मैंने जब एल० एल० बी ० करके काला कोट पहना था तभी अपने आप के समक्ष एक सौगन्ध ली थी जिसके अन्तर्गत मैं साल में कम से कम दो केस उन गरीब महिला अपराधियों का बिना पैसा लिये लडूंगी जिनका केस लड़ने वाला कोई नहीं होता है।
सबूतों और पैरवी के अभाव में उन्हें सजा हो जाती है। कभी कभी तो वे किसी दबाव या मजबूरी में खुद अपना अपराध स्वीकार कर लेती हैं। सचमुच जब ऐसे मामले में मैं उस महिला कैदी को न्याय दिला पाती हूॅ तो उसकी ऑखों से बहते कृतज्ञता के ऑसू मुझे वह खुशी और सुख देते हैं जो करोड़ों रुपये नहीं दे पायेंगे।
इस कार्य में मेरा बराबर साथ दिया मेरे सहपाठी और सहकर्मी जन्मेजय ने। हॉ अभी तक जन्मेजय मेरे सहकर्मी ही हैं, आगे शायद हम जीवनसाथी भी बन जायें।
वैसे अभी तक हमने ऐसे जितने मामलों में न्याय दिलवाया है, वे अधिकतर चोरी, दहेज प्रताड़ना आदि से सम्बन्धित होते थे लेकिन आज पहली बार इसी सिलसिले में मेरी मुलाकात भूमिजा से हुई। उस पर अपने पति सहित सात व्यक्तियों की हत्या का आरोप था
जिसके कारण उसको उम्रकैद की सजा हुई थी। हालांकि उसका पति और वे सारे व्यक्ति समाज विरोधी कार्यों में लिप्त थे और उस क्षेत्र के लोग उन सबसे बहुत दुखी और प्रताड़ित थे लेकिन किसी ने भी भूमिजा के पक्ष में गवाही नहीं दी थी।
काफी मुश्किल हुई उसकी पुरानी फाइल निकलवाने में क्योंकि आठ वर्ष बीत चुके थे। सबसे मुश्किल काम था भूमिजा से मिलना क्योंकि वह किसी से मिलना ही नहीं चाहती। उसे अपनी सजा कम कराने या दोष मुक्त होने में कोई रुचि नहीं थी।
मैंने उससे कहलाया कि बिना उसकी मर्जी कुछ नहीं होगा लेकिन एक बार मुझसे मिल ले। खैर कई बार की कोशिशों के बाद भूमिजा मुझसे मिलने को तैयार हुई और आज हम एक दूसरे के आमने सामने थे।
” बताइये मैडम क्यों मिलना चाहती थीं आप मुझसे? मैं अपनी सजा से खुश हूॅ और मुझे यहॉ कोई परेशानी नहीं है। आप अपना समय बरबाद मत कीजिये।” भूमिजा के स्वर की तल्खी मुझसे छुपी नहीं रही।
मैं जानती थी कि मुझे कैसे बात करनी है। मैंने उससे बड़ी आत्मीयता से कहा – ” देखिये, मेरा नाम वत्सला है। हम एक दूसरे को नाम से बुलायें तो अधिक अच्छा होगा।”
” मुझ हत्यारिन से इस आत्मीयता का कारण जान सकती हूॅ? मैं सिर्फ नफरत की हकदार हूॅ।”
मैंने सलाखों के उस पार खड़ी भूमिजा के हाथ को अपने हाथ में ले लिया – ” भूमिजा, मैं जानती हूॅ कि किसी मजबूरी वश इन समाज विरोधी लोगों को मारकर तुमने समाज की गन्दगी ही मिटाई है लेकिन हत्या तो हत्या ही है। किसी भी व्यक्ति को कानून हाथ में लेने का अधिकार नहीं है। तुम्हें कानून पर भरोसा करना चाहिये। यदि तुम्हारे साथ कुछ गलत हुआ था तो कानून तुम्हें सुरक्षा और उन्हें सजा देता। किसी को जान से मारना तो धर्म और कानून दोनों की दृष्टि में पाप है। तुमने ऐसा क्यों किया, मैं केवल इतना जानना चाहती हूॅ। तुम्हारी इच्छा हो तभी मुझे अपना केस लड़ने की अनुमति देना।”
