वो एक पल – रवीन्द्र कान्त त्यागी : Moral Stories in Hindi

आज पैंतीस साल बाद अलवर की जमीन पर पांव रखने का सौभाग्य मिला था।

मेरा हायर सेकेंडरी का परिणाम आने के पहले ही पिताजी का अलवर से भोपाल ट्रांसफर हो गया था। वहां से बीटैक करने के बाद मैं ऑस्ट्रेलिया चला गया था। फिर जीवन का एक लंबा अरसा सीमेंट व  लोहे के अनुपात और कंप्यूटर में उछलते नाचते अंकों को समेटने में ही गुजर गया।

मां और पिताजी के गुजर जाने के बाद तो शायद मैं अपने उस एक पल के एहसास पर जमीं समय की परतों को झाड़कर कभी पुनःस्पंदित करने भारत नहीं लौट पाता किंतु अलवर के प्रॉपर्टी के दलालों ने, न जाने किस विधा से मेरा सात समंदर पार का पता भी ढूंढ निकाला था। वे मुझे बार-बार याद दिलाने लगे कि आपका अलवर की स्कीम नंबर एक में एक प्लॉट पड़ा हुआ है।

बाजार गर्म है। आप के दर्शन देने मात्र की देर है। दो दिन में रजिश्ट्री करवा देंगे। मोटी रकम प्राप्त करके लौट सकते हैं। हालांकि यह रकम ऑस्ट्रेलिया में मेरी छह माह की सैलरी के बराबर भी नहीं थी किंतु जीवन के उत्तरार्ध में

अपनी मिट्टी को शीश नवाने, अलवर की गलियों में अपना बचपन तलाशने और एक विशेष स्थान पर बैठकर अपने जीवन के कुछ अमूल्य पलों को जीने के एहसास ने एक बार फिर भारत की जमीन पर लाकर खड़ा कर दिया था।

जिंदगी की जद्दोजहद ने अपनी किशोरावस्था काल में अलवर में बिताए समय को शिद्दत से याद करने का समय तो कभी नहीं दिया मगर ‘वो एक पल’, कभी किसी गुलाब की पंखुड़ी की सुवासित  छुवन का एहसास देकर रोमांचित कर जाता तो कभी किसी जंग लगी कील की तरह हृदय में गहरे तक धँसकर कुटिल चुभन भी देता रहता। काश उस एक पल को जतन से सींचकर वटवृक्ष की तरह इतना विशाल कर पाता कि जीवन उसकी ठंडी छाँव में गुजर जाता।

शहर में प्रवेश करते ही पैंतीस साल पुरानी स्मृतियां चलचित्र सी मानस पटल पर तैरने लगीं। वो स्कूल से बंक मार कर ‘सिलीसेड’ और ‘जयसमंद’ की झीलों के किनारे मटरगश्तियाँ करना। क्लास में मास्टर जी के आने से पहले उनका बिगड़ा हुआ नाम ब्लैक बोर्ड पर लिख देना। चुट्टल, कागला, लापा, चोमू और न जाने क्या क्या। होप सर्कस की सबसे ऊंची मंजिल पर खड़े होकर जोर-जोर से चिल्लाना। बराबर वाले प्रताप हाई सेकेंडरी स्कूल के लड़कों से पंगा लेना। एनसीसी की ड्रेस पहनकर सैनिकों की स्टाइल में एडी ठोक कर चलते हुए मोहल्ले की लड़कियों पर इंप्रेशन मारना।

उन दिनों मेरी उम्र बारह तेरह साल रही होगी जब मैं खंडेलवाल मिडिल स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता था। हमारे पड़ोस में एक दस बारह साल की लड़की रहती थी। सुलेखा। हम साथ साथ खेलते। लड़ते, झगड़ते, पढ़ते और लंबी-लंबी बातें किया करते थे। सुलेखा अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। उसके पिता रिटायर्ड रेलवे कर्मी थे। उनकी आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी तो नहीं थी किंतु मकान से मिलने वाले किराए और थोड़ी सी पेंशन से तीनों परिवार जनों का भरण पोषण ठीक-ठाक हो जाता था।

एक दिन ‘सतोलिया’ (पिट्ठू) खेलते समय मेरे द्वारा फेंकी गई गेंद गलती से उसके कान पर जा लगी। वह रोती हुई घर गई और अपनी मां को बुला लाइ। उस दिन मेरी माँ और उसकी मां के बीच जमकर नौकझोंक हुई। कुछ दिन हमारी बोलचाल बिल्कुल बंद रही मगर फिर सब कुछ सामान्य हो गया। उस उम्र के बच्चे वैमनस्य पालना कहाँ जानते हैं। 

