।मैं कितना भी मना करूं,सुनते ही‌नहीं।ये सारे रंग तुझ पर अच्छे लगेंगे,इसलिए तुझे दे रहीं हूं

ये मेरी इंसानियत की कमाई का ब्याज है रे।मैं तो कुछ भी नहीं करती।बस रूखा-सूखा जो बन पड़ता है बना देती हूं।उसी में खुश हो जातें हैं ये मासूम।एक बच्चा तो डॉक्टर की पढ़ाई कर रहा है।बोला है,मुझे ले जाएगा,जब उसे प्रशस्ति पत्र मिलेगा।”,

अपनी सास की सादगी और ऊंचे विचार जानती तो थी गौरी।एक अकेली महिला होकर एक उद्धम ही चला रही थी।बिना किसी लाभ की प्रत्याशा के।यहां हम लोग कितना कमाते हैं।आधे से ज्यादा सैलरी तो बच्चों को घुमाने और‌ बाहर खाना खिलाने में चली जाती है।,और यहां मां अपने पति और अपनी पैंशन के दम पर इन जरूरत मंद बच्चों‌ का पेट भर रहीं‌ हैं।कितना अंतर है ‍इनकी और हमारी सोच में। नहीं-नहीं मैं मां‌ से अपने साथ चलने की बात नहीं‌ कर पाऊंगी।वो‌ यहां‌ खुश‌ हैं,इतने सारे बच्चों की अम्मा बनकर।इन्हें‌ यहां से ले जाना, मतलब शरीर‌से आत्मा को अलग‌ करना।

सुहास इंतजार ही कर‌ रहा था गौरी के आने का।आते ही पूछने लगा” जैसा समझाया था , ठीक वैसा ही कहा ना तुमने? “गौरी सोफे पर बैठते हुए बोली” नहीं , मुझसे नहीं कहा गया।वो यहां पापा को महसूस करती हैं।यहां से कहीं नहीं जाएंगीं।तुम देख नहीं सकते क्या, बरगद के चबूतरे पर जैसे पापा मिलने वालों से बैठकर बातें करते थे।मां भी ठीक वैसी ही चबूतरे पर बैठकर बच्चों को‌ भविष्य के सपने दिखातीं हैं।उनका पेट खाली ना रहे, और स्कूल जाना छोड़ दें, इसी कारण वे उन सबको खाना खिलाती हैं।वो बच्चे भी बहुत ध्यान रखते हैं उनका।उन्हें यहां से ले जाना बिल्कुल भी सही नहीं‌ लग रहा मुझे।”,

“बस कर दी ना औरतों वाली ‌इमोशनल ‌बातें।अरे बातों‌‌से पेट नहीं भरता।जिनका भला कर रहीं हैं,क्या गारंटी है कि भविष्य में‌ वो भी ‍मां को‌ याद‌ रखेंगें ? अब मैं नहीं सुनूंगा एक भी उनकी।गरीब भिखारियों के बच्चों को गोद में बिठाकर खिलाती हैं।देखो ख़ुद के पोते-पोतियों को देखने की भी फुर्सत नहीं है।मुझे तो लगता है गौरी, एक दिन ये पूरा घर इन भिखारियों के नाम ही कर देंगीं।तब हम हांथ मलते रह जाएंगे।”

गौरी ने दुखी होकर कहा”,कैसे बेटे हो तुम ?अपनी मां के भलाई के कामों को भी नहीं देख सकते तुम।ये आज जो प्रमोशन पाकर,कम उम्र में ही तुम इतने अच्छे पद में आ गए हो,वह सब मां की नेकनीयत का फल है।वो यहां जो भी बन पड़ रहा है,कर रहीं हैं।हमसे तो कभी भीख नहीं मांगती वो।उल्टा देती ही रहतीं हैं।हम में से कुछ इंसान भी ऐसे निःस्वार्थ कर्म करने लगे ना,तो समाज बहुत ऊंचाई पर जा सकता है।”

