पात्र परिचय:
गौरव – एक संवेदनशील, संघर्षशील शिक्षक, साहित्यप्रेमी, जिनका जीवन सादगी, आदर्श और सामाजिक मूल्यों से प्रेरित है।
सुमन – गौरव की जीवनसंगिनी; सादगी, सहनशीलता, आत्मसम्मान और संस्कृति की जीती-जागती मिसाल।
समाज – एक अमूर्त परंतु मुखर पात्र, जो बाह्य चकाचौंध को ही आदर्श मानकर आडंबरहीनता का उपहास करता है।
कहानी:
सन् 1996, पटना का वातावरण गर्म था, पर गौरव के भीतर एक और आग जल रही थी—सपनों की, सिद्धांतों की, और सामाजिक बदलाव की। शिक्षक बनकर उन्होंने ठान लिया था कि शिक्षा को महज़ नौकरी नहीं, एक क्रांति बनानी है। उसी समय उन्होंने जीवन का सबसे साहसी निर्णय लिया- बिना दहेज विवाह।
जब गौरव ने सुमन को जीवनसाथी बनाने का निर्णय लिया, तो समाज भौंहें चढ़ाने लगा।
“बिना दहेज? कोई जात-बिरादरी का ख्याल नहीं?”
“कुछ तो मजबूरी रही होगी लड़की वालों की…”
पर गौरव के लिए सुमन में वह गरिमा थी, जो शायद समाज की निगाहें कभी देख ही नहीं पाईं। सुमन – पटना सिटी की शिक्षित, विनम्र, संस्कारी और स्वाभिमानी युवती—न किसी दिखावे की इच्छा, न कोई सामाजिक प्रदर्शन। विवाह बिना तिलक-दहेज के सम्पन्न हुआ। एक साधारण पंडाल में, परन्तु आत्मा से जुड़ा हुआ।
शादी के कुछ वर्ष बीते। घर में दो बेटे हुए – शुभम और सौरभ। सुमन ने उन्हें न केवल जन्म दिया, बल्कि संस्कारों की धरोहर भी सौंपी। गौरव विद्यालय में बच्चों को स्वतंत्र सोच, साहित्य और आत्मविश्लेषण का पाठ पढ़ाते, तो सुमन घर को आश्रम की तरह सजातीं – प्रेम, सहयोग और अनुशासन के मंत्रों से।
लेकिन समाज?
वह अब भी तिरस्कार की दृष्टि से देखता रहा।
“इतना पढ़ा-लिखा होकर कैसी घरेलू पत्नी ले आया?”
“न सोसाइटी में दिखती है, न कोई पार्टियों में भाग लेती है।”
“बेटे दूर चले गए—बुढ़ापा कैसे कटेगा इनका?”
एक दिन, एक पारिवारिक समारोह में किसी तथाकथित ‘प्रगतिशील’ महिला ने सुमन से कहा—
“आप तो बिल्कुल साधारण हैं, गौरव जी जैसे ऊँचे सोच वाले व्यक्ति की पत्नी तो कोई प्रभावशाली महिला होनी चाहिए थी।”
सुमन चुप रहीं। पर गौरव अब नहीं चुप रहे भीड़ के बीच उन्होंने कहा—
“सुमन मेरी ताकत है। उन्होंने कभी न मेरे आत्मसम्मान से समझौता करवाया, न खुद कोई दिखावा किया। समाज को लगता है कि जो झूठ बोले, मुस्कराए, सज-धजकर सबके मन की बात कहे, वही श्रेष्ठ है। लेकिन मैंने उस स्त्री को चुना जो चुपचाप मेरे जीवन में दीप जलाती रही।”
भीड़ शांत हो गई। पहली बार सुमन की आँखों में आँसू नहीं थे—बल्कि सम्मान की चमक थी।
समापन भाव:
“तिरस्कार कब तक?”
यह एक प्रश्न नहीं, एक ललकार है उस समाज के लिए, जो सादगी को कमजोरी और दिखावे को श्रेष्ठता मानता है।
गौरव और सुमन की जोड़ी आदर्श इसलिए नहीं थी कि वे विशेष थे, बल्कि इसलिए कि उन्होंने सच्चाई को अपनाया और रूढ़ियों को चुनौती दी।
उनका जीवन एक उत्तर है उस चुपचाप पूछे गए प्रश्न का—
“क्या सच्चा जीवन तिरस्कार के बोझ तले दबा रहेगा?”
नहीं…
अब नहीं…
“तिरस्कार कब तक?”- जब तक सुमन जैसी नारियाँ मौन रहें।
लेकिन अब उनका मौन, गौरव की आवाज़ बन चुका है।
और यही कहानी समाज के लिए एक आत्मदर्पण है।
संपर्क:सुरेश कुमार गौरव सिमरी सहादरा रामधनी रोड मालसलामी, पटना सिटी 800008 पटना, (बिहार)
स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित