ताईजी..ताईजी….ताईजी…. बैठिए, थोड़ा सा सूप पी लीजिए।
मन नहीं है बेटा, रख दे । बाद में पी लूँगी ।
नहीं ताईजी, गर्म- गर्म पी लीजिए । आपने सुबह से कुछ नहीं खाया । आपके सामने ही डॉक्टर साहब ने कहा था कि कुछ न कुछ खाते रहना । और ताईजी, बिना खाए- पिए तो दवाई भी आराम नहीं करती ।
इतना कहकर रीमा ने अपनी ताई सास को सहारा देकर बैठाया और उन्हें सूप का प्याला पकड़ाया । रीमा उनके तलवे सहलाने लगी । थोड़ा सा सूप पीकर ताईजी ने प्याला रीमा को पकड़ाया और लेट गई । हाथ- पाँव सहलाते- सहलाते ताईजी की आँख लग गई । रीमा ने सोचा कि आधे घंटे बाद उन्हें दवाई देने के बाद ही रसोई में जाएगी इसलिए वह वहीं पड़ी कुर्सी पर बैठ गई ।
जब शादी के बाद रीमा ससुराल आई तो भरा- पूरा परिवार एक साथ मिलकर रहता था । तीन सास , तीन ससुर और पाँच देवर । रीमा घर की सबसे बड़ी बहू थी । शादी के चार- पाँच दिन बाद उसे पता चला कि ताईजी निःसंतान है क्योंकि शादी के समय पता ही नहीं चल पाया था कि चचेरे देवरों में से कौन सा चाचा ससुर के बेटे हैं और कौन से ताऊ ससुर के? बस इतना पता चला थी कि विशाल के एक सगा भाई है बाक़ी चार देवरों के बारे में रीमा के घरवालों ने सिर्फ़ अनुमान लगाया था कि दो ताऊ के बेटे हैं और दो चाचा के । पापा ने साफ़ शब्दों में कह दिया था—-
लड़के के परिवार में सब इस तरह रहते हैं कि सगे और चाचा- ताऊ के बच्चों की बात पूछने में बहुत अजीब लगता है । अच्छा होगा कि इस तरह की कोई बात न कही जाए ।
और बस उसके बाद इस तरह का कोई ज़िक्र नहीं किया गया ।
सचमुच ससुराल पहुँचकर देखा कि वे लोग कितने प्रेम से मिलजुल कर रहते हैं । वक़्त के साथ बच्चे बड़े हुए और परिवार बढ़ गया । चाचा ससुर अपने परिवार के साथ अलग हो गए । हालाँकि रीमा भी मन ही मन चाहती थी कि उसके ससुर और ताऊजी की रसोई भी अलग हो जाए क्योंकि दो बच्चे हो जाने के बाद उसका कार्य बहुत बढ़ गया था । लेकिन सिर्फ़ चाचा ससुर के परिवार की रसोई अलग हुई थी ।
इस कहानी को भी पढ़ें:
रीमा का देवर शादी के बाद पत्नी को अपने साथ नौकरी पर लेकर चला गया । ऐसे में दो ससुर -दो सास , दो बच्चों, पति और आए- गए की सारी ज़िम्मेदारी रीमा के ऊपर आ गई । वह कई बार पति विशाल से शिकायत करती —-
मुझसे इतने लोगों की ज़िम्मेदारी नहीं उठाई जाती । क्या ताऊजी और ताईजी की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ हमारी है ? चाचाजी का परिवार तो बच निकला ।
रीमा …माँ और ताईजी हमेशा तुम्हारी सहायता करती हैं । सफ़ाई- बर्तन के लिए पार्वती आती है । खाना ही तो बचता है और फिर केवल ताऊजी- ताईजी की रोटी तुम्हें भारी लगती हैं?
रीमा कहती तो कुछ नहीं थी पर उसकी हरकतों को देखकर सास कई बार समझाती —-
रीमा , सेवा का फल हमेशा मेवा मिलता है । बड़ों का आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता बेटा ! भाग्यशाली होते हैं वो बच्चे, जिन्हें माता-पिता की सेवा का मौक़ा मिलता है । अरे लोग तो वृद्धाश्रम जाकर बुजुर्गों की सेवा करते हैं और फिर जेठ- जेठानी जी की ज़मीन- जायदाद भी तो है …. और संपत्ति चाहे ना भी हो , उनका सम्मान हमसे पहले होना चाहिए । पर रीमा का मुँह सूजा ही रहता । विशाल के सामने बड़बड़ाती—
सबके तो एक सास- ससुर होते हैं पर यहाँ तो दो- दो हैं । मैं ज़मीन- जायदाद की धौंस नहीं मानती । हमने कौन सा माँगी है… दे दें , जिसको देनी है । मेरे दोनों बेटे पढ़लिखकर कहीं अफ़सर लगेंगे…. इनकी ज़मीन के सहारे हैं क्या हम ?
पता नहीं? ये बात कैसे ससुर के कानों तक पहुँच गई और वे तुरंत उसी समय गरजते हुए बोले—
विशाल…. ये बहू क्या कह रही है? क्या हम तुम्हारे ऊपर बोझ हैं ? ये मत भूलना कि कुछ गुनाहों का प्रायश्चित नहीं होता और माता-पिता के प्रति दुर्भावना भी ऐसा ही गुनाह है । राम – राम ! बेटों पर इतना अभिमान …..तुम मुझे आराम से बता देते , बहू अकेली रहना चाहती है ना , तो कोई बात नहीं….. बेटा , मत भूलो कि जिसने इस धरती पर भेजा है उसने सबका इंतज़ाम कर रखा है ।
और अगले ही दिन रीमा के ससुर ने रीमा की रसोई अलग कर दी । ससुर के कहे शब्द उसके दिल पर जा लगे पर उनसे माफ़ी माँगने की हिम्मत उसने नहीं की । साल के अंदर ही ताऊजी का निधन हो गया । माँ और ताईजी की भी उम्र हो रही थी, पहले वाला शरीर नहीं रहा था । इसलिए उन्होंने रसोई में खाना बनाने वाली रख ली थी । रीमा के दोनों बच्चे ज़्यादातर दादा-दादियों के पास ही रहते थे, खाना भी वहीं खा लेते थे । एक दिन सास- ससुर भी चले गए । अकेली ताईजी रह गई ।
रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने रीमा से कहा —-
बहू , दो रोटी सुबह चाहिए इन्हें, दो शाम को…. एक जगह ही रसोई कर लो । पता नहीं कितने दिन की हैं तुम्हारी ताईजी ।
इस कहानी को भी पढ़ें:
पर चाहते हुए भी रीमा उन्हें साथ ही खाने के लिए ना कह सकी । उसे डर था कि ताईजी मना कर देंगी और वह छोटा नहीं होना चाहती थी ।
रीमा का बड़ा बेटा कोचिंग के लिए शहर में रहने लगा था । एक दिन कॉलेज से कोचिंग के लिए देरी हो गई । वह तेज़ी से सड़क पार कर रहा था कि एक गाड़ी टक्कर मारकर निकल गई । आसपास के लोगों ने उठाकर अस्पताल में भर्ती कराया और गले में पड़े आई० कार्ड पर लिखे फ़ोन नंबर पर फ़ोन करके घरवालों को एक्सीडेंट की सूचना दी । विशाल घर पर नहीं था और फ़ोन रीमा ने उठाया …. सुनते ही वह तो चक्कर खाकर गिर पड़ी । नौकरानी ने नीचे ताईजी को उसके बेहोश होने की खबर दी —-
हे राम ….. क्या हो गया मेरे बच्चे को । मेरे घुटने से ऊपर भी नहीं चढ़ा जाता । रीमा … रीमा…. बेटा …. हिम्मत हारने से कुछ नहीं होता । पार्वती…. मेरा हाथ पकड़ कर ऊपर ले चल ।
ताईजी ने ही देवर के बेटे को आवाज़ देकर बुलाया, बहू रीमा को हिम्मत बँधाई और विशाल को खेतों में खबर भिजवाकर बुलाया—
विशाल , जा बेटा ! भाई के साथ जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुँच, ये रुपये रख ले । रीमा को मैं सँभाल लूँगी ।
पाँचवें दिन विशाल बेटे को लेकर लौटा तब सबकी जान में जान आई । इन पाँच दिनों में ताईजी ने ही रीमा , पता लेने वालों और घर को सँभाला । रीमा के बेटे की दोनों टाँगों में फ़्रैक्चर था । ऐसी हालत में सीढ़ियाँ चढ़नी असंभव थी इसलिए तय किया गया कि वरुण को नीचे ताईजी के कमरे में ही रहना पड़ेगा ।
रीमा …. तू वरुण की चिंता मत कर बेटा । मैं इसके पास ही रहूँगी । बस तू इसके खाने- पिलाने की ज़िम्मेदारी ले ले । मैं अकेली जान , कभी बनवाती हूँ कभी नहीं…. वरुण को बढ़िया खानपान की ज़रूरत है । माँ के बनाए खाने में ममता भी तो होती है ।
जिन ताईजी के सामने वह छोटी नहीं बनना चाहती थी, आज वक़्त ने उसे सब समझा दिया था ।
ताईजी…. अपनी इस मूरख बेटी को माफ़ कर दे । आपकी उम्र भी नौकरों के बने हाथ का खाना खाने की नहीं रही । मैं ताऊजी, माँ- पिताजी और आपकी गुनहगार हूँ…. बहू के होते हुए आप इस तरह अकेली …. नहीं- नहीं ताईजी! मुझे गलती सुधारने का मौक़ा दे दें । मैं, जिन्हें ये समझती थी कि वे मेरे क्या काम आएँगी… भगवान ने मुझे उन्हीं का महत्व समझा दिया ।
इस कहानी को भी पढ़ें:
रीमा विचारों में खोई थी कि तभी उसे विशाल की आवाज़ सुनाई दी—-
रीमा , ताईजी को दवाई दे दी क्या?
हाँ…. बस दे रही हूँ । इतना कहकर रीमा ने प्यार और सम्मान के साथ ताई सास के माथे पर हाथ रखा ।
करुणा मलिक
# कुछ गुनाहों का प्रायश्चित नहीं होता
VM