” अरे !छोड़ो तुम समाज और ऊंचाई।जब हमारे पास पैसे होतें हैं ना,तभी समाज हमें इज्जत देता है।पैसा नहीं इज्जत नहीं।तुम्हें तो पता है कि मैंने वहां बड़ा सा बंगला बुक किया है।यहां का घर बेचकर ,उस पैसे से लोन चुकता हो सकता है मेरा।मां के लिए अलग से कमरा भी है वहां।तुम्हारे साथ रहने में भी उनको कोई दिक्कत नहीं है,फिर भी क्यों यह जगह छोड़ना नहीं चाहती पता नहीं।अपनी और पापा की पैंशन में आग लगा रहीं हैं ,और कुछ नहीं।देखा तुमने,कोई मुसलमान है,कोई चोर का बेटा है,कोई दंगाई की बेटी है।कोई कैदी के घर का बच्चा है।इन्हें खाना जो खिला रहीं हैं ना अभी,यही पीठ में खंजर भोंका करते हैं।घर को बेचने की बात तो करनी ही पड़ेगी मुझे।तुमसे नहीं होगा।”सुहास खिसिया रहा था।

रात को  बच्चों को फरे ‌बनाकर ‌खिलाई मां।साथ में हमें भी मिल गई।अब सही समय है।पेपर निकलवा लूं पहले,फिर बैठ कर बात करूंगा।शालिनी जी फुर्सत पाते ही घर के कागजात लेकर आईं ।कागज में साफ-साफ पापा लिखवा कर गए थे, पूरा घर मां के नाम।सुहास का मुंह लटका देख कर शालिनी समझ गई।बोलना शुरू किया”, देख बेटा, ये तेरे पिता का बनवाया हुआ घर है।कानूनी तौर पर तेरा हिस्सा भी बनता है।वकील को बुलवा लें।तेरे हिस्से का तू बेच सकता है

पर मैं‌ पूरा घर नहीं बेचने‌ वाली।मेरे पास बैंक में भी कुछ पैसे हैं।अगर तुझे बहुत जरूरत हो तो मैं निकाल कर दे दूंगी तुझे।तू मन मत छोटा कर।ईश्वर की कृपा से अच्छा कमा रहा है।गौरी भी कमाती है।कुछ पैसे अपने बच्चों के भविष्य के लिए जमा करो,और कुछ असहाय की मदद करने में खर्च करो।यही सबसे बड़ी पूजा है।मैंने और तेरे पापा ने ज़िंदगी भर सोचा ऐसा करने का।पर जिम्मेदारी निभाते -निभाते दूसरों के लिए कुछ कर नहीं पाए।अब वो तो नहीं हैं,तो हम दोनों के सपनों को पूरा करने का दायित्व मुझपर है।मैं मरते दम तक यह करूंगी।साल में एक बार छुट्टी लेकर यहां से तेरे बैंगलुरू आ जाऊंगी।तू अपने परिवार को लेकर आ जाया कर।यह बंधन कभी नहीं टूटेगा।”,

मां की बातों से सहमत ना होते हुए सुहास ने जोर देकर कहा” कुछ दिनों में ही यह घर खंडहर हो जाएगा।फूटी कोड़ी भी नहीं मिलेगी तब।यह तो घाटे का सौदा होगा।आपकी भी उम्र हो रही।इन बच्चों को खिलाने के लिए किसी पेपर में दस्तख़त तो नहीं किए हैं ना आपने?फिर क्यों इतना मोह इस घर से,बच्चों से।अरे ये जो बरगद ने अपनी जड़ें फैला दी हैं।यही अच्छे दामों में बिक जाएगा।इसे कटवाकर हम यहां एक बड़ा हॉल बनवा सकते हैं।किराए पर शादियों के समय दे सकतें हैं।अब जमाने के साथ आगे बढ़ाए मां।पहले अपना सुख देखिए,फिर औरों का।”