कक्षा आठ की परीक्षा पास करने के बाद में हायर सेकेंडरी की पढ़ाई के लिए यशवंत हायर सेकेंडरी स्कूल में चला गया था। सुलेखा ने भी एक साल बाद आर्य कन्या स्कूल में दाखिला ले लिया था। अब खेल कूद के लिए समय कम मिलता था। किंतु कभी छुट्टी के दिन लंगड़ी टांग, आइस पाइस, और कंकड़ों को उछालकर गट्टे खेलने का मजा ले लिया करते थे। ग्यारहवीं क्लास तक पहुंचे मोहल्ले के बच्चों के साथ मेरा खेलना लगभग पूरी तरह बंद हो गया था इसलिए सुलेखा से भी कोई वास्ता नहीं पड़ता था। कभी-कभी वह किसी त्योहार को कोई मिठाई देने या जरूरत की कोई छोटी-मोटी चीज लेने मां के पास आती और नज़रे नीचे करके निकल जाती थी।

जब मैने ग्यारहवीं कक्षा पास की तो पिताजी घर में रेडियो खरीद कर लाये थे जो उस जमाने में किसी किसी घर में ही होता था। फुर्सत के समय मैं विविध भारती और रेडियो सीलोन पर फुल वॉल्यूम में मोहम्मद रफ़ी और किशोर कुमार के गाने सुनता और साथ-साथ ऊंची आवाज में गया भी करता था। यह उस उम्र में मेरी हॉबी थी।

एक दिन दोपहर का समय था। माँ कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रही थी। मैं चुपचाप बिस्तर पर लेटा हुआ कोई मैगजीन पढ़ रहा था। तभी कुलांचे सी भर्ती हुई सुलेखा हमारे यहां आई।

मां ने पूछा “बेटा मुझ से कोई काम हो तो बताओ? मैं जरा बाजार जा रही हूं।” तो उसने कहा “नहीं चाची जी बस जरा रेडियो सुनना था। वह मंगलवार का हवामहल मुझे बहुत पसंद है।”

“हां हां तो सुन लो ना जो सुनना है।” और मां रेडियो का स्विच ऑन करके बाजार चली गई।

“सुलेखा आजकल तुम दिखाई नहीं देती हो। पढ़ाई में बहुत मेहनत कर रही हो क्या।” मैने सामान्य बातचीत शुरू करने की दृष्टि कहा।

“नहीं वो… पता है, मेरी अम्मा है ना, वो कहती है कि तू लड़की है और अब बड़ी हो गई है। अब तू लड़कों के साथ नहीं खेल सकती। घर बैठकर सिलाई कढ़ाई सीख। आगे काम आएंगी।”

“मगर लड़की तो तू पहले भी थी ना जब हम सारे दिन कभी पिट्ठू… गट्टे…।”

“तू रहेगा बुद्धू का बुद्धू। अरे तब मैं छोटी थी। अब बड़ी हो गई हूं।”

उस दिन मुझे पहली बार एहसास हुआ कि सुलखा मेरे और दोस्तों जैसी नहीं है। वह एक लड़की है और लड़की एक अलग प्रकार का प्राणी होता है। समय के साथ उसका स्वर, व्यवहार, सोच और शरीर लड़कों से अलग तरह का आकार ले लेता है।  

सुलेखा अक्सर दोपहर के समय हमारे घर आ जाती। सिकुड़ी सिमटी सी माँ से बतियाती। विविध भारती पर अपना पसंदीदा कार्यक्रम सुनती और चली जाती।

विज्ञान की पढ़ाई ने मेरी कमर तोड़ रखी थी। अपने चारों ओर के परिवेश पर ध्यान देने का बिल्कुल समय नहीं था किंतु न जाने क्यों जब भी मैं घर से बाहर निकलता तो मुझे लगता कि दो आंखें मुझे लगातार देख रही हैं।

बरसात के दिन थे। कई दिनों से आकाश मेघाच्छादित हो रहा था और सुबह से ही हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी। दोपहर का समय था। कुछ ही देर पहले तेज बारिश होकर थम गई थी जिससे मौसम ठंडा और खुशनुमा हो गया था। मां दूसरे मोहल्ले में कीर्तन में गई हुई थी और मैं अकेला बैठा पढ़ रहा था कि तभी किसी की पदचाप सुनाई दी। सुलेखा चुपचाप आकर मेरे पीछे खड़ी हो गई थी।

“अरे सुलेखा तू कब आई। बैठ, रेडियो ऑन कर ले।”

“मैं रेडियो सुनने नहीं आई।” उसने सपाट स्वर में कहा।

“तो…? माँ तो कीर्तन में गई है। बता क्या बात थी।”

“मैं माँ से मिलने भी नहीं आई।” अब उसकी आवाज में हल्का सा रोष था।

“तो फिर बता ना। क्या गणित का कोई सवाल…।”

“क्या तो फिर – तो फिर लगा रखी है। तुम्हें कुछ दिखाई नहीं देता क्या।” उसने चहकती सी आवाज में कहा।

