बात उन दिनों की है, जब मैं शिक्षिका थी।दिल्ली के एस.जे. मॉडल स्कूल में मैंने तीन वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। यह केवल नौकरी नहीं थी, बल्कि आत्मा को संतुष्टि देने वाला अनुभव था। कक्षा की चौखट पर कदम रखते ही ऐसा लगता था मानो जीवन रूपी किताब का एक नया पन्ना खुल रहा हो। बच्चों की मासूम हँसी, उनकी आँखों में चमक और ज्ञान पाने की जिज्ञासा मेरी दिनचर्या को सार्थक बना देती थी।
शिक्षण का सफर यूँ तो अनेक अनुभवों से भरा हुआ है, लेकिन उनमें से कुछ पल ऐसे होते हैं जो समय की धुंध में भी साफ दिखाई देते हैं। आज भी जब स्मृतियों की पोटली खोलती हूँ तो एक छोटा-सा बच्चा, उसकी मासूम आँखें और उनमें छुपा दर्द सबसे पहले सामने आ खड़ा होता है। कक्षा पाँचवी का वह विद्यार्थी था। नाम तो मैं यहाँ नहीं लूँगी, लेकिन उसके व्यवहार और भाव-भंगिमा
ने मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ दी। वह बच्चा बाकी बच्चों की तरह चंचल नहीं था। अक्सर अपनी किताबों में खोया रहता या फिर चुपचाप कोने में बैठा रहता। सहपाठियों के बीच वह बहुत कम घुलता- मिलता।
कई बार मुझे लगता कि शायद घर के माहौल ने उसे इतना अंतर्मुखी बना दिया है, या फिर आत्मविश्वास की कमी उसका रास्ता रोक रही है। मैंने उससे बात करने की कोशिश की तो वह रो पड़ा।मैंने भी जाने दिया पर मन में कई सवाल थे। एक दिन अपनी साथी शिक्षिका से बात की तो पता चला उसकी माँ की एक हादसे में मृत्यु हो गयी है ,जिससे वह सदमे में रहता है। यह जानकर मैं बहुत भावुक हो गयी। उसे बिना जताए उसका ध्यान रखने लगी।
एक दिन गणित की कक्षा में मैंने बच्चों को ब्लैकबोर्ड पर सवाल हल करने के लिए बुलाया। सभी बच्चे उत्साह से हाथ उठा रहे थे, पर वह बच्चा चुपचाप सिर झुकाए बैठा था। मेरे मन में अचानक विचार आया कि क्यों न आज उसे मौका दिया जाए। मैंने उसका नाम पुकारा। शुरुआत में वह घबराया फिर धीरे-धीरे खड़ा हुआ और काँपते कदमों से ब्लैकबोर्ड तक आया। मैंने उसकी झिझक को समझा और हल्की मुस्कान के साथ कहा— गलती होगी तो कोई बात नहीं, यहाँ सीखने के लिए आए हैं। बस कोशिश करो।
मेरे शब्द मानो उसके दिल तक उतर गए। उसने काँपते हाथों से चॉक उठाई और धीरे-धीरे सवाल हल करने लगा। शुरुआत में कुछ गलती हुई, पर मैंने टोका नहीं। वह बार-बार मेरी तरफ देख रहा था, जैसे आश्वासन चाहता हो कि सब ठीक है। मैंने सिर हिलाकर उसे हिम्मत दी। अचानक उसका चेहरा खिल उठा और उसने पूरा सवाल सही हल कर दिया। जैसे ही ब्लैकबोर्ड पर सही उत्तर आया, पूरी कक्षा तालियों से गूँज उठी। मैं उसकी आँखों में चमक देख रही थी। वह केवल उत्तर की जीत नहीं थी, बल्कि आत्मविश्वास की जीत थी। उसके चेहरे पर आई वह मुस्कान मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार थी। उस दिन मुझे महसूस हुआ कि शिक्षक का असली काम केवल पाठ पढ़ाना नहीं, बल्कि डरे हुए मन को साहस देना है।
उसके बाद मैंने देखा कि वह बच्चा धीरे-धीरे खुलने लगा। मुझे वह अब अपना समझने लगा। अब प्रश्न पूछता, खेलों में हिस्सा लेता और सबसे बड़ी बात खुद पर विश्वास करने लगा। कक्षा के दूसरे बच्चे भी उसे नए नज़रिये से देखने लगे। यह बदलाव केवल एक गणित के सवाल से नहीं आया था, बल्कि एक विश्वास की डोर से आया था, जो शिक्षक और शिष्य के बीच जुड़ गई थी।
इन तीन वर्षों में कई बच्चों से जुड़ी ढेरों यादें बनीं। किसी की जिज्ञासा ने प्रभावित किया, किसी की मासूमियत ने मन को छुआ। लेकिन उस एक बच्चे का आत्मविश्वास पाने का पल आज भी मेरे जीवन का अनमोल खजाना है।
आज जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो समझ आता है कि शिक्षा केवल किताबों तक सीमित नहीं है। शिक्षा तो वह चाबी है जो बच्चे के मन का दरवाज़ा खोल देती है। हर बच्चे के भीतर एक अनूठी प्रतिभा छिपी होती है, बस उसे बाहर लाने के लिए धैर्य, प्रेम और प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है।
शिक्षण के इन तीन वर्षों ने मुझे यह सिखाया कि हम शिक्षक केवल विषय का ज्ञान नहीं बाँटते, बल्कि जीवन जीने की कला भी सिखाते हैं। हम बच्चों के भविष्य की नींव रखते हैं, उनके सपनों को आकार देते हैं। और जब कोई बच्चा अपनी झिझक से बाहर आकर आत्मविश्वास से खड़ा होता है, तो उससे बड़ी उपलब्धि और कोई नहीं हो सकती।
वह बच्चा आज कहाँ होगा, क्या कर रहा होगा, यह तो नहीं जानती। लेकिन मुझे विश्वास है कि उस दिन की तालियों की गूँज और उसकी आँखों की चमक ने उसकी राह आसान बना दी होगी। शायद वही मेरी शिक्षिका-यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि है। किसी के जीवन में आत्मविश्वास की पहली किरण बन पाना।
स्वरचित/मौलिक
प्रतिमा पाठक
दिल्ली