अब शालिनी जी आंसुओ को रोकने में असमर्थ हो रहीं थीं।पेड़ कटने की बात उनके कानों में पिघले शीशे की तरह जा चुकी थी।समझ गयी थीं वे,कि बिना उसे लिए सुहास जाएगा नहीं।घर बेचने पर आमादा हो उठा है।झट से बेटे का हांथ पकड़ कर बोली” ठीक है,मैं चलूंगी तेरे साथ।घर जब बेचना हो बेच देना।तेरे दादा जी के लगाए इस बरगद के पेड़ को कटवाने की बात कभी मत कहना अब।इस पेड़ में हमारे पुरखे रहतें हैं।कभी पंछी,कभी बंदर के रूप में आतें हैं वो हमें देखने।कि हम ठीक है कि नहीं।इतना तो तू कर सकता है ना।और‌ हां,मैं यहां एक खाना बनाने वाली का बंदोबस्त करती हूं।पैसे मैं ही दूंगी,पहले की तरह,बस खाना वो बना देगी।”

सुहास ने राहत की सांस ली। मानी तो कम से कम मां। धीरे-धीरे घर और पेड़ का बंदोबस्त भी कर लूंगा।अम्मा के जाने की खबर बच्चों के लिए शोक की लहर बन गई।हर बच्चा रो रहा था।वो चाह कर भी नहीं रोक सकते थे अम्मा को।उनका ख़ुद का बेटा उन्हें ले जाने के लिए स्वतंत्र था।

गौरी मां की मजबूरी समझ सकती थी,पर जिद्दी सुहास उसकी कोई भी बात नहीं सुनना चाहता था।जाने वाले दिन घर के आगे कैसे रुकी,जो सुहास ने बुक करवा ली थी।सारे बच्चे कैसे को घेरे खड़े रो रहे थे।अम्मा ने आज नीला (छात्रा)की दी साड़ी पहनी थी।निकलते समय आंखें लाल हो रखीं थीं।अचानक सुहास को चक्कर आया ,गिरने को हुआ तो शालिनी जी ने बरगद के चबूतरे पर लिटा दिया।लोटे में पानी और गुड़ लाकर खिलाया,तो सुहास को राहत मिली।आंख खोलकर ऊपर की ओर देखा तो,हजारों मिट्ठू,और भी ना जाने कितनी चिड़ियां जोर-जोर से चहचहा रही थीं।बरगद की एक बार में दादू भी दिखे।नीचे पत्तों की ओट में पापा चिंतित से दिखे।सुहास ने हड़बड़ाकर आंखें नीची कर लीं।मां का चेहरा सपाट था।रसोई बनाने वाली नई औरत को समझा रही थीं।वह भी रो रही थीं।सभी एक टक सुहास को ही देखें जा रहे थे।सुहास की अत्मा धिक्कारने लगी अब उसे।आखिर में पूछ ही लिया मां से”ये सब मुझे खलनायक की तरह क्यों‌ देख रहें हैं।मेरा तो आपसे खून का रिश्ता है।फिर मुझे दोषी क्यों बना रहें हैं ये सारे।ये तो कोई संबंधी नहीं हैं ना आपके।तो आप पर ज्यादा हक किसका हुआ?मेरा?या इनका?” 

शालिनी जी ने प्यार से सब पर नजर फेरी और कहा”इनसे मेरा इंसानियत का रिश्ता है।जो बिना स्वार्थ के बना।इंसान योनि में जनम लेकर यदि हम सिर्फ अपने बच्चे,अपने परिवार के बारे में ही सोचते रह गए,तो हम में और पशुओं में कोई अंतर नहीं रहेगा।हमारी सामर्थ्य से यदि किसी का भला होता है,तो प्रभु हमें और सामर्थ्य देंगें।

और‌ यदि हम इंसान बनना ‍चाहतें हैं तो, इंसानियत को भूल नहीं सकते।”, 

मां के ना निकले आंसू,बच्चों के झरते आंसुओं ने आज सुहास को इंसानियत की परिभाषा सिखा दी।मां जिस में खुश रहतीं हैं वहीं करें।हम भी उनके  इस कर्म यज्ञ में अब से निरंतर आहुति देने का प्रयास करेंगे।गौरी , सुहास का मत जानकर खुशी से भागती हुई पहुंची मां के पास।लगी बताने कि इंसानियत के रिश्ते के आगे खून की जिद हार गई।

शुभ्रा बैनर्जी 

साप्ताहिक कहानी-इंसानियत

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