बहुत दिनों बाद,आज अपने शहर,अपनी गली,अपने घर की तरफ़ जाना हुआ था । हालांकि मेरा कुछ नहीं बचा था वहां,बहुत पहले ही सब के ठिकानें बदल गए थे। चिलचिलाती धूप, गर्म लूं के थपेड़े,सिर पर ओढ़े हुए सूती दुपट्टे को एक बार फिर और खोल कर लपेट लिया था मैंने।
वही गली थी ,बस अब पक्की बन गई थीं । बड़ी सी मुख्य सड़क के सामने मेरे घर की भीड़ी सी गली। मुख्य सड़क पर एक और मंदिर था, मंदिर के बाहर एक विशाल पीपल का पेड़ हुआ करता था। पीपल के पेड़ के बराबर में एक तंग सी गली ,
और गली के बराबर में ही सीधे हाथ पर एक दुकान जहां,टाफियाँ, पीले पीले नमकीन रोल ,जो फूंक मारने से ही उड़ जाते थे।मीठी और तरहं तरहं के रंगों की रंगीन सी गोलियां बहुत मज़ा आता था उन्हें खाने में। कभी अलग अलग रंग लेती ,तो कभी एक जैसा ऱग। दुकान वाला चाचा,जो कि सबका चाचा था, बहुत डांटता था, “रंग खाने हैं या गोलियाँ”?
पीपल के पेड़ के बायें हाथ को भी एक छोटी सी हलवाई की दुकान जहां दूध , मिठाइयां और प्रसाद मिलता था।
शनिवार को सुबह-सुबह औरतें पीपल के पेड़ पर मिठाई और चंद सिक्के शनिदेव को खुश करने के लिए चढ़ा जाती थी। शनिवार को स्कूल की छुट्टी भी बहुत जल्दी होती थी। मैं जल्दी की छुट्टी से भी जल्दी भागती हुई घर की तरफ़ आती और वहां रखी मिठाई और सिक्के उठा लेती।
मिठाई पेट के हवाले और सिक्के स्कूल बैग की जेब के हवाले।
मेरा एक सहपाठी नवीन जो कि मेरे साथ ही स्कूल जाया करता था। शायद मुझे ये सब करते देख चुका था। मेरे घर शिकायत करने की उसमें हिम्मत नहीं थी, क्यों कि उस समय मैं अपने ग्रुप की सरदार थी और नवीन जैसे बहुत से बच्चे,
जिन्हें दूसरे बच्चों से झगड़े से डर लगता था।वे सरदार की शरण में रहते थे। शनिदेव के उन सिक्कों से मेरा व्यापार भी चलता था। बहुत बच्चों को मैंने उधार दे रखा था। वापसी तो किसी से भी नहीं हुई थी पर पैसों के चलते मेरा अलग ही रोब था।
एक दिन हमारे स्कूल के बाहर एक अलग तरहं की कुल्फी प्लेट में बिक रही थी, उसमें लच्छे भी थे। मुझे उस कुल्फी की बहुत इच्छा हुई, मेरी उस समय की भाषा में मुझे बस कुल्फी की भूख लगी थी।
मैंने अपने सारे देनदारों से पैसे वापिस मांगे,और वो भी धमका कर ।आधी छुट्टी पूरी होने तक मुश्किल से पैसे इकट्ठे हुए, मैंने कक्षा में ना जाकर कुल्फी वाले के पास खड़े होकर कुल्फी खाई।
मेरे पीछे मुझ से प्रताड़ित बच्चों ने मीटिंग करके आते ही मुझे टीचर से प्रताड़ित करवाया। मैं बहुत ही दुखी धीमे धीमे कदमों से घर पहुंची ही थी कि घर पर भी एमरजेंसी अदालत लगी हुई थी। मुझे स्कूल में पिटता देखकर शायद नवीन के भी पर निकल आये थे। उसने मेरे घर में मेरी मां को सब बता दिया था ।
मां बेचारी बहुत परेशान थी, उन्हें ये चिंता थी कि शनिदेव के पैसे उठाकर जो भूल लड़की ने की है, शनिदेव से कैसे क्षमा याचना करवाई जाये।
बड़े ताऊजी और बड़ी मां को ये चिंता थी कि लड़की की जात और बदमाशी लड़कों से भी बढ़कर, यही संस्कार है तो आगे क्या करेंगी?
