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रवीश घर के दरवाजे की ओर एकटक देख रहा था। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसकी पत्नी भार्गवी और नीलाक्ष उसे अकेला छोड़कर चले गये हैं। पिच्चासी साल की अवस्था वाली अपनी बूढ़ी मॉ को सम्हाले या सेवा निवृत्त के बाद की अपनी जिन्दगी को। आज अनुभव हुआ कि भार्गवी तो अंधकार में खोई, उसके सारे गृहस्थ जीवन को अपने कन्धों पर उठाये रखने वाली वह नीव का पत्थर थी जिसके हटते ही उसका सारा अस्तित्व ही भरभरा कर गिर गया है। कल से क्या होगा, इसकी कल्पना से ही उसका सर्वांग कॉप रहा है।
आज सुबह जब नीलाक्ष ने उससे कहा था कि वह इस बार भार्गवी को अपने साथ ले जाना चाहता है तो उसने बड़ी शान से कह दिया था – ” हॉ… हॉ … ले जाओ। मैं सब सम्हाल सकता हूॅ।”
तब भी उसे विश्वास नहीं था कि भार्गवी सचमुच चली ही जायेगी। वह जानता था कि भार्गवी को अपना घर, गृहस्थी और परिवार बहुत प्यारा है लेकिन आखिर कोई अपना तिरस्कार कब तक सहे? शायद यह भार्गवी का भीतर ही भीतर घुमड़ता मूक विद्रोह था जिसे वह कभी समझ ही नहीं पाया और अपने अहंकार में चूर रहा।
आज उसे एक एक करके पिछला सब याद आ रहा था। वह ही क्यों उसका पूरा परिवार सदैव भार्गवी की उपेक्षा और तिरस्कार ही करता रहा।
उसे अपने भाई कवीश के व्यवहार को देखकर भी कभी समझ नहीं आया कि कम से कम अब तो वह भार्गवी को काम करने की मशीन न समझकर पत्नी समझ ले। कभी भार्गवी के समर्पण को देखकर मन खिंचाव अनुभव भी करता तो बचपन से मॉ द्वारा पिलाई गई पुरुषोचित अहंकार की घुट्टी उसे स्प्रिंग की तरह उछाल कर फिर वहीं पहुॅचा देती।
उसका जो भाई भार्गवी की हर बात में तिरस्कार करता था, वही अपनी पत्नी के पीछे अम्मा और दीदी के जरा सा भी कुछ कहते ही हर समय ढाल की तरह खड़ा हो जाता – ” वह इस घर में बहू बनकर आई है, सबकी गुलामी के लिये नहीं। अभी तक सब काम अच्छे से चल रहा था, मेरी बीबी की दो रोटी बनाने में ही सबको आफत लग रही है क्या?मुझे दादा मत समझ लेना। मेरी बीबी को कोई कुछ कहेगा तो मैं उसका तिरस्कार सहन नहीं करूॅगा।”
रवीश ने भी कह दिया – ” मॉ ठीक ही तो कह रहा है, कवीश। अभी तक सब काम आराम से चल ही रहा था। एक व्यक्ति का काम ही कितना होता है। छोटी बहू अभी बच्ची है, धीरे धीरे स्वयं ही सीख जायेगी।”
भार्गवी का मन किया कि कहे – तीन साल पहले मैं ब्याहकर आई थी तो क्या मैं बच्ची नहीं थी?