“क्या दिखाई नहीं देता। सब कुछ तो दिखाई देता है। ये सामने खुली हुई केमिस्ट्री की किताब दिखाई देती है। ये घर दिखाई देता है। सामने तुम्हारा घर दिखाई देता है। रेलवे से रिटायर हुए तुम्हारे चार फुट आठ इंच के बाऊजी दिखाई देते हैं और हाथ में तांबे का लोटा लिए सुबह-शाम लंगड़ाते हुए मंदिर जाती तुम्हारी मां।” मैंने बचपन की दोस्ती की तरह मज़ाकिया लहजे में कहा।

“बस करो। अब हम बच्चे नहीं हैं जो एक दूसरे के पेरेंट्स का इस तरह मजाक उड़ायें।” उसने एकदम क्रोध में कहा।                                                                                                                                                    उसके चेहरे पर लालिमा और आंखों में क्रोध के अंगारे फूट रहे थे। कुछ क्षण वह इसी तरह अनमनी सी खड़ी रही मानो अपने क्षणिक क्रोध को जज़्ब करके सहज होने का प्रयास कर रही हो। फिर एकदम शहद में भीगे शब्दों में कहा “तुम्हें सब कुछ दिखाई देता है दिनेश बस बस मैं ही दिखाई नहीं देती। तुम नहीं जानते कि मेरे हृदय में तुम्हारे प्रेम की ज्योति जलती है। काश… काश तुम यह भी देख पाते।” और वह जाने लगी

मैंने पहली बार उसकी आंखों में देखा। उसके मासूम चेहरे पर एक लाडले बालक की जिद और किसी अपने से रूठने का भाव था। उसके चेहरे पर दुर्लभ सी अपनत्व की धवल आभा छलक रही थी।

“सुनो सुलेखा” मैंने गंभीरता से कहा। “हम तो बचपन से साथ खेल कर बड़े हुए हैं। फिर आज तुम अचानक इतनी भावुक क्यों हो रही हो। देखो अभी हमारे पढ़ने लिखने और कैरियर बनाने के दिन हैं। ये प्यार मोहब्बत की बातें हैं। फिल्मों में अच्छी लगती हैं। जाओ, मन लगाकर पढ़ो। अरे तुम्हारा तो इस साल दसवीं का बोर्ड एग्जाम है।”

सुलेखा आँखें पौछते हुए चली गई। अपने पिताजी की स्टाइल में मैंने उसे नसीहत देकर भेज तो दिया था किंतु उस रात में भी सो नहीं पाया। मेरे लिए भी तो ये एक अलग अहसास था। किताबों में छपी आड़ी तिरछी रेखाओं से अलग। कुछ मधुर सा। कुछ रोमांचक सा। बार-बार सुलेखा का बड़ी-बड़ी आंखों में आंसू लिए चेहरा मेरी आंखों के सामने घूमता रहा।

उस दिन के बाद मेरे मानस पटल पर सुलेखा की तस्वीर बिल्कुल बदल गई थी। उसकी चाल में एक अजीब सी मादकता का एहसास होता।

जेठ की दुपहरी में जब वह साइकिल से घर लौटती थी तो धूप के मारे उसके गाल सेब की तरह लाल हो जाते और माथे पर उभर आए श्वेत बिंदु, कमल के फूल पर ओस की बूंद से नज़र आते। जब सुलेखा अपने घर में प्रवेश करती तो एक बार पलट कर मेरी खिड़की की ओर अवश्य देखती थी।

उसी एक पल की प्रतीक्षा में मैं घंटों खिड़की पर बैठा रहता।  कभी-कभी जब वह मां से मिलने आती तो मैं कनखियों से उसे देखता रहता। देखा तो उसे बचपन से था किन्तु अब दृष्टि बदल गई थी। बचपन की नकचढ़ी, झगड़ालू सी लड़की में अब एक शिल्पी के द्वारा तराशी गई

रूप सौन्दर्य की अनुपम कृति दिखाई देती। ऐसे में अचानक हमारी नजरें मिल जातीं तो सूर्योदय की सी अरुणिमा उसके चेहरे पर दौड़ जाती और वह तुरंत लज्जा से नजरें झुका लेती थी। 

मैंने कहीं पढ़ा था कि नारी में पुरुष की आँखें और चेहरे को पढ़कर मन के भाव जानने की विलक्षण क्षमता होती है।

तभी सुलेखा एक दिन मेरी अनुपस्थिति में माँ से मेरी हिंदी की किताब, कहानी पढ़ने के बहाने मांग कर ले गई। फिर वही हुआ जो उस जमाने में प्रेमी प्रेमिकाओं के बीच में होता था। जब सुलेखा ने किताब लौटाई तो सूखी हुई गुलाब की पंखुड़ियां के बीच एक छोटा सा प्रेम पत्र किताब के बीच रखा गया था। “प्रिय, तुम्हारी आंखों में मैंने अपने लिए अथवा प्रेम का सागर हिलेरे लेते देखा है। इस प्यार को आंखों से हृदय में उतार लेना। बस मुझे और कुछ नहीं चाहिए।”