पापा को ये चिंता थी कि पीपल के पेड़ पर से कुत्ते भी चीजें खाते रहते हैं, इतनी गंदगी, इतनी मक्खियां, बच्ची को कोई बीमारी लग गई तो? मां को भी डांट रहे थे,तुम उसे उसकी पंसद का नहीं खाने देती,ना, इसलिए तो उसने ये भिखारियों से भी बदतर हरकत की।
मेरे गली के दूसरे बच्चे जो मेरे शैक्षणिक स्तर से हमेशा जलते थे,बड़े खुश थे,आज आयेगा मजा, मैडम बुद्धि माता को डंडे पड़ेंगे जब।
मैं बिचारी अकेली इतने लोगों की भीड़ ,सब के तेज तलवार से प्रश्न,उपर से गर्मी ,मां ने तो आते ही दो जड़ दिए, बड़ी मां जैसे और जड़वाने के चक्कर में थी।
ना छोटी, “अभी मत मारो पहले सारी बात पता कर , क्या पता और भी कहां कहां से पैसे चुराये हों”।
उस दिन की मार पिटाई से मैं शरीफ़ बच्ची बन गई थी।पीपल के पेड़ पर रखी मिठाई फिर भी मुझे ललचाती थी,पर मैं मुँह फेर के निकल जाती थी। मैंने दादागिरी भी छोड़ दी और नवीन से भी दोस्ती खत्म कर ली थी।
अब मेरी दोस्ती गली के कुत्तों और सांडों और गायों से हो गई थी।
स्कूल से आने के बाद मैं इन्हीं के साथ खेलती, इन्हीं के साथ भागती।इनके उपर रंग से कभी अपना नाम लिखती तो कभी इनका नाम जो मैंने ही रखा था। मेरे एक आवाज लगाते ही मेरे ये दोस्त तुरंत मेरे पास आ जाते थे। गौरी,कजरा, मेरी गाँय थी,
शेरू छुटकु,कालु,और भौंभौं,ये कुत्ते थे। विनायक छोटा बछड़ा था और बब्बर बड़ाऔर मोटा ताजा सांड था।
डाकौत पंडित की घरवाली अब सुबह शाम पीपल की सफाई करने आती थी।पर सिर्फ शनिवार को।
तंग गलियां धीरे धीरे और तंग हो गई हैं, क्यों कि लोगों के घर की दहलीजें गलियों तक आ गई हैं। कमरों के उपर कमरे बनाकर लोगों ने आसमानी हवा को भी घेर लिया है। आजकल शनिदेव यहां मिठाई खाने भी नहीं आते क्योंकि , पीपल काट कर क ई दुकानें बना दी गई हैं, जिनमें एक तो ब्रांडेड मिठाई की भी दुकान है।
मंदिर के ऊपर भी दो मंजिल बन गई है,जो शादी ब्याह में बैंकेट हाल का काम करती है।
तपती चिलचिलाती धूप में कोई शख्स बाहर ही नहीं था तो अपने या अंजान की पहचान कैसे करती। बार बार गली में झांक रही थी।लग रहा था कोई अपना सा अहसास गर्म लूं के साथ आ रहा था।
सामने पलट कर दुकानों की चमचमाती भीड़ में से अपनी मीठी गोलियों वाली दुकान तलाशने की कोशिश की,पर जैसे कोई नहीं थी वहां। तुक्के से गली के कोने वाली दुकान पर जाकर मीठी रंग-बिरंगी गोलियां मांगी तो हैरान से दुकानदार ने ब्रांडेड टाफियों का जार मेरी तरफ सरका दिया था।
मैम शायद आपको ये चाहिए ?
निरूतर सी मैं एक ठंडी लैमन की बोतल खरीद कर बैग के हवाले करती हूं।
मुझे लगभग बीस मिनिट हो ग ए हैं,छुटकु कालू,भौंभौं, शेरू कोई भी नहीं दिखा।गौरी और कजरी तो पीपल के पेड़ के नीचे बैठी रहती थी,पर अब तो वो पीपल भी नहीं था। बब्बर तो धूप में भी ढां ढ़ां करता घूमता था। वो भी नजर नहीं आया कहां चले गए सब।
मैं कभी अपने घर की गली और कभी सामने मंदिर के बराबर की तंग गली देखकर थक चुकी हूं। शायद मुझे किसी ने नहीं पहचाना । इसलिए तो कोई बोला नहीं।
मैं वापस जाने के लिए रिक्शा बुलाने ही वाली थी कि ट्रेन की सीटी और छुकछुक की आवाज सुनाई दी। मेरे कदम मंदिर के उस तरफ वाली चौड़ी सड़क की तरफ भाग पड़े , जहां से चंद क्षणों के फांसले पर मैं रेल की पटरी के पास पहुंच जाऊंगी।
पहले मैं यहां ट्रेन आने से पहले नकली खेलने वाले नोट रख कर इंतजार करती थी कि कब इन पर से ट्रेन गुज़रे और कब ये असली हो जायें। आज मन कर रहा था कि क्यों ना बैग के सारे नोट निकाल कर ट्रेन की पटरी पर रख दूं,ताकि ये नकली ही हो जायें, और मेरे वो लम्हें मेरे वो दोस्त, मेरी वो गलियां,मेरा वो पीपल मुझे वापिस मिल जाए।
मैं पटरी के पास पहुंच तो गई पर ट्रेन दनदनाती हुई निकल चुकी थी।
ललिता विम्मी
भिवानी हरियाणा