उसे लगता कि शायद बच्चे के जन्म के बाद स्थिति में परिवर्तन आ जाये। नीलाक्ष के जन्म के बाद उसे आश्चर्य हुआ कि रवीश शुरू के दिनों में नीलाक्ष को छूता भी नहीं था, कहता था कि उसे इतने छोटे बच्चे को उठाते हुये डर लगता है लेकिन जब देवरानी को बेटी हुई तो सबसे पहले रवीश ने उसे गोद में लिया। भार्गवी का दिल तड़प कर रह गया। एक स्त्री की सबसे बड़ी ख्वाहिश यही होती है कि वह अपनी कोख से जन्में बच्चे को पति की गोद में देखकर मातृत्व के गौरव से इठलाये।
भार्गवी जब भी मायके जाती, उसके मम्मी पापा उसके अपने और नीलाक्ष के लिये ढेर सारे कपड़े और जरूरत का काफी सामान दिला देते लेकिन रवीश को इस बात का कभी आभास नहीं हुआ कि पत्नी और बेटे के प्रति उसका भी कुछ कर्तव्य है।
कवीश जो भी कमाता अपने पास रखता और एक ही बात कहता कि अभी तक कैसे चल रहा था? भार्गवी समझ रही थी कि अभी उसके पापा नौकरी कर रहे हैं और भाई की भी शादी नहीं हुई है तो उसे रवीश के पैसे की उतनी जरूरत नहीं थी। भले ही मन में हसरत रहती कि रवीश उसके और बच्चे के लिये कुछ लाये, भले ही वह वस्तु दस रुपये की ही हो।
नीलाक्ष दो वर्ष का होने वाला था, वह जानती थी कि उसकी पढ़ाई और शिक्षा के लिये पैसे की जरूरत पड़ेगी। वह ससुराल में दिन भर मेहनत करे और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मम्मी -पापा और भाई का मुॅह ताके।
मायके जाती थी तो उस शहर में रहने वाली और अविवाहित सहेलियां भी मिलती थीं। कभी किसी के घर तो कभी किसी के घर, सब इकट्ठे हो जातीं। इस बार सब इकठ्ठे हुईं तो आपस में बात होने लगी कि आजकल कांटेक्ट राइटिंग से भी अच्छे पैसे कमाये जा सकते हैं।
एक रचना सहेली ने बताया कि उसने पॉच महीने में कांटेक्ट राइटिंग द्वारा करीब बारह हजार रुपये इकठ्ठे कर लिये हैं। घर के सारे काम खतम करके दोपहर में सोने और आराम करने की बजाय वह अपना यह काम करती है। घर में ही होने के कारण किसी को अभी तक इस बारे में कुछ पता ही नहीं है। ज्यादा पैसे हो जाने पर कोई बड़ा सामान खरीद कर सबको आश्चर्यचकित कर देगी।
दूसरी सहेलियों ने हॅसते हुये कहा – पति के पैसों पर ऐश करो यार। कौन इस सबमें अपना दिमाग खपाये?”
रचना भी हॅसने लगी – पति के पैसे पर ऐश करना हमारा विवाह प्रदत्त अधिकार है लेकिन जब बैंक में पैसे जमा होने का संदेश आता है तो बहुत ख़ुशी होती है कि यह मेरी अपनी कमाई है।”
भार्गवी के मस्तिष्क में यह बात घर कर गई। उसने रचना से बाद में इस सम्बन्ध में पता करने के लिये सोच लिया। अपने बच्चे के लिये उसे भी पैसे चाहिये थे।
तीन साल का होने पर नीलाक्ष को स्कूल भी भेजना होगा। उसके पास तो स्मार्ट फोन ही नहीं है, वह यह काम कैसे करेगी? तभी उसे याद आया कि शादी के पहले उसके पास एक गुल्लक थी, जिसमें वह सबसे मिलने वाले पैसे जोड़ती थी। शादी के बाद मम्मी पापा ने उससे कई बार कहा भी कि वह अपनी गुल्लक ले जाये लेकिन भार्गवी ने कभी ध्यान नहीं दिया। आज भार्गवी को अपनी वह गुल्लक याद आ गई।
घर आकर सबसे पहले उसने वह गुल्लक तोड़कर उसके पैसे गिने – सात हजार तीन सौ बारह। उसने वे पैसे पापा को देकर उनके बड़े नोट करवा लिये। मम्मी पापा ने पूॅछा भी कि गुल्लक क्यों तोड़ दी?
