“माँ, आप हमेशा मुझे टोकती क्यों रहती हैं? क्या आपको मुझ पर ज़रा भी भरोसा नहीं?”
अदिति ने झुंझलाकर कहा और अपने कमरे का दरवाज़ा भड़ाक से बंद कर लिया।
माँ बाहर खड़ी रहीं… चुपचाप। आँखों में थोड़ी नमी थी, लेकिन चेहरा शांत।
हर दिन यही होता है – माँ समझातीं, और अदिति नाराज़ हो जाती।
अदिति 20 साल की, कॉलेज गोइंग छात्रा है – आत्मनिर्भर, तेज़-तर्रार और कुछ हद तक ज़िद्दी भी।माँ-बेटी का रिश्ता कभी बहुत मधुर हुआ करता था, लेकिन जैसे-जैसे अदिति बड़ी हुई, वह माँ की बातों को पुराने ख्यालात और रोक-टोक मानने लगी थी।
लेकिन उसकी माँ, सुधा, एक गृहिणी थीं, पर भीतर से बेहद मजबूत थीं । जिनकी दुनिया रसोई और अदिति के इर्द-गिर्द सिमटी थी। अदिति को लगता, माँ की हर बात सिर्फ शक से भरी होती है। उन्होंने अकेले दम पर अदिति की परवरिश की थी, क्योंकि पति अक्सर बाहर नौकरी के सिलसिले में रहते थे। उन्हें अदिति पर भरोसा था पर जमाने पर नहीं। उन्हें दुनिया की सच्चाई का अनुभव था। बेटी की सुरक्षा की चिंता हर पल उन्हें सताती थी।
अदिति को लगता, माँ को उस पर विश्वास नहीं।
उसे लगता था कि उसकी माँ हर बात में टोकती हैं। “फोन किसका था?”, “इतनी देर क्यों हो गई?”,साथ में और कौन कौन गया था “क्या ज़रूरी था उस ड्रेस में जाना?” – माँ की हर बात उसे बंदिश सी लगती थी।
पहली बार था कि पार्टी देर रात तक चलने वाली थी। दोस्तों ने ज़ोर दिया, तो अदिति भी तैयार हो गई।
एक दिन कॉलेज में फेयरवेल पार्टी का आयोजन हुआ। देर रात तक जश्न चलना था। अदिति ने माँ से स्वीकृति न लेते हुये केवल सूचित करते हुए कहा –
“माँ, आज पार्टी है। मैं देर से लौटूंगी। पापा को आप ही बताकर समझा दीजियेगा । रात को 11-12 बजे तक चलेगी। मुझे देर हो जाएगी लौटने में।”
माँ थोड़ी चौंकीं।
“इतनी देर … अकेली आओगी?”
“माँ, मैं अब बच्ची नहीं हूँ! मेरे सारे दोस्त जा रहे हैं। आप हर बार मुझे ही टोकती हैं दूसरों की मम्मियां ऐसा नहीं करतीं … आपको मुझ पर कभी ट्रस्ट रहा ही नहीं।”
माँ चुप हो गईं। थोड़ी देर बाद बोलीं –
“ठीक है, चली जाना। बस फोन ऑन रखना… और रास्ते में संभलकर आना।”
अदिति को माँ की ‘हाँ’ में भी शिकायत लगी।
माँ बस मुस्कुरा दीं।
“फोन साथ रखना और गाड़ी धीरे चलाना”, उन्होंने केवल इतना कहा।
पार्टी शानदार थी – दोस्त, म्यूज़िक, हँसी-मज़ाक के चलते समय का पता ही नहीं चला।
रात के एक बजे के करीब जब अदिति अपनी स्कूटी पर घर लौट रही थी, एक सुनसान मोड़ पर उसकी गाड़ी एक कुत्ते को बचाने के चक्कर में फिसल गई।
वह ज़मीन पर गिर पड़ी, घुटना छिल गया, और मोबाइल गिरकर बंद हो गया। सड़क सुनसान थी, और कोई मदद भी नहीं दिख रही थी।
तभी दो लड़के आते दिखाई दिए जो आपस में बात कर रहे थे वाह आज तो जश्न की रात हो गयी मजा आ जायेगा। भले ही ये बात उन्होंने आपस में किसी और बात को लेकर कही थी पर मानो उसके दिल नें धड़कना ही बंद कर दिया था।
उसकी आँखों में आँसू आ गए। दर्द के साथ-साथ डर भी था।”काश, मैंने माँ की बात सुनी होती… हे भगवान रक्षा करो फुसफुसाई।
तभी एक कार की हेडलाइट सामने से उस पर पड़ी। अदिति सहम गई। दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। लेकिन जैसे ही कार रुकी और दरवाज़ा खुला… माँ को देख उसकी जान में जान आई।
“माँ…? आप यहाँ…?”
माँ ने उसे उसे सहारा देकर उठाया। अपनी साड़ी से उसका घुटना साफ किया, पानी पिलाया और अपनी गाड़ी में बैठाकर घर ले आईं।
घर पहुँचते-पहुँचते अदिति की आँखें भर आईं।
“माँ, आपको कैसे पता चला?”
सुधा मुस्कुरा दीं।
“जब रात के 12 बजे तक भी तुम्हारा फोन बंद मिला, तो मैं समझ गई कि कुछ ठीक नहीं है। तुम्हारे कॉलेज से लौटने का रास्ता मुझे पता है। हर मोड़ की पहचान है मुझे। क्योंकि मेरी दुनिया ही तुम हो अदिति…”
अदिति फूट-फूटकर रो पड़ी।
“माँ, मुझे माफ कर दीजिए। मैं हमेशा सोचती रही कि आप मुझ पर शक करती हैं, रोकती हैं, लेकिन आज समझ आया – आपकी हर रोकटोक में चिंता थी, विश्वास नहीं।
माँ ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया।
“बेटा, विश्वास की डोर बहुत महीन होती है। यह न तो दिखती है, न ही ज़ोर से खींची जा सकती है।
माँ की डाँट उसमें गाँठें बनाती है, पर हर गाँठ में ममता और चिन्ता छिपी होती है।
मैं तुम पर भरोसा करती हूँ अदिति, तभी तो तुम्हें अकेले जाने देती हूँ अगर मैं शक करती, तो कहीँ तुम्हें जाने नहीं देती – साथ में ही ले जाती।
उस रात अदिति बहुत ही गिल्टी फील कर रही –
सुबह जब सूरज की किरणें खिड़की से झाँकीं, तो माँ की ममता और बेटी का विश्वास एक नई डोर में बँध चुके थे।
अब माँ नहीं टोकती थीं, और अदिति खुद ही बताने लगी थी –
“माँ, आज क्लास के बाद दोस्तों के साथ कैफ़े जा रही हूँ… हाँ, मोबाइल ऑन रहेगा।”
माँ बस मुस्कुरा देतीं –क्योंकि अब विश्वास की डोर दोनों सिरों से कस कर बँधी थी।
स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
अनाम अपराजिता
अहमदाबाद