विदाई का आँसू – शालिनी तिवारी 

स्टेशन पर गाड़ी के आने की घोषणा होते ही अनन्या का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी भीड़, सामान से भरे ट्रॉली बैग, बच्चों की किलकारियाँ और चायवाले की आवाज़—सब कुछ जैसे अचानक बहुत दूर चला गया हो। वह अपने हाथ में पकड़े टिकट को बार-बार देख रही थी, मानो उस पर लिखा नाम और गंतव्य उसे किसी और की कहानी लग रहा हो।

पीछे खड़े उसके माता-पिता कुछ बोल नहीं पा रहे थे। माँ की आँखें लगातार उसके चेहरे को निहार रही थीं, जैसे इस एक पल में आने वाले कई वर्षों को भर लेना चाहती हों। पिता बार-बार गला साफ़ कर रहे थे, मगर आवाज़ निकलते-निकलते रुक जा रही थी। छोटा भाई आरव, जो हमेशा शरारतों से भरा रहता था, आज चुपचाप खड़ा था। उसकी उँगलियाँ अनन्या की साड़ी के पल्लू को पकड़े हुए थीं, जैसे वह उसे जाने से रोक सकता हो।

“दीदी, जल्दी वापस आ जाना,” आरव ने भर्राई आवाज़ में कहा।

अनन्या झुककर उसके माथे को चूम गई। “अरे, मैं कहीं भाग नहीं रही। बस… थोड़ी दूर जा रही हूँ।”

ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आ चुकी थी। डिब्बों की खिड़कियों से झांकते चेहरे, उतरते-चढ़ते लोग—सब कुछ बहुत तेज़ी से घट रहा था। अनन्या को लगा, जैसे समय ने अचानक रफ्तार पकड़ ली हो, और उसका मन वहीं ठहर गया हो।

माँ ने उसे गले लगाया। वह गले लगना कुछ सेकंड का था, लेकिन उन सेकंडों में पूरा बचपन सिमट आया—पहली बार स्कूल छोड़ने का डर, बुखार में माथे पर रखा गया ठंडा हाथ, देर रात तक पढ़ते हुए बनाई गई चाय।

“ख़याल रखना,” माँ ने कहा।

“हाँ,” अनन्या बस इतना ही बोल पाई।

पिता ने सिर पर हाथ रखा। “खुद पर भरोसा रखना। बाकी सब सीख जाओगी।”

जब वह डिब्बे में चढ़ी और अपनी सीट पर बैठी, तब तक आँखों से आँसू बहने लगे थे। खिड़की से बाहर देखा तो वही चेहरे, वही हाथ हिलाते लोग—धीरे-धीरे पीछे छूटते जा रहे थे। ट्रेन ने सीटी दी और चल पड़ी।

उसका मन जैसे वहीं रह गया हो।

अनन्या पहली बार घर से इतनी दूर जा रही थी। यह कोई विदाई नहीं थी, न ही विवाह, न ही मजबूरी—यह उसका अपना फैसला था। नौकरी का ऑफर, नया शहर, नई ज़िंदगी। सब कुछ वही था, जिसकी उसने पढ़ाई के दिनों में कल्पना की थी। लेकिन आज, जब वह सच हो रहा था, तो दिल भारी था।

यादों का सिलसिला अपने आप खुलने लगा।

रात के खाने पर पिता का कहना—“बेटी है, पर पराई नहीं। जो करना है, पूरे आत्मविश्वास से करना।”

माँ का हर सुबह टिफ़िन में कुछ न कुछ नया रख देना।

आरव का बिना पूछे उसके कमरे में आकर मोबाइल चार्जर उठा ले जाना।

सब कुछ इतना अपना था कि उससे दूर जाने की कल्पना ही डराने लगी थी।

ट्रेन की हल्की झटकों में उसे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला।

जब आँख खुली, तो सामने बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला उसे देख मुस्कुरा रही थीं। “पहली बार घर से बाहर जा रही हो?” उन्होंने पूछा।

अनन्या ने चौंककर सिर हिलाया। “हाँ।”

“आँखें बता देती हैं,” महिला बोलीं, “डर भी है और उत्साह भी।”

अनन्या हल्की-सी मुस्कान लेकर खिड़की की ओर देखने लगी। बाहर बदलते दृश्य उसे एक अजीब-सी तसल्ली दे रहे थे—जैसे दुनिया बहुत बड़ी है, और उसमें उसके लिए भी जगह है।