” कोई फायदा नहीं, कानून पैसे वालों और ताकत वालों का साथ देता। गरीब और कमजोर पर तो अत्याचार देखकर न्याय की देवी भी ऑखों पर पट्टी बांध लेती हैं। मुझे तुम्हारे तथाकथित कानून से कोई उम्मीद नहीं है।”
” कानून गलत नहीं है लेकिन उसका गलत उपयोग करने वाले ताकत और पैसे के कारण खुद की आत्मा को बेच देते हैं, इसी कारण कमजोर और असहाय व्यक्ति को उचित न्याय नहीं मिल पाता और यही मैं जानना चाहती हूॅ कि तुम्हारे साथ ऐसा क्या गलत हुआ या क्या मजबूरी थी कि तुम्हें यह कदम उठाना पड़ा। जहॉ तक मुझे पता चला है कि तुमने उस गुंडे से स्वेच्छा से शादी की थी और अदालत के समक्ष अपना अपराध भी स्वीकार कर लिया था।”
भूमिजा चुप थी। उसके अन्दर भयंकर संघर्ष चल रहा था। क्या अब इन बातों का कोई औचित्य रह गया है, जब पूरा जीवन बरबाद हो गया है। इसलिये उसने पहली बार वत्सला का नाम लेकर धीरे से कहा – ” वत्सला, आठ साल कट गये, बारह और कट जायेंगे। चिन्ता तो इस बात की है कि सजा पूरी होने के बाद क्या होगा? यहॉ तो न मुझे आजीविका की चिन्ता है और न ही सुरक्षा की। काश! मुझे फांसी हो जाती।”
” तुम मुझे कुछ बताओ तो, आगे बाद में सोचेंगे कि क्या करना है?”
भूमिजा स्नातक का दो साल कर चुकी थी। वह खुश थी कि ग्रेजुएशन के बाद कोई नौकरी कर लेगी। सान्ध्य कक्षाओं में प्रवेश लेकर एल०एल०बी० कर लेगी। उसका मन भी एक सफल एडवोकेट बनने का था लेकिन वह नहीं जानती थी कि गरीब और कमजोर को सपने देखने का अधिकार नहीं होता है। उसके पिता की सिलाई की एक छोटी सी दुकान थी, जिससे वह बड़ी मुश्किल से अपनी पत्नी और चार बच्चों के परिवार का पालन करते थे।
उनके मुहल्ले में बलवंत का बहुत आतंक था, उसके डर से कोई कुछ बोलता। बलवंत और उसके चेले उसके पिता की दुकान से भी बिना पैसे के कपड़े सिलवा ले जाते थे। मम्मी पापा को ही समझा देतीं – ” कोई बात नहीं, हम बाल बच्चेदार हैं, ऐसे गुंडे से उलझने की जरूरत नहीं है।”
पता नहीं कब बलवन्त की नजर भूमिजा पर पड़ गई और एक दिन बलवंत का एक चेला उसके पिता की दुकान पर आया और बोला – ” सुन मास्टर, तेरी लौंडिया भाई जी को पसंद आ गई है। उसे उनके पास भेज दे। रानी बनाकर रखेंगे उसे।”
सुनकर उसके पिता का खून खौल उठा, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
कुछ दिन बाद बलवंत खुद उसकी दुकान पर आ गया – ” मास्टर, एक संदेशा भिजवाया था, अभी तक तूने जवाब नहीं दिया। क्या चाहता है कि तेरी लौंडिया को सड़क चलते उठवा लूॅ?”.
” बलवंत, कैसी बातें कर रहे हो? भूमि तो अभी बच्ची है। वह पढ़ाई कर रही है। हमारा तुम्हारा क्या मेल? अभी मेरी बेटी शादी नहीं करेगी।”
बलवंत गुस्से से आग-बबूला हो गया – ” मास्टर, तुम मुझे मना करके अच्छा नहीं कर रहे हो। अब देखना तुम्हारी लौंडिया के साथ क्या होता है?”
उसी दिन पत्नी से सलाह लेकर और दुकान के एक साथी को लेकर भूमिजा के पापा थाने गये तो पुलिस ने रिपोर्ट लिखने की बजाय बिना किसी अपराध के उन्हें ही हवालात में डाल दिया।
कॉलेज से आने के बाद भूमिजा को सारी बात पता चली। मम्मी का रो रोकर बुरा हाल था। बलवंत के चेलों ने मुहल्ले में सरेआम ऐलान कर दिया कि अगर किसी ने मास्टर की जमानत ली तो उसे भयंकर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। इस डर से पापा की जमानत भी नहीं हो पा रही थी।
किसी का दिमाग काम नहीं कर रहा था। दो दिन से घर में चूल्हा नहीं जला था। भूमिजा यह सोचकर और अधिक परेशान थी कि इस सबका कारण वह है। आखिर उसने एक निर्णय लिया।
उसे पता था कि बलवंत इस समय कहॉ मिलेगा। उसे सामने देखकर बलवंत सहित उसके सारे चमचे भी चौंक गये। जाते ही भूमिजा ने कहा – ” बलवंत, मुझे तुमसे अकेले में बात करनी है।”
बलवंत ने एक नजर चारो ओर घुमाई और एक मिनट के अन्दर सारे चमचे गायब हो गये – ” हॉ, बोलो?”
” किसी लड़की को शादी का प्रस्ताव देने का यह कौन सा तरीका है? तुम्हें मुझसे शादी करनी थी तो मुझसे कहते। मैं तो खुद तुम्हारे जैसे शक्तिशाली और सामर्थ्यवान से शादी करना चाहती थी लेकिन तुमने पापा को व्यर्थ परेशान किया।”
” तो क्या तुम सचमुच मेरे पास आने को तैयार हो?”
” हॉ बिल्कुल।” भूमिजा की बेबाकी से बलवंत हतप्रभ था – ” लेकिन मेरी कुछ शर्ते हैं।”
” बताओ वैसे तुम्हारे पापा एक घंटे बाद घर आ जायेंगे।”
” मेरी दो शर्तें हैं – मुझसे शादी करना चाहते हो तो मुझे पचास लाख रुपये दो क्योंकि मैं पढ़ाई करके नौकरी करना चाहती थी ताकि मेरा परिवार अच्छी जिन्दगी जी सके। दूसरी बात शादी के बाद मैं अपने परिवार से कभी नहीं मिलूंगी और तुम्हें जल्दी से जल्दी मुझसे शादी करनी पड़ेगी – चाहे कोर्ट में करो या मंदिर में।”
” तुम्हारी दोनों बातें मुझे मंजूर हैं लेकिन मुझे तीन दिन का समय और अपना अकाउंट नम्बर दो।”
भूमिजा चलने के लिये उठकर खड़ी हो गई – ” एक बात और…..।”
बलवंत की प्रश्न भरी दृष्टि भूमिजा की ओर उठ गई – ” हमारी इस मुलाकात और बातों के सम्बन्ध में तुम किसी से कुछ नहीं कहोगे। तीन दिन के अन्दर मेरे खाते में पैसे डलवाने के बाद मुझे आकर मेरे घर से लिवा जाना।” बलवंत ने मुस्कराकर हामी में सिर हिला दिया।
घर आने के थोड़ी देर ही पापा आ गये। सबको आश्चर्य हो रहा था कि पापा को अचानक बिना किसी जमानत के पुलिस ने छोड़ कैसे दिया? भूमिजा ने किसी से कुछ नहीं। दिल अन्दर ही अन्दर तड़पता रहा। उस राक्षस को उसने स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया है लेकिन क्या करती, बलवंत उसके परिवार को जीने न देता। उसके पापा और भाई के जीवन के साथ ही उस सहित उसकी बहनों की अस्मिता भी खतरे में थी। अब भले ही उसका अपना जीवन नर्क बन जाये लेकिन अपनी कुर्बानी देकर लहअपने परिवार को तो वह बचा लेगी।