उसने जवाब दिया कि इन चिल्लरों को कैसे ले जाऊॅगी? आप बड़े नोट कर दीजिये तो पर्स में रख लूॅगी।
रचना से उसने जब कांटेक्ट राइटिंग के बारे में बात की तो उसने बताया कि वह जिस वेबसाइट के लिये काम करती है, उन्हें और भी कांटेक्ट राइटर चाहिये। उसने यह भी आश्वासन दिया कि वह उसे काम दिलवा देगी लेकिन शुरू में कम पैसे मिलेंगे। जैसे जैसे उन्हें काम पसंद आता जायेगा, पैसे बढते जायेंगे।
रचना बहुत खुश थी – ” मैं तो समझती थी कि तुम भी उन लोगों की तरह मुझे बेवकूफ ही कहोगी।
” कुछ दिन करके देखती हूॅ, नहीं समझ में आया तो छोड़ दूॅगी।”
” मैंने भी यही सोचा था कि कुछ दिन बाद छोड़ दूॅगी लेकिन जैसे ही पैसे बैंक में पहुॅचने का संदेश आता है, उस अनिवर्चनीय खुशी के सामने फिर काम शुरू कर देती हूॅ।” रचना ने हॅसकर कहा – अपनी कमाई का सुख काम छोड़ने ही नहीं देता।”
” ठीक है, तुम बात कर लेना।”
” हॉ, कर लूॅगी और तुम्हें काम मिल भी जायेगा लेकिन क्या तुम्हारे पास स्मार्टफोन है?”
” है तो नहीं लेकिन आज या कल में हो जायेगा तो सबसे पहले तुम्हें ही फोन करूॅगी।”
उसी दिन उसने अपने पापा से कहा – ” पापा और भाई क्या आप दोनों में से कोई कल जल्दी घर आ सकता है? मुझे आप लोगों के साथ बाजार जाना है।”
” हम लोगों के साथ बाजार? तुम तो मम्मी के साथ बाजार जाती हो?”
” हॉ, नीलाक्ष को भीड़ में नहीं ले जाऊॅगी तो मम्मी सम्हाल लेंगी। मैं जो खरीदना चाहती हूॅ, उसके बारे में आप दोनों ही अच्छी तरह जानते हैं। साथ ही कुछ रुपए जेब में डालकर ले चलियेगा, मुझे जरूरत पड़ सकती है।”
” पैसे तो अभी दे देते हैं बताओ कितने चाहिये?” दोनों ने एक साथ जेब में हाथ डाला।
” अभी नहीं, जब चलियेगा तो वहीं दीजियेगा। साथ ही एक वादा भी करिये कि मैं वहॉ पर जितने पैसे मॉगू उतने ही पैसे दीजियेगा – न उससे कम न ज्यादा।”
भार्गवी ने अपने मुॅह से कभी कुछ नहीं मॉगा था, जो मम्मी पापा और भाई ने अपनी खुशी से दे दिया, वह ले लिया था। भाई भार्गव ने उसके सिर पर हल्की सी चपत मारते हुये कहा – ” जो चाहिये बताती क्यों नहीं, दुनिया भर की कहानी समझा रही है।”
” नहीं, साथ चलकर मुझे वह वस्तु दिलवाइये।”
पापा ने भार्गव की ओर देखकर कहा – ” मेरे यहॉ तो ऑडिट टीम आई हुई है, शनिवार को तुम्हारी आधे दिन की छुट्टी है। इसे जो चाहिये दिलवा देना।”
भार्गवी ने भाई को रास्ते में बता दिया कि उसे स्मार्टफोन फोन लेना है तो वह उसे अपने ही दोस्त सतीश की दुकान पर ले गया। सतीश भार्गव के साथ भार्गवी को देखकर बहुत खुश हुआ – ” आज पहली बार मेरी बहन मेरी दुकान पर आई है।” उसने बहुत सारा नाश्ता और कॉफी मंगवाया और नाश्ते के बाद बोला – ” बोलो, भार्गव क्या चाहिये?”