नया शहर उसे अपनी चकाचौंध से चौंका रहा था। ऊँची इमारतें, तेज़ रफ्तार लोग, हर किसी के हाथ में मोबाइल और मन में कोई न कोई मंज़िल। ऑफिस का पहला दिन भी किसी परीक्षा से कम नहीं था—नई ज़िम्मेदारियाँ, नए चेहरे, नए नियम।

शुरू के कुछ हफ्तों तक वह रोज़ माँ को फोन करती। “खाना खा लिया?” “नींद आ रही है?” “ज़्यादा काम मत करना।” आवाज़ में वही पुरानी चिंता थी, बस दूरी बढ़ गई थी।

धीरे-धीरे कॉल कम होने लगीं। काम बढ़ा, दोस्त बने, दिनचर्या में व्यस्तता आ गई। अनन्या को लगा, शायद यही बड़ा होना है—अपनी जगह बनाना।

एक शाम ऑफिस से लौटते हुए उसे अचानक तेज़ बुखार आ गया। कमरे में अकेली पड़ी वह काँप रही थी। न माँ थी जो काढ़ा बनाकर दे, न आरव जो मज़ाक करके हँसा दे। पहली बार उसे इस दूरी का असली मतलब समझ आया।

उसी रात उसके फ्लैट की पड़ोसन, कविता, उसके लिए सूप लेकर आईं। “नई हो, इसलिए ध्यान रखना चाहिए,” उन्होंने कहा।

अनन्या की आँखें भर आईं। उसने महसूस किया कि रिश्ते सिर्फ खून से नहीं बनते, समय और संवेदना से भी बनते हैं।

दिन बीतते गए। वह अपने काम में निपुण होती गई। ऑफिस में उसकी पहचान बनने लगी। पहली बार जब उसे प्रोजेक्ट लीड की ज़िम्मेदारी मिली, तो उसने सबसे पहले घर फोन किया।

“माँ, मुझे प्रमोशन जैसा कुछ मिला है,” उसने खुशी से कहा।

उधर से माँ की आवाज़ आई—“देखा, मैंने कहा था न, तू कर लेगी।”

उस दिन अनन्या को एहसास हुआ कि दूरी ने रिश्ते कमज़ोर नहीं किए, बस उनके रूप बदल दिए हैं।

कुछ महीनों बाद उसे छुट्टी मिली। वह घर जाने के लिए ट्रेन में बैठी थी। इस बार खिड़की से बाहर देखते हुए उसकी आँखों में डर नहीं था, बल्कि एक अजीब-सा उत्साह था।

स्टेशन पर उतरते ही वही परिचित गंध, वही हलचल। और सामने—माँ, पिता और आरव।

आरव अब थोड़ा लंबा हो गया था। उसने दौड़कर अनन्या को पकड़ लिया। “दीदी, तुम सच में आ गई!”

माँ ने उसे देखा, फिर माथे पर हाथ रखकर बोलीं, “कुछ बदल गई है।”

“अच्छा या बुरा?” अनन्या ने हँसकर पूछा।

“मज़बूत,” पिता ने जवाब दिया।

उस रात खाने की मेज़ पर बातें देर तक चलती रहीं। ऑफिस के किस्से, शहर की बातें, छोटी-छोटी परेशानियाँ और बड़ी-छोटी जीतें। अनन्या ने महसूस किया कि वह अब सिर्फ घर की बेटी नहीं, बल्कि अपने अनुभवों के साथ लौटी एक नई इंसान है।

अगली सुबह जब वह छत पर खड़ी चाय पी रही थी, तो माँ उसके पास आकर बैठ गईं। “जाने का मन फिर नहीं करेगा?”

अनन्या ने आसमान की ओर देखा। “करेगा। लेकिन अब डर नहीं लगेगा।”

माँ मुस्कुरा दीं। “यही तो चाहती थी।”

जब वापसी का समय आया, इस बार विदाई में आँसू कम थे। आरव ने मज़ाक किया, “अब रोओगी नहीं, है न?”

अनन्या ने उसे गले लगाया। “नहीं। अब पता है कि जाना छोड़ना नहीं होता।”

ट्रेन चल पड़ी। खिड़की से बाहर वही प्लेटफ़ॉर्म, वही लोग। लेकिन इस बार उसके दिल में खालीपन नहीं था। वहाँ एक भरोसा था—कि रिश्ते दूरी से नहीं टूटते, और सपने घर से दूर जाकर भी घर को अपने साथ ले जा सकते हैं।

वह मुस्कुरा दी। नई ज़िंदगी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी, और पीछे छूटा घर अब भी उसका ही था—बस थोड़े और विस्तार के साथ।

लेखिका : शालिनी तिवारी 

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