शुरू में पत्र संकोच में भीगे हुए होते थे किन्तु धीरे धीरे प्रेम का गाढ़ापन बढ़ता ही जा रहा था। कुछ भी हो, उस उम्र में प्रेम पत्रों के आदान प्रदान का एक अलग ही रोमांच होता था।

प्रेम का प्रवाह भी यदि मानव निर्मित नहर नालों की तरह सीमाओं में बंधकर बहता तो सभ्यताओं का इतिहास कुछ अलग तरह से लिखा जाता किंतु प्रेमावेश कब उत्तुंग बरसाती नदी की तरह तटबंध तोड़कर, सब कुछ बहा ले जाएगा इसका अनुभव कम से कम मुझे उस घटना से पहले तो नहीं ही था।

एक दिन उसके सब्र का बांध टूट गया और उसने मुझे पत्र लिखा। “प्रिय, अब तुमसे एक पल की दूरी भी बर्दाश्त नहीं होती। तुम्हारे अनुराग में जिंदगी प्यासी मृगी सी हो गई है और तुम मरीचिका की तरह मुझसे दूर होते जा रहे हो।

समाज और परिवार के मोहपाश में जकड़कर, घुट कर मर जाना इस प्रेम की परिणिति नहीं हो सकती। मैं अब बंधन मुक्त होना चाहती हूँ। सुनो, मैंने निश्चय कर लिया है। हम यह शहर छोड़ देंगे। कहीं दूर चले जाएंगे, जहां न जामाने की घूरती हुई आँखें हों और न ही समाज की कंटीले तारों वाली बन्दिशें। मैंने सब व्यवस्था कर ली है प्रिय।

हम अहमदाबाद चले जाएंगे। वहां मेरी मौसी की लड़की रहती है। उसे हमारे बारे में सब कुछ पता है। रविवार अठारह तारीख की शाम को रेलवे स्टेशन पर मिलो। कुछ पहनने के कपड़े साथ ले लेना। बाकी सब व्यवस्था मेंने कर ली है।

और सुनो प्रिय, इस संबंध में अब कोई कंप्रोमाइज करने को मैं तैयार नहीं हूं। तुम्हारी कसम खाकर कहती हूं कि यदि तुम नहीं आए तो मैं उसी रेल के आगे कूद कर जान दे दूंगी।” तुम्हारी सुलेख।

पत्र पढ़ते ही मेरे तो होश फाख्ता हो गए। ये लड़की पागल हो गई है क्या। अधूरी पढ़ाई और माता-पिता को छोड़कर चले जाने का साहस उस वक्त मुझमें तो नहीं था। पर अब करूं तो क्या करूं।  किसी से कह भी तो नहीं सकता। अगर सचमुच उसने ऐसा वैसा कुछ कर लिया तो जीवन भर स्वयं को माफ नहीं कर पाऊंगा। मेरा दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। प्रेम पत्र लिखकर किताब में रख देने और ऐसा दुःसाहस पूर्ण कदम उठाने में बहुत अंतर होता है।

अंत में मैंने निश्चय किया कि नियत समय पर स्टेशन पहुंचकर उसे समझा बुझाकर घर भेजने का प्रयास करूंगा। कायरों की तरह मुंह छुपाकर घर में बैठा रहा तो न जाने उस दिन क्या दुर्घटना हो जाए। 

रेलवे के प्लेटफार्म की एक बेंच पर, चेहरे के अत्यंत निकट किताब लगाए वह पढ़ने का बहाना सा करते हुए चेहरा छुपाने का प्रयास कर रही थी। निकट ही एक खाकी रंग का कपड़े का कवर चढ़ी हुई अटेची रखी थी।

मुझे देखते ही चौंककर खड़ी हो गई और व्याघ्र से डरे हुए मृगशावक सी इधर उधर देखने लगी। इतने निकट से इतनी सुंदर तो इससे पहले मैंने उसे कभी नहीं देखा था। उसके चेहरे पर भय, लज्जा, एक उतावलापन और मेरे पहुँच जाने की खुशी परिलक्षित हो रही थी। मंत्रमुग्ध सा हो गया था मैं उसे देखकर। 

उस दिन… उस पल का एहसास मेरे जीवन की अमूल्य धरोहर है। मुझे लगा कि कुदरत की इस अनुपम कृति को मुझे कम से कम एक बार छूकर तो देखना चाहिए। मैंने धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया। हम दोनों के शरीर में विद्युत प्रवाह सा स्पंदन हुआ और एकदम वह मेरे सीने से आ लगी। उसने अपना सर मेरे कंधों पर टिका दिया

और बरसों से बिछड़े प्रेमी की तरह मुझ से लिपट गई। न जाने कब मेरे हाथों ने उसके बदन को अपने में समेट लिया था। उस पल स्टेशन की भीड़, आती जाती गाड़ियों का शोर, सब कुछ जाने कहां शून्य में विलीन हो गए थे। मुझे लगा कि एक सोनपरी किसी दूसरे लोक से उतरकर सीधे मेरी गोद में आ गिरी है। मुझे लगा कि हम दोनों इस मानवीय दुनिया से दूर कहीं