दो दिन बाद उसके एकाउंट में पचास लाख रुपये आ गये। चूंकि भाई सबसे छोटा था, इसलिये उसे कुछ नहीं बताया गया। अब उसने अपने परिवार को इकट्ठा किया और पूरी बात बताई। सुनते ही पहले तो सब अचम्भे में आ गये। फिर मम्मी सहित दोनों बहनें रोने लगीं।
” यह क्या किया भूमि? मैं कोई न कोई रास्ता निकाल लेता।” उसके पापा की डूबती आवाज।
” हमारे सामने रास्ता ही क्या बचा है पापा? विरोध करने का परिणाम हमारे सामने है। तीन दिन बाद आपकी सूरत देख पा रहे हैं। कहीं उसने आपको कुछ कर दिया होता तब भी तो अपनी मनमानी करके मुझे ले ही जाता, परिवार के किसी भी सदस्य को हानि पहुंचा देता तब भी तो आप मुझे उस राक्षस से न बचा पाते।”
सभी इस सच्चाई से इंकार नहीं कर सकते थे। बलवंत के हृदय में रहम या दया नाम की चीज है ही नहीं। सब चुपचाप ऑसू बहाते रहे।
भूमिजा ने सबके ऑसू पोंछे – ” कल बलवंत आयेगा और मुझे उसके साथ जाना होगा। उसके बाद हम कभी एक दूसरे से नहीं मिलेंगे। आप सबको भगवान की सौगन्ध है, आज के बाद सब लोग समझ लेना कि आपकी भूमि मर गई है, अब अगले जन्म में मिलेंगे।”
यह सुनकर सबकी ऑखों में जैसे ऑसुओं की बाढ़ आ गई । मम्मी और बहनें उसके गले से लग गईं, फिर उसने अपने पर नियंत्रण किया – ” पापा, आपके हाथों में ऐसा हुनर है कि आप कहीं भी जायेंगे, रोजी रोटी कमा लेंगे। मैंने उससे इतने पैसे इसी लिये मांगे थे जिससे अपने परिवार को सुरक्षित कर सकूं। जल्दी से जल्दी यह शहर छोड़कर कहीं दूसरी जगह चले जाइयेगा, अपने मोबाइल नम्बर बदल दीजिये ताकि उसकी गिद्ध दृष्टि अब कभी मेरे परिवार पर न पढ सके।”
” लेकिन बेटा ….. ।”
” मम्मी, मुझे उस पर जरा भी विश्वास नहीं है। हो सकता है कि मेरे बाद उसकी नजर इन दोनों पर भी पड़ जाये और मेरा सब कुछ करना व्यर्थ हो जाये।”
किसी के पास भूमिजा की बात मानने के सिवा कोई चारा नहीं था। दूसरे दिन जब भूमिजा बलवंत के साथ उसकी कार में जा रही थी तब मुहल्ले की हर खिड़की खुली हुई थी और सब आश्चर्य से ऑखें फाड़े उसे देख रहे थे लेकिन भूमिजा के घर से कोई बाहर नहीं आया। केवल कई लोगों की सिसकियों के स्वर बाहर तक आ रहे थे।
भूमिजा ने बलवंत को अपनी नियति मान लिया। शुद्ध शाकाहारी उसने गोश्त और मछली बनाने के लिये उल्टियां होने के बावजूद कभी मना नहीं किया। उसे सन्तोष था कि अपनी कुर्बानी देकर उसने अपने परिवार को बचा लिया है। घर में ही बलवंत की शराब पार्टियों में बिना चेहरे पर शिकन लाये दौड़ दौड़ कर पानी, बर्फ, नमकीन पहुॅचाती और सबके खाने की व्यवस्था करती।
शराब के नशे में जानवर बन चुके बलवंत के वहशीपन को हर रात अपने शरीर पर सहन करती रहती। शायद सदैव सहन करती रहती यदि उस दिन वह सब न सुन लेती।