” भार्गवी को एक स्मार्ट फोन चाहिये।”
” बोलो भार्गवी तुम्हें कैसा फोन चाहिये।”
” पहले तुम दिखाओ तो।”
” भइया, मुझे अधिक मंहगा नहीं, ऐसा फोन चाहिये जिससे मैं इन्टरनेट चला सकूं।”
” पैसे की कोई चिन्ता मत करो।” भार्गव बोल पड़ा।
” मुझे दस हजार के अन्दर का फोन चाहिये। बेकार की फीचर्स मुझे नहीं चाहिये। जब मैं अच्छी तरह प्रयोग करना सीख जाऊॅगी तो दूसरा मंहगा वाला दे दीजियेगा। साथ ही मुझे दूसरा सिम भी चाहिये।”
रवि ने उसे अपनी पसंद का स्मार्टफोन देते हुये कहा – ” यह तुम्हें आठ हजार में मिल जायेगा।”
भार्गवी भले ही नहीं जानती था लेकिन भार्गव जानता था कि यह फोन चौदह हजार का है, वह कुछ कहना चाहता था लेकिन रवि ने उसे इशारे से मना कर दिया – ” तुम चुप रहो। यह हम भाई-बहन के बीच की बात है।”
भार्गवी ने भाई को सात हजार रुपये दे दिये तो भार्गव ने अपने पास से एक हजार रुपये मिलाकर सतीश को आठ हजार रुपये दे दिये।
फिर सतीश ने भार्गवी से कहा – ” कल तुम दिन में आ जाना तो तुम्हारा बचा हुआ काम करवा दूॅगा। कैसे चलाना है, इसे भार्गव बता देगा। बाकी सब प्रयोग करते करते खुद आ जाता है।”
घर आकर भार्गव ने भार्गवी के सात हजार रुपये वापस करना चाहा तो वह जिद पर अड़ गई कि अगर उसने यह पैसे नहीं लिये तो वह फोन वापस कर देगी। सबको उसकी बात माननी पड़ी।
एक बार इस राह पर चल पड़ी तो पीछे मुड़कर नहीं देखा, उस पर जैसे जुनून सवार हो गया काम करने का। नीलाक्ष के तीन साल का होते तक उसके पास काफी पैसे जमा हो गये।
मुहल्ले के ही प्ले ग्रुप में भेजने का घर वालों ने बहुत विरोध किया- छोटा सा बच्चा, स्कूल में रोयेगा। पॉच साल का होने के बाद भेजेंगे।”
जब किसी भी तरह भार्गवी न मानी तो पूरे परिवार ने रवीश से कहा – ” एडमिशन के लिये पैसे मत देना, देखें कहॉ से करवायेगी।”
रवीश ने भार्गवी से स्पष्ट कह दिया – ” जब तुम्हें किसी की बात नहीं माननी है तो मुझसे एक भी रुपये की उम्मीद मत करना।”
नीलाक्ष के स्कूल जाने के बाद भार्गवी के और भी समय बचने लगा। शादी के कुछ दिनों बाद ही कवीश की पत्नी अलग रहने लगी। अब सास और हर दो चार दिन बाद आने वाली ननद का एक ही काम था – भार्गवी की मुक्त कंठ से बुराई करना।
भार्गवी नीलाक्ष को तैयार करके पहले स्कूल छोड़ आती। फिर रवीश के ऑफिस जाने के पहले खाना नाश्ता सब बना लेती। रवीश के ऑफिस जाने के बाद सास को नाश्ता देकर अपने कमरे में आ जाती। कई बार सास और ननद के शिकायत करने पर रवीश ने भार्गवी से कहा – ” सारा दिन कमरे में बैठ कर क्या करती हो? अम्मा अकेले घबराती हैं, उनके पास बैठा करो।”
” और जब दीदी के आने पर मेरी बुराई की जाती है, तब क्या किया करूॅ? साथ में तुम भी साथ देते हो। इतना काम करने पर जब बुराई ही होनी है तो मेरा किसी के साथ बैठने का मन नहीं करता। काम तो सब कर ही देती हूॅ। मन हो या न हो रात की तुम्हारी ड्यूटी भी पूरी कर देती हूॅ।”
पॉच साल के नीलाक्ष को जब स्कूल भेजने की बात हुई तो सबको मालूम था कि यदि नीलाक्ष मंहगे काण्वेन्ट स्कूल में पढ़ने जायेगा तो रवीश का वेतन पूरे परिवार की आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पायेगा। इसलिये फिर घर में पंचायत शुरू हो गई – ” काण्वेन्ट में पढकर बच्चे बदतमीज हो जाते हैं। माता पिता और अपने संस्कार भूल जाते हैं। हमें नहीं पढाना अपने बच्चे को ऐसे स्कूल में।”
रवीश का दिमाग तो जैसे कुछ सोचना ही नहीं चाहता था। अब भार्गवी ने अपना पूर्णतः ताण्डव रूप दिखा दिया – ” अपने लिये बर्दाश्त कर लिया और कर रही हूॅ लेकिन बच्चे की जिन्दगी बरबाद नहीं होने दूॅगी।”
तीन दिन तक न उसने कुछ खाया और न ही घर का कोई काम ही किया। उसके न खाने से तो किसी पर फर्क नहीं पड़ा लेकिन काम न करने से तो फर्क पड़ना ही था।
” ड्रामा छोड़ो, अपना काम धाम देखो। तीन दिन से अच्छी नौटंकी फैला दी है।जो चाहे करो लेकिन मुझसे कोई उम्मीद मत करना। न पैसे की और न सहयोग की। नीलाक्ष के स्कूल में इंटरव्यू के समय भी मैं नहीं जाऊॅगा। जो करना अपनी जिम्मेदारी पर करना। मंहगे स्कूलों के खर्चे बढते जायेंगे, तब समझ में आयेगा। देखता हूॅ कि कब तक तुम्हारे बाप- भाई साथ देते हैं?”