सातवें आसमान पर विचरण कर रहे हैं जहां ना तो जोमैट्री और अलजब्रा के उलझन भरे सवाल हैं। ना पैसे के दौड़ में फेफड़े के फट जाने तक दौड़ने की स्पर्धा है और न ही भेड़ियों की तरह घूरती समाज को सुधारने का दम भरने वाले बिगड़े हुए सुधारको की लिप्सा भारी ‘हाय हस्सन हम न हुए’ वाली कामुक निगाहें हैं।

मेरे हृदय की संवेदनाओं ने मेरे मस्तिष्क पर पूरी तरह कब्जा कर लिया था। माता-पिता का स्नेह और अपेक्षाएं एक क्षण में अदृश्य हो गईं। लगा कि यही जीवन का परम और चरम है। इसके आगे और कुछ नहीं। हम दोनों जल्दी से भाग कर किसी भी गाड़ी में चढ़ जाए और इस शहर से बहुत दूर निकल जाए जहां हम एक स्वर्गिक जीवन जी सके।

भविष्य की चिंता ना परिणाम का भय। कोई सीमा अब हमें रोक नहीं सकती। कोई समाज की जंजीर अब हमें अपने पाश में जकड़ नहीं सकती। ये दुनिया, समाज, मां-बाप, करियर, हवा, पानी, आंधी, तूफान, भूख, प्यास, पैसा, सब हमारे लिए गौण हो गए हैं। यहां तक कि इस नश्वर देह का भी अब कोई अर्थ नहीं है। बस एक शून्य में दो प्रकाश पुंज एक दूसरे में विलीन हो गए हैं।

तभी मेरे कंधे पर एक अपरिचित स्पर्श ने मेरी तंद्रा पर प्रहार किया। उसके बूढ़े पिता ठीक मेरे पीछे बेबस, निरीह और टूटे हुए से खड़े थे।

आज 35 साल बाद भी उन अमूल क्षणों की कल्पना मात्र से शरीर में एक सिहरन सी दौड़ जाती है और मैं उस परम आनंद को हृदय में सँजोये रखने के लिए कुछ पल आंखों मूँद लेता हूं।

देर तक अलवर रेलवे स्टेशन की उसी बैंच पर बैठा रहा। पैंतीस साल में वहां दीवार पर लगे पोस्टरों के अलावा कुछ भी नहीं बदला था। देर तक आती जाती रेल गाड़ियों को, उसमें उतरने चढ़ने वाले यात्रियों को देखता रहा। कभी लगता कि… अभी सुलेखा किसी गाड़ी से उतरेगी और मेरी और देखकर कहेगी “अरे तुम अभी तक यहीं बैठे हो।

देखो मैं तो कहां से कहां पहुंच गई।” कभी लगता कि मैं हायरसेकेंडरी कॉलेज का छात्र हूं और इस बार मैं उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूं। अभी वो चहकती हुई प्लेटफार्म पर प्रगट होगी और हम दोनों परवाज़ भरेंगे नीले आकाश की अनंत ऊंचाइयों की ओर। काश वह बरस, वह उम्र और वह दिन दोबारा लौट आयें और इस बार हमें कोई रोकने टोकने वाला ना हो। काश…।

शाम ढलने लगी थी। धीरे-धीरे टहलते हुए मैं स्टेशन से बाहर आ गया। एक उदासी सी मन पर छा गई थी। उम्र गुजर गई। कितने बरस बीत गए मगर जिंदगी में दोबारा ऐसा समर्पित प्रेम नहीं मिल पाया।

समय के साथ सब कुछ तो बदल गया है। इतने बरस के बाद वो ना जाने कहां होगी। इस शहर में या कहीं और। अब तो उसका बड़ा परिवार होगा। नाती पोतों वाली हो गई होगी। कभी, कहीं मिल भी गई तो दुनिया के समय से बरसों पीछे चल रहे इस छोटे से शहर का समाज न जाने कैसा रिएक्ट करेगा। चलो छोड़ो भूल जाओ।

यादों के अंबार में उस एक पल को दोबारा छू लेना शायद संभव भी नहीं है। चलो किसी पुराने मित्र की तलाश की जाए। लच्छी राम, राम अवतार, देवी सिंह, राजेंद्र। यादों की गहारी खाई में उतरता चढ़ता देर तक पैदल चलता रहा। जब तंद्रा टूटी स्वयं को ठीक सुलेखा के घर के सामने खड़ा पाया।

अरे यहां तो एक शानदार कोठी खड़ी हो गई है। एक मोटी सी महिला ने दरवाजा खोल। मेरी नज़रें उसमें सुलेखा को ढूंढने का प्रयास कर रही थी मगर न वो रंग न वो आँखें।

“भैया किस से मिलना है!

“आज से कुछ… पैंतीस साल पहले यहां एक फैमिली…। मिस्टर…। 

“जी… पहले तो हम बेंगलुरु में रहते थे। हमें कैसे पता होगा। हमने तो कुछ साल पहले यह खंडहर सा मकान एक विधवा से खरीदा था। फिर हमने ही इसे नया बनवाया।”

“विधवा! कैसी थी विधवा देखने में। मेरा मतलब है कि उम्र… आ… वे लोग कहाँ चले गए। कुछ अंदाजा बता सकती हैं क्या?” मैंने बेताबी के साथ कहा। 

“वो औरत जिस से हम ने मकान खरीदा था… कम उम्र में ही विधवा हो गई थी बेचारी… कोई… शास्त्री मैडम थी…। स्कूल टीचर। उस समय तो सुना था कहीं मोती डूंगरी में शिफ्ट हो गए थे शायद। मगर पक्का पता नहीं।”

अभी थोड़ी देर पहले जहां मैंने सोचा था कि अब सुलेखा से मिलने का कोई अर्थ नहीं है। वैसे भी रेत में सूंई ढूंड़ने जैसा काम है किन्तु ‘विधवा’ शब्द मेरे कानों में वज्र की तरह बज रहा था।

अपनी संस्कृति और परंपरागत सामाजिकता से जुड़े मिलनसार समाज वाले शहरों में किसी को ढूंदना इतना मुश्किल भी नहीं होता है। अगले दिन मात्र तीन घंटे के प्रयास के बाद मैं एक पचास साठ गज के बिना प्लास्टर वाले घर के सामने खड़ा था जिसके लकड़ी के दरवाजे पर एक प्लेट लगी थी। प्लेट पर लिखा हुआ था “ट्यूटर सुलेखा शास्त्री”।

दरवाजा नौक करने से पहले कई पल मैं आँखें मूंदकर धड़कते दिल से स्वयं को तैयार करता रहा। इतने बरस बाद प्रेम की उस पुजारिन से कैसे आँखें मिला पाऊँगा। पलायन तो मेरा भी था। उस दिन के बाद मैं उसकी कोई सुध ले पाया क्या। और अब जैसे सदियों के बाद…।

जिसने दरवाजा खोला उसकी उत्सुकता में पूरी खुली हुई आँखों और चिबुक के छोटे से डिम्पल ने एक क्षण में उस पचास पार की सुदर्शना नारी का, सुलेखा के रूप में परिचय दे दिया था। मेरी… सौरी। किसी जमाने में मेरी सुलेखा। जिसके लिए मैं अपना कैरियर और माँ बाप को छोड़कर दुनिया के समुद्र में छलांग लगाने को तैयार हो गया था।

आंखों पर नजर का चश्मा चढ़ गया था मगर एक सम्मोहन सा उसकी आँखों में आज भी परिलक्षित होता था या… क्या पता मुझे ही ऐसा लग रहा हो। उसने अपने खिचड़ी बाल बेतरतीबी से पीछे बांध रखे थे और एक साधारण सी खादी की सूती साड़ी पहन रखी थी। मैं गौर से उस महिला में 35 साल पहले वाली सुलेखा को ढूंढ रहा था।

किसी अजनबी का इस प्रकार घूरना उसे असभ्यता सी प्रतीत हुई होगी।

“बोलिए! यदि आप बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने को पूछने आए हैं तो, सॉरी फिलहाल मेरे पास ना तो स्पेस है और ना ही टाइम है।” और वह दरवाजा बंद करने लगी।

“प्लीज मैडम। क्या मैं अंदर आ सकता हूं।”

“अरे! किस लिए? मैं आपको बता ही चुकी हूं। आप… कोई सेल्समैन है या वोट बनाने वाले हैं?” उसने संकोच में डूबती सी आवाज में कहा। 

कहते हैं आदमी की आवाज कभी नहीं बदलती। उसके चेहरे से साफ झलक रहा था कि उसके अंतर में भी कहीं बरसों पुरानी कोई आवाज अपना मुकाम ढूंढने का प्रयास कर रही है। उसने अपने चश्मे से एक बार ऊपर से नीचे किया और मुझे गौर से देखा।

असमंजस के साथ दरवाजे के एक और हटकर मुझे अंदर आने का संकेत किया। सच तो ये है कि यदि उसके दरवाजे पर नेम प्लेट नहीं लगी होती तो मैं भी उसे पहचान नहीं पता। फिर मेरे व्यक्तित्व में तो इतने लंबे अरसे में भारी अंतर आ गया था। आंखों पर नज़र का चश्मा लग गया था। सर गंजा हो गया था और मेरी थोड़ी तौंध भी निकल आई थी।

