उपहार! – कुसुम अशोक सुराणा : Moral Stories in Hindi

घर-आँगन केसर और बासमती चावल की खुशबू से महक रहा था! पिताजी ने माँ भगवती के आगे दीप जलाया और वणज का भोग लगाया! 

आज नारळी-पौर्णिमा, रक्षाबंधन का त्यौहार! घर के सभी सदस्य आज छुट्टी मना रहे थे! हँसी के फव्वारे छूट रहे थे…हम सभी भाई-बहन छोटे भाई का इंतज़ार कर रहे थे! वह मिरज में डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था। 

मस्ती की पाठशाला में अंताक्षरी की धूम मची थी! चुटकुले बिच-बिच में माहौल में हँसी का  तड़का लगा रहे थे! समय का ध्यान किसी को नहीं था।

तभी माँ-पिताजी की नज़र घड़ी की ऒर गई और वो चिंता में डूब गए! “सुरेश सुबह पांच बजे निकला था मिरज से .. अभी तक क्यों नहीं आया? “

सभी की पेशानी पर चिंता की लकीरें साफ नजर आने लगी! भूख सब को लगी थी पर कोई खाना खाने को तैयार ही नहीं था..चिंता पिशाचिनी न जानें कैसे-कैसे सायों के साथ नाच दिखाना शुरु कर देती हैं। अच्छे-खासे  खुशनुमा माहौल को निगल लेती है। 

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जोश के उफ़नते दूध में मानों ठंडी पानी की बुँदे पड़ गयी थी! खुशनुमा बयार भी खामोश हो चुकी थी, फूल-पत्तों सरसराहट बंद हो चुकी थी और एक अजीबोगरीब सन्नाटा छा चूका था! सब की नजरें बंगले के फाटक की तरफ थी!

तभी जोर से ब्रेक मार कर एक गाड़ी घर के सामने रुकी और अंदर से भाई बाहर आया! ये क्या? माथे पे पट्टी, जगह-जगह ज़ख्म, ताजा खून के दाग….हमारी तो बोलती बंद हो गई थी! भाई को छोड़ कर गाड़ी निकल चुकी थी। 

सुरेश ने ख़ामोशी से बाप्पा के चरण छूएं और वह माँ से लिपट गया!

“माँ! आज रक्षाबंधन है न माँ? सॉरी! मैं उपहार लाना भूल गया! माँ भगवती और आप सबकी दुआएं मुझे मौत के मुँह से खींच कर ले आई हैं माँ ! बस घाट में मुड़ते-मुड़ते खाई में गिर गई थी माँ। मुझ से लड़-झगड़ कर मेरी सीट पर बैठे दोनों यात्रियों की मृत्यु हो चुकी माँ! मैंने वहाँ भी लोगों की जान बचाई माँ! जल्दी जल्दी फोन कर, एम्बुलेंस मंगवा कर लोगों को अस्पताल पहुँचाया माँ।”

माँ! आज यमराज ने भी देखा! मेरी बहनों के राखी के रेशमी धागे कितने मजबूत हैं..मेरे अभिभावकों की दुआओं में कितनी शक्ति हैं! यमराज से बचा कर ले आए मुझे!  माँ! जल्दी करों माँ! बहुत भूक लगी हैं माँ…” एक तरफ भाई का प्यार तो दूसरी तरफ अनजान घर में मातम की पीड़ा! 

सुरेश की बात सुन सभी की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे और चेहरे पर मुस्कान चमकने लगी मानों रिम-झिम बारिश के बिच सुनहरी धूप को लुभाता इंद्रधनुष!

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हाथ-पैर धो कर भैया के आते ही सभी गोलाकार बैठ गए! बिच में स्वादिष्ट खाना!  हम सब टूट पड़े ‘वणज’ पर… साथ में राम खिचड़ी, आलु की सब्जी और गरमा-गरम पुरी!

संध्या समय में माँ ने देहरी पर दीया जलाया और चाँदी की थाल में कुंकुम, अक्षत, रोली, राखी, लुम्बा ले हमने राखी का उत्सव मनाना आरम्भ किया! मिट्टी के दीये की लौ में सब के चेहरे दमक रहे थे। भैया और भतीजे की कलाईयों पर राखियाँ चमक रही थी! भाभी के माथे पर सुहाग का सिंदूर और कलाई पर मोतियन का लुम्बा हुलारें मार रहा था।

घर का कोना-कोना अब मोगरे की महक से सुरभित था! सभी के उल्हासित मन भाव-विभोर हो कर रच्चनहारे का शुक्रिया अदा कर रहे थे ..माँ ने पूजा की थाली में उपहार स्वरुप चाँदी के सिक्के रख दिए थे लेकिन बहना के लिए भाई के कुशल-मंगल से बड़ा राखी का उपहार क्या हो सकता था भला? क्या सिक्कों से, उपहार की कीमत से होता हैं प्यार का मोल? दुआओं का मोल?

स्वरचित तथा मौलिक,

कुसुम अशोक सुराणा, मुम्बई, महाराष्ट्र |

#उपहार की कीमत नहीं, दिल देखा जाता हैं!

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