” मुझे आपसे या घर के किसी भी सदस्य से कोई उम्मीद है भी नहीं।”
भार्गवी ने हिन्दी से एम० ए० किया था, इसलिये उसे काम मिलने में कठिनाई नहीं थी क्योंकि रोमन से हिन्दी में टाइप करने वालों की संख्या काफी कम थी। रवीश ने बेटे की पढ़ाई और कपड़ों के लिये न कभी एक पैसा दिया और न ही कभी भार्गवी को कुछ लाकर दिया। पूरा वेतन अपने परिवार पर खर्च करता। यहॉ तक कि कवीश भी कभी बीमारी के बहाने, कभी बच्चों की फीस के बहाने उससे पैसे ले जाता। बेटी, दामाद और नाती नातिनों पर अम्मा हर समय खर्च करती रहतीं।
जैसे जैसे नीलाक्ष बड़ा हो रहा था। उसे सबका रवैया समझ में आता जा रहा था। कभी कभी वह गुस्से से उबलने लगता – ” मम्मा, बुआ रोज रोज क्यों आ जाती हैं? सब लोग आपकी बुराई करते हैं, मैं किसी दिन कुछ कह दूॅगा।”
” नहीं बेटा। बुराई करके हमारा क्या बिगाड़ लेंगे लेकिन अगर तुम इन सब बातों में अपना दिमाग लगाओगे तो तुम्हारा छोटा सा दिमाग इन बेकार की गन्दी बातों से भर जायेगा तो पढाई याद रखने की जगह नहीं बचेगी। बेटा यह समय बीत जायेगा तो वापस नहीं आयेगा। अच्छे नम्बर लाओ या बुरे, बड़े तो होते ही जाओगे।” नीलाक्ष को समझा देती। नीलाक्ष बहुत समझदार था, भार्गवी एक बार जो बात उसे समझा देती, कभी नहीं भूलता और न ही उसे प्रलोभन से फुसलाया जा सकता था।
एक बार नीलाक्ष ने पूॅछा – ” मम्मा, पापा मेरी फीस, ड्रेस और किताबों के लिये पैसे तो देते नहीं हैं तो क्या मेरी फीस नानाजी लोग देते हैं?”