बिना किसी औपचारिकता के में कुर्सी पर बैठ गया। वह कमरे के एक कौने में खड़ी अजीब सी निगाहों से मुझे देख रही थी। लगता था उसके दिल में एक तूफान बरपा है। बरसों पुराना घटनाक्रम और उसके बाद जिंदगी में आए हाहाकारी मोड़ चलचित्र की तरह उसके मस्तिष्क में चल रहे होंगे। अचानक एक हिचकी का स्वर सुनाई दिया। उसने साड़ी के एक पल्लू को मुंह पर लगाकर अपने रुदन को दबा लिया और तेजी से भीतर चली गई।

कई पल मैं ऐसे ही शांत अकेला बैठा रहा। यहाँ आने के अपने निर्णय के औचित्य को तलाशता रहा। क्या मैंने उसके शांत जीवन में हलचल पैदा करने का अपराध किया है। पुराने जख्मों को कुरेदने का अपराध किया है मैंने। क्या पता मेरे जाने के बाद उसने एक स्वर्णिम जीवन जिया हो और उसी की यादें उसे व्यथित कर रही हों।

कई पल के बाद वो एक पानी का ग्लास हाथ में लेकर प्रगट हुई। उसके धुले हुए चेहरे से लग रहा था कि बहुत सारा अवसाद उसने आँखों के रास्ते बहा दिया है।

“सुलेखा… सुलेखा जी… मैं। मैं तुम्हारा अपराधी हूँ शायद। पुरुष होने के नाते मुझे कुछ और साहस के साथ मजबूत कदम…।”

“कुछ और बात करो दिनेश जी। अब हम बहुत दूर निकल आए हैं।”

“मगर मैं क्या करता। उस दिन के बाद तो तुम एकदम गायब हो गई थीं। शायद तुम्हारे घर वालों ने तुम्हें कहीं बाहर भेज दिया था। कितने दिनों तक मैं तुम्हारी चौखट की ओर टकटकी लगाए रहा मगर तुम्हारी एक झलक न मिली। फिर… पिताजी का ट्रांसफर हो गया और हम भी भोपाल शिफ्ट हो गए। फिर बैंगलौर में इंजीनियरिंग और ओशट्रेलिया में जॉब। शायद नियति को यही मंजूर था।”

“चलो अच्छा है। अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ।”

“परिवार है। वैसा ही जैसा वहाँ की संस्कृति में होता है। ‘इट्स माय लाइफ’ के सिद्धान्त पर चलकर अपना अपना जीवन जीने वाला।”

“एक सुखद जीवन जीने की शुभकामनायें। क्या पियोगे।” उसने बेहद तनाव भरे चेहरे पर तनिक सी कृत्रिम मुस्कान ओढ़ने का असफल प्रयास करते हुए कहा।

“मगर मेरा विश्वास करो सुरेखा। मैं पूरे जीवन तुम्हारे साथ बताएं उन चंद पलों को कभी भूल नहीं पाया। आज जिंदगी के इस दौर में पहुंचने के बाद यह एहसास होता है कि जो कुछ मैंने पाया वह उस से बहुत कम था जो मैं पा ना सका।

बल्कि… मैं पूरी जिंदगी की… उस एक पल से भी तुलना करूँ तो…। काश…।” मैं नज़रे नीचे किए एक साथ में सारी बातें कहा गया मगर जब उसकी तरफ देखा तो उसने नजरें झुका रखी थीं या शायद आँखें बंद कर रखी थी।

वो स्वयं को भावनाओं के अतिरेक में बहने से रोकने का प्रयास कर रही थी या क्या पता स्मृतियों का चलचित्र उसकी आँखों के सामने चल रहा हो। फिर उसने अपनी साड़ी का पल्लू अपनी आँखों पर रखा और “चाय…।” बस यही एक भीगा हुआ शब्द निकल पाया उसके मुंह से।

कुछ पल बाद वह लौटी तो पहले से ज्यादा व्यवस्थित और तनाव मुक्त लग रही थी। वो सामने की कुर्सी पर बैठ गई।

“अपने बारे में कुछ बताओ न सुलेखा।”

उसने एक लंबी सांस ली। एक बार अपनत्व की सी निगाहों से मेरी ओर देखा और डूबती आवाज में बोलना शुरू किया। “उस  घटना के बाद उन्होंने मुझे एक रिश्तेदार के पास जोधपुर भेज दिया था।  फिर अफरा तफरी में एक ढलती उम्र के चरित्रहीन व्यक्ति से मेरी शादी करा दी गई। फिर…।

” उसने एक हिचकी सी ली और मौन हो गई। कुछ क्षण बाद दोबारा बोलना शुरू किया। “फिर धीरे-धीरे सब चले गए। पहले वो आदमी जो सुबह का कुल्ला भी शराब से करता था। उसके बाद वहाँ कुछ नहीं था। घर लौटी तो मेरी शादी के कारण… उसे शादी कहना तो पाप ही है।

मेरे पिताजी कर्जदार हो चुके थे। मकान वगहरा सब…। फिर दोनों चले गए। माँ भी और पिताजी भी। बस और कुछ मत पूछना प्लीज। मैं बता नहीं पाऊँगी।” एक गहरी उदासी के कुहासे ने उसे चारों ओर से घेर लिया था।

मेरे हृदय में जैसे किसी ने सैकड़ों सूंईयां एक साथ चुभा दी हों। 

“अकेली हो?”