उस दिन बलवंत ने आठ लोगों का खाना बनाने को कहा। शराब की बोतलें पहले ही लाकर अलमारी में रख दी गईं थीं। बोतलें रखते समय बलवंत ने कहा – ” ये कुछ बोतलें अलग रख रहा हूॅ, जब मॉगूं तब निकाल कर दे जाना। साले, देख लेंगे तो सब पी जायेंगें।” भूमिजा ने सहमति में सिर हिला दिया।
शाम से ही पीने पिलाने का दौर शुरू हो गया। तभी उसने सुना कोई बलवंत से कह रहा था – ” गुरू, तुमने उस भगोड़े मास्टर का पता लगाने को कहा था ना, उसका पता चल गया है। वह अजमेर शहर में है। “
” अच्छा, मेरा पचास लाख रुपया लेकर वहॉ मौज कर रहा है।” बलवंत बोला। भूमिजा सन्न रह गई, यह क्या हो गया? उसने अपने फोन की रिकार्डिंग चालू कर दी।
तभी उनमें से एक बोला – ” गुरू, मास्टर की दो लौंडिया और भी तो हैं।”
” उनकी चिन्ता मत करो। वे दोनों भी एक एक करके तुम्हारे गुरू के पास ही आयेंगी। पचास लाख दिया है तो वसूल भी तो उसी से करूॅगा। मास्टर को अपनी तीनों लौंडियों के लिये मुझसे अच्छा दामाद कहॉ मिलेगा?”
सब ठहाका मारकर हंस पड़े – ” गुरू, बात तो तुमने पते की कही है लेकिन भौजाई का क्या करोगे?”
” सालो, तुम लोग बिल्कुल निकम्मे हो। एक लौंडिया नहीं सम्हलेगी क्या? मुझे तो हमेशा नया माल चाहिये। इसे तो फिर भी आठ महीने से इस्तेमाल कर रहा हूॅ।”
भूमिजा भय से कॉपने लगी। उसकी ही नहीं उसकी दोनों बहनों की भी बरबादी सामने थी। इतना सब करने का क्या फायदा हुआ? इन्हीं सबके लिये तो उसने इस नर्क से बदतर जीवन स्वीकार किया था।
तभी एक आवाज फिर सुनाई दी – ” कब चलना है गुरू?”
” अभी रुक जाओ , फिर एक दिन चलकर मास्टर को सीधे से समझायेंगे, नहीं तो अबकी जहन्नुम ही पहुंचा देंगे। सारा झंझट ही खतम।”
इस बार ठहाकों का शोर और ऊॅचा हो गया। कुछ तो करना पड़ेगा वरना ये राक्षस उसके परिवार को निगल जायेंगे लेकिन क्या करे , कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
तभी बलवंत की आवाज आई – ” सुन लौंडिया, अन्दर से एक बोतल दे जा।”
भूमिजा ने जल्दी से फोन बन्द किया। उसके समक्ष ” करो या मरो ” की स्थिति आ गई। उसे याद आ गया कि बलवंत पौधों में डालने के लिये ऐसी कीट नाशक दवा लाया था, जिसकी पॉच बूंद दवा एक बाल्टी पानी में डालकर पौधों पर छिड़काव करना था। इस दवा की दो शीशी रखी थीं।
उसने निश्चित कर लिया। पहले भी उसने अपने परिवार के लिये एक बार कुर्बानी दी है। आज एक बार फिर उसे कुर्बानी देनी है। उसने एक बोतल खोलकर दोनों शीशियों की दवा उसमें डाल दी।
बोतल लाकर बलवंत को दे दी। बोतल की खुली हुई सील देखकर वह खुश हो गया। नशे में झूमते हुये बोला – ” बहुत होशियार हो गई है , इसीलिये बोतल खोलकर ले आई। बहुत अच्छा किया।”
भय से कॉपते हुये वह कमरे में आकर बैठ गई। बाहर के कमरे से छटपटाने की आवाजें आने लगी। एक बार बलवंत की आवाज भी आई – ” लौंडिया, तूने बोतल में कुछ मिलाया है क्या? बहुत जलन हो रही है।”
भय से थर थर कॉपती भूमिजा तब तक बैठी रही, जब तक आवाजें आनी बन्द नहीं हुईं। सुबह तक वह दूसरे कमरे में पड़ी उन आठ लाशों के साथ बैठी रही। उसका मस्तिष्क शून्य हो चुका था, उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उसके हाथों आठ व्यक्तियों की हत्या हो चुकी है। सोचते सोचते बेहोश होकर जमीन पर ही लुढ़क गई।
होश आया तो दोपहर के दो बज चुके थे। जाकर उस कमरे में देखा तो आठो वैसे ही पड़े थे। खून और उल्टी पूरे कमरे में बिखरी पड़ी थी।
भूमिजा का निष्क्रिय मस्तिष्क अचानक सक्रिय हो गया। उसने सबसे पहली सबकी नाड़ी का परीक्षण किया तो पाया कि सभी की मृत्यु हो चुकी है। वह जानती थी कि इस हत्याकांड से तहलका मच जायेगा। पहले उसने सोचा था कि मोबाइल की रिकार्डिंग पुलिस को दिखा देगी लेकिन उसे पता था कि इस इलाके की पुलिस बिक चुकी है। हो सकता है कि उसकी रिकार्डिंग गायब कर दी जाये या बलवंत का कोई साथी उसके परिवार को नुकसान पहुंचा दे। इसलिये यह विचार त्यागकर मोबाइल तोड़ दिया, उसके भीतर का सिम निकाल कर एक प्लास्टिक की छोटी सी डिब्बी में रखकर लॉन में मिट्टी के नीचे दबा दिया। उसके अन्दर जीने की चाह ही खतम हो गई। उसने खुद पुलिस को फोन किया और अपने आप को पुलिस के हाथों सौंप दिया।
सचमुच तहलका मचा और बलवंत के चेलों में हंगामा भी किया। घर की तलाशी में पुलिस को कुछ नहीं मिला। बलवंत केवल गली का गुंडा था। मार पीट, पैसा वसूली, घरों और जमीनों पर कब्जा करवाना उसकी आय के श्रोत थे। बैंक एकाउंट सील कर दिये गये, उनमें बहुत पैसा था और दावा करने वाला कोई नहीं।
भूमिजा ने कोर्ट में स्पष्ट कह दिया कि वह बलवंत से बहुत परेशान थी। इसलिये उसने उसकी अपने मुख्य चेलों सहित हत्या की है। कीट नाशक दवा की कई शीशियां भी बरामद हो गई।
चूंकि अपराधी और प्रमाण सामने थे और कोई पैरवी करने वाला भी नहीं था। इसलिये सरकारी वकील ने भी खाना पूरी कर दी। भूमिजा केवल उस समय बीस वर्ष की थी। इसलिये फैसला सुनाते समय जज ने उसकी युवा उम्र देखते हुये उम्रकैद की सजा सुनाई। जबकि शुरुआत से ही भूमिजा चीख चीखकर मृत्यु दंड की मांग कर रही थी।
” तुमने वह रिकार्डिंग पुलिस को क्यों नहीं दी? उससे तो तुम्हारी सजा कम हो सकती थी।” पूरी बात सुनने के बाद वत्सला ने कहा।
” पहले मेरा भी यही विचार था लेकिन फिर मेरा मन बदल गया और मैंने अपने होंठ बन्द कर लिये। मेरा परिवार गरीब है, समाज के डर से मुझे अपना नहीं पायेगा तो मैं जीकर क्या करती? मुझे रियायत नहीं चाहिये थी। हमारा समाज स्त्रियों के छोटे से अपराध को भी सहन नहीं करता है। हर व्यक्ति मुझे हत्यारिन की नजर से देखेगा। कहीं नौकरी नहीं मिलेगी। इसलिये मैं फॉसी की सजा चाहती थी।” भूमिजा घोर निराशा में थी।
” क्या तुम मुझे अपनी छोटी बहन समझ सकती हो भूमिजा।” वत्सला ने उसकी ऑखों में प्यार से झॉकते हुये कहा।
भूमिजा की ऑखें नम हो गईं – ” मुझसे कोई सम्बन्ध मत जोड़ो, अब मैं इस योग्य नहीं रही।”
” मुझ पर विश्वास करके इस वकालत नामे पर हस्ताक्षर कर दो। मैं तुम्हें जीत कर दिखाऊंगी।”
बहुत आग्रह करने पर भूमिजा ने वत्सला की बात मान ली। जैसे ही मुकदमा दुबारा शुरू हुआ। सब कुछ बदल गया। वत्सला को यह सिद्ध करने में देर नहीं लगी कि बलवंत और उसके साथी अराजक कार्यों में लिप्त थे और मुहल्ले के लोगों को डरा धमकाकर परेशान करते थे। भूमिजा के मोबाइल का वह सिम बलवंत के लॉन से बरामद कर लिया गया जिसमें बलवंत और उसके दोस्तों की बातों की रिकार्डिंग थी। वत्सला ने यह भी सिद्ध कर दिया कि सुरक्षा की दृष्टि से भूमिजा ने मोबाइल से चिप निकाल कर छुपा दी थी क्योंकि उसे पुलिस पर भरोसा नहीं था लेकिन बाद में उसकी मानसिक स्थिति ऐसी हो गई कि वह चिप की बात भूल गई और स्वयं के लिये फांसी की मांग करने लगी।
इससे सिद्ध हो गया कि भूमिजा ने जो किया, अपने और अपने परिवार की सुरक्षा के लिये किया। उस समय उस इलाके के थाने के स्टाफ को भी विभागीय सजायें दी गईं जिन्होंने अपने कर्तव्य की अवहेलना करके बलवंत जैसे गुंडे का साथ दिया जिसके कारण आम जनता इतनी त्रस्त हो गई कि न्याय व्यवस्था से उसका विश्वास ही उठ गया। अगर समय रहते भूमिजा और उसके परिवार की शिकायत पर ध्यान दिया गया होता तो भूमिजा जैसी लड़की को हत्या जैसा जघन्य अपराध न करना पड़ता। इसलिये इस हत्याकांड में भूमिजा से अधिक वे लोग दोषी हैं जिन्होंने अपनी वर्दी का दुरुपयोग किया।
चूंकि भूमिजा आठ साल की सजा काट चुकी थी। इसलिये वत्सला के प्रयत्नों से उसकी बाकी सजा माफ कर दी गई।
अखबारों की सुर्खियों और टीवी चैनलों में इस मुकदमे की इतनी चर्चा हुई कि लोगों ने वत्सला और जन्मेजय को नायक बना दिया।
जिस भूमिजा को आज तक लोग हत्यारिन, पति हन्ता, पैसे की लालची, नारी जाति पर कलंक, चरित्र हीन, वेश्या और भी न जाने क्या क्या कहते रहते थे। उसी को अब वीरांगना, मजबूर, बेचारी, त्यागमई बेटी कह रहे थे। कुछ तो यह भी कह रहे थे कि ऐसे दुष्टों को मारकर उसने पुण्य का कार्य किया है।
जिस दिन भूमिजा जेल से बाहर निकली, वत्सला और जन्मेजय के साथ उसके अपने मुहल्ले के कुछ लोग उसके स्वागत में खड़े थे।
भूमिजा ने जन्मेजय के हाथ जोड़े और वत्सला को अपने से लिपटा लिया – ” तुमने मुझे जो वचन दिया था, उसे पूरा कर दिया। मैं तुम्हें धन्यवाद दूॅ या आशीर्वाद दूॅ, सब कम है।”
वत्सला के अधरों पर मुस्कराहट आ गई – ” भूमि, तुमसे मिलने के लिये कुछ और भी लोग तरस रहे हैं लेकिन तुमने उन्हें भगवान की सौगन्ध दे रखी है। इसलिये तुम खुद उनसे मिलने जाओ।”
भूमिजा का हाथ पकड़कर वत्सला उसे एक कार के पास ले गई। दरवाजा खोलते ही उसके मम्मी – पापा, भाई – बहन उससे आकर लिपट गये। प्रेस के कैमरे इस खुशी के ऑसुओं से भरे क्षणों को अपने कैमरे में कैद करने लगे।
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर