बला की खूबसूरत थी वो स्त्री…. सजने संवरने के बाद तो उस पर चार चांद ही लग जाते थे…..हाव-भाव , तौर तरीकों से कोई समझ ही नहीं सकता था कि वो अनपढ़ है ….उसके पास कागज की डिग्रियां जो नहीं थी …! पर वो जिंदगी के समीकरण को खूब समझती थी …रिश्तो के जोड़ घटाव में पारंगत उसकी हर हार में ही जीत होती थी…!
अक्सर वो स्त्री जिंदगी के इम्तिहानों में फेल हो जाया करती थी , और खूबसूरत जिंदगी … तमाशा बन खेल जाया करती थी…।
एक दिन वो स्त्री सजसंवर कर बड़े उत्साह से गंतव्य की ओर जाने हेतु बस में अपनी सीट पर बैठी ही थी कि कुछ मनचलों की हरकतों और मंशा समझ थोड़ी सी सकुचाते हुए , पलकें झुकाए अपनी सीट पर सिमट कर बैठ गई…. शायद वो उन डिग्रीधारियों के चालाकियों के फलसफे को समझ चुकी थी…! आखिर थककर वो अनपढ़ स्त्री ने डिग्री धारी मनचलों से पूछ ही लिया…
…” क्या आप शिक्षित हैं “……
(स्वरचित)
संध्या त्रिपाठी