“नहीं एक बेटी है। एमएससी कर रही है।”

कुछ देर फिर एक मौन हम दोनों के बीच आकर बैठ गया।

बड़ी हो गई होगी। कहीं अच्छा सा लड़का देखकर उसका घर बसा देना फिर वही होगी तुम्हारी नई जिंदगी। “मैं… मैं कौन होती हूँ उसका भाग्य बनाने वाली। जब विधाता ने ही उसके दुनिया में आने से पहले सब कुछ छीन लिया था तो…। उसके भी जो भाग्य में होगा, भोगेगी। मेरी तरह।” उसने गहरी निराशा के साथ कहा।

“सुलेखा! कभी-कभी मुझे लगता है कि सब मेरी ही गलती से हुआ। ना मैं तुम्हारे जीवन में आता। न हम वो गलती…।”

“प्रेम के उन पवित्र पलों को गलती बताकर मेरे जीवन के उस अमूल्य एहसास को मुझ से मत छीनो  जिनके सहारे मैं आज तक जिंदा हूं। जब मेरे पिता ने अपने क्रोध को शांत करने के लिए या क्या पता मुझे सजा देने के लिए, समाज से डर कर एक दुहाजू के साथ मेरे फेरे डलवा दिए थे और  अपनी जिम्मेदारियां से पल्ला झाड़ लिया था

तब भी और जब शराब के नशे में धुत्त एक आदमी मुझे अपनी पत्नी बात कर मेरे साथ बलात्कार करता रहा था तब भी, एक प्रेम की अलख जो तुमने मेरे हृदय में जगायी थी, एक प्रकाश पुंज की तरह मेरे क्षितिज पर दैदीप्यमान होती रही। उसकी ऊष्मा  ने मुझे जीने की ऊर्जा प्रदान की और सब कुछ सहकर भी मैं आज तक जिंदा रह पायी।”

“ओफ़्फ़, कितना झेलना पड़ा तुम्हें सुलेखा।” मेरे मन पर मानो किसी ने बोझीला पत्थर रख दिया था।  “मैने अंतिम क्षणों तक स्वयं शादी के बंधन में बंधने से पहले अपने मित्रों से तुम्हारे बारे में जानकारी कराई थी। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उन्होने बताया कि तुम्हारी शादी हो चुकी है और शायद एक सुखी ग्रहस्थ जीवन जी रही होगी… मगर। ओफ़्फ़।”

“सुनिए दिनेश जी। बार-बार तुम स्वयं को दोष देकर मेरे वन वीणा के तारों को झंकृत मत करो। तुम मेरे जीवन की प्रथम पुरुष थे हो और रहोगे। उस एक आलिंगन के ताप से तो मैं ऐसे हजारों जीवन काटने को तैयार हूं। पर… पर क्षमा चाहती हूं। स्मृति की लहरों पर बनी मेरे आराध्य की उस तस्वीर को एक कंकर फेंक कर विकृत करने की इजाजत तो मैं तुम्हें भी नहीं दे पाऊंगी।

मैंने अपनी पलकों में दिनेश की जो अमिट छवि सँजोकर रखी है उसे वैसा ही रहने दो। पैंतीस साल बाद हुई इस मुलाकात को मैं अपने स्मृति पटल से स्लेट पर लिखी इबारत की तरह पौंछ कर मिटा देना चाहूंगी।  और 35 साल पहले पी हाला के मद में जीवन गुजार दूँगी। आशा है यही हमारी अंतिम मुलाकात होगी। बैठो मैं चाय लाती हूं।

उसके रसोई में जाने के तुरंत बाद मैं मन ही मन उस महान प्रेम पुजारिन को नमस्कार करके वहां से चला आया था।

अगले दिन रजिस्ट्री कार्यालय जाकर प्लॉट की एक पावर ऑफ अटॉर्नी कराई और कोरियर से एक पत्र के साथ सुलेखा के घर भेज दिया।

ऐसी विशाल हृदया देवी कभी मेरे जीवन में अवतरित हुई थी इस एहसास मात्र ने मेरे जीवन में नए रंग भर गए हैं। इस मिलन के आल्हाद को दिल में समेटे लौट रहा हूं। मैं जानता हूं कि तुम स्वाभिमानी और स्वावलंभी महिला हो किंतु पुत्री को कन्यादान देने के अधिकार से तुम मुझे वंचित नहीं कर सकतीं। प्लॉट के कागज स्वीकार करने पड़ेंगे। यही तुम से मेरी अंतिम याचना है।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

Leave a Comment

error: Content is protected !!