यह कैसी सुबह आई जो मुझ पर विपदा का पहाड़ तोड़ गई। जोर से दरवाजा पीटे जाने की आवाज से मेरी नींद खुली । रात को देर तक पीहू के साथ चैट की थी, सुबह जल्दी नींद नहीं खुली थी हड़बड़ा कर दरवाजा खोला तो सामने मेरा दोस्त निहाल घबराया सा खड़ा था। उसने अटकते स्वर में कहा ‘कॉलेज जाते समय पीहू तेजी से आते एक ट्रक की चपेट में आ कर मर गई।
ट्रक उसके ऊपर से गुजर गया। अभी फेसबुक पर खबर देख कर आया हूँ।’ निहाल मेरा जिगरी दोस्त था। पीहू पहले से उसकी फेसबुक फ्रेंड थी। उसी ने हमारी मित्रता कराई थी। मेरा हर राज उसे मालूम था।
पीहू और मेरी दोस्ती कब प्यार बन गई पता नहीं चला। अभी कुछ ही दिन पुरानी दोस्ती थी पर लगता था हम जन्मों से एक दूसरे को जानते थे। मैंने तो उसे अभी देखा तक नहीं था, सिर्फ आवाज सुनी थी।छह सौ किलोमीटर की दूरी थी। हम रोज सोचते कब और कैसे मिलेंगे। ऊपर विधाता ने कुछ और ही रच रक्खा था जो हम नहीं जान पाए।
मैं बिना चप्पल पहने ही घर से निकल पड़ा। बेसुध सा, अनजान डगर पर। सिर पर तेज धूप थी। सूखे गले में काँटे से उग आए थे। तपते मरुस्थल में ,पपडाए होंठों पर जमी प्यास लिए, जब सामने दूर ऊंचाई से पत्थरों से टकराता झरना दिखाई दे जाये या जेठ की दोपहर को अचानक कभी आसाढ़ के बादल घिर जाएं ,
तब सारी प्यास मिट जाती है। ऐसे ही वह मुझे मिली। हवा में घुली उसके तन की गंध बहते स्वेद को सुखा कर, मन प्राणों को सींच गई । गले की तरावट से अहसास हुआ वह मेरी सारी प्यास खुद पी गई और मैं उसे देखता रह गया।
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मैं उसके पीछे-पीछे चला जा रहा था और वह मेरे आगे -आगे,बार- बार पलट कर देखती,मुस्कुराती ।मुझे याद नहीं हम कितनी देर यूँ ही
चलते रहे। जब वह थक जाती किसी पेड़ के नीचे बैठ जाती । जब मैं उस तक पहुँचता ,वह फिर उठ कर चल देती। मैं उसे रोकना चाहता था पर वह नहीं रुक रही थी और मैं लगातार अनजानी डोर से बंधा खिंचा चला जा रहा था। चलते चलते सामने के वीरान से खण्डहर में वह घुस गई और उसके पीछे मैं भी चला आया।
सब तरफ देखा वह कहीं नहीं थी। अंधेरा घिरने लगा था, मैं थक कर चूर वहीं एक चबूतरे पर बैठ गया। बैठते ही थकान से मेरी आंखें बंद होने लगीं। पता नहीं कब और कहां से वह एक टूटे कुल्हड़ में मेरे लिए पानी और एक पत्तल में कुछ खाना लाई और
मुझे खिलाया। मैं चुपचाप खाता रहा। वह मुझे देखती रही ,फिर वहीं बैठ कर ,अपने घुटने पर मेरा सिर रखकर अपने दुपट्टे से मेरा पसीना पोंछा और प्यार से सुला दिया। मैं यंत्रचालित सा सब करता रहा। मैने एक लंबी नींद ली। पौ फटने से कुछ पहले एक तीखी गन्ध से मेरी नींद खुल गई।
अचानक रात की घटना मुझे धुंधली सी याद आई। फिर सोचा वहम होगा। मगर मेरे वहम को सच करते कुल्हड़ और पत्तल वहीं पड़े थे।मैं समझ गया , अवश्य ही पीहू मेरी प्यास बुझाने आई थी। मैं तेजी से उठा, पूरे खंडहर में उसे ढूँढा पर वह कहीं नहीं थी। मैं उदास मन और बोझिल कदमों से घर लौट चला।
मेरे पीछे किसी के कदमों की आवाज लगातार आ रही थी पर जब भी मैं पलट कर देखता ,वहां कुछ दिखाई नहीं देता। मैं समझ गया ,वही थी मुझे सुरक्षित घर पहुँचा कर वह अनन्त में विलीन हो गई और मैं अपने हिस्से का यह कभी न भूलने वाला एक दिन और एक रात उसके साथ बिता कर ,
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एक लंबी और वीरान यात्रा पूरी करने के लिए वापस आ गया। उस दिन चमन के सब फूल मुरझा गए और वह फिर कभी नहीं लौटी । उसे भुलाना बहुत मुश्किल था परंतु उसे भूल आगे बढ़ना मेरी नियति थी । वो कुछ हसीन यादें मेरे मन की कोठरी में हमेशा के लिए कैद होकर रह गईं।
सरिता गर्ग ‘सरि’