तब उसने चुपके से अपने बेटे को अपना काम बताया और किसी को न बताने को कहा।
नीलाक्ष के खर्चे तो बढ रहे थे लेकिन उसके प्रति भार्गवी की जिम्मेदारी कम हो रही थीं। अब वह अपने सारे काम तो कर ही लेता था साथ ही भार्गवी की घर के कामों में मदद भी कर देता था।
भार्गव की बहुत अच्छी हिन्दी देखकर पैरेंट्स मीटिंग में उसके स्कूल में उसे हिन्दी पढाने का काम भी मिल रहा था लेकिन जब भार्गवी ने मना कर दिया तो बच्चों के माता पिता ने उससे आग्रह किया कि वह फोन पर ही उनके बच्चों को पढा दिया करे। भार्गवी के लिये लगातार इतना समय दे पाना संभव नहीं था लेकिन उसे हिन्दी की पूरी किताब बच्चों को पढ़ाने का कान्टैक्ट मिलने लगा, जिसके लिये उसे एकमुश्त रकम भी मिलने लगी।
नीलाक्ष इतना समझदार था कि अपने एक सीनियर की हर साल किताबें और ड्रेस ले आता जिससे भार्गवी के काफी पैसे बच जाते। प्रथम तीन में स्थान पाने के कारण उसे स्कालरशिप भी मिल जाती।
इसी तरह नीलाक्ष शिक्षा के सोपानों पर कदम रखता आगे बढ़ रहा था। जब कभी रवीश किसी से कहते – ” बच्चे की पढ़ाई के लिये मैंने अपनी सारी इच्छायें त्याग दीं। सारा पैसा इसकी पढ़ाई पर लगा देता था।”
तब नीलाक्ष को बहुत गुस्सा आता – ” मम्मा, पापा ने एक महीने की कभी फीस तो मेरी दी नहीं और अब सबके सामने बातें बनाते हैं।”
” कहने दो, अभी हमें कुछ नहीं बोलना है। अगर हम लोग इनसे उलझने लगते तो मैं आज तुम्हें यहॉ तक न पहुॅचा पाती। हम लोग भी वक्त आने पर जवाब देंगे। पढाई के साथ बैंकिंग कॉम्पटीशन की तैयारी करते रहो जिससे ग्रेजुएशन करने के तुरन्त बाद प्रोबेशनरी ऑफिसर की परीक्षा दे सको।”
” आपसे अधिक मेरा अच्छा कोई नहीं सोच सकता।”
पहली ही बार में नीलाक्ष ने कॉम्पटीशन पास कर लिया।
जैसे ही उसने यह खुशखबरी सबको बताई सब अपनी अपनी तारीफ करने लगा।
” हमारे खानदान का लड़का है, सफल कैसे न होता?”
रवीश ने भी सीना चौड़ा करते हुये कहा – ” आखिर मेरा बेटा है, बुद्धिमान और मेहनती तो होगा ही।”
किसी ने भी नहीं सोचा कि इस सबमें भार्गवी का कोई योगदान है।
जब थोड़ा एकान्त हुआ तो नीलाक्ष ने कहा – ” मेरे साथ आप भी चलना मम्मा। मैं आपको यहॉ छोड़कर नहीं जाऊॅगा। इस घर में तो आपको कभी सम्मान मिलेगा नहीं आखिर आप अपना तिरस्कार कब तक सहन करती रहेंगी?”
” बिल्कुल नहीं सहूॅगी। इसी दिन के लिये तो मैंने इतनी तपस्या की है। अभी तुम जाकर ज्वाइन करो, एक महीने बाद अपना पहला वेतन लेकर आना तब मैं तुम्हारे साथ इन सबको छोड़कर चल दूॅगी। जिनके लिये पूरी जिन्दगी तुम्हारे पापा ने लुटाया है, तुम्हारे लिये एक झबला तक नहीं लाये, सोने की तो छोड़ो मेरे लिये एक जोड़ कॉच की चूड़ियां तक नहीं लाये, वही लोग अब उनका बुढ़ापे में साथ देंगे।”
कल नीलाक्ष एक महीने बाद आया था। यह एक महीना भार्गवी ने कैसे काटा था, वही जानती थी। अपनी सारी तैयारी उसने पहले ही कर रखी थी। साथ ही अपने छोटे से लड्डू गोपाल, शिव और पार्वती की मूर्तियों से कहती जा रही थी अब कभी इस घर में लौटकर मत आना।
ट्रेन में बैठकर नीलाक्ष ने भार्गवी के हाथ को अपने हाथ में ले लिया – ” अब कोई आपका तिरस्कार नहीं करेगा।”
भार्गवी ने नीलाक्ष की ऑखों में ऑसू देखकर परिहास किया – ” अगर मेरी बहू को पसंद न आया तो ••••।”
” एक रिश्ते के लिये दूसरे रिश्ते का तिरस्कार अपराध ही नहीं पाप भी है, यह मैंने पापा से ही सीखा है। जो लड़की मेरे इस सिद्धान्त को समझ पायेगी, वही आपकी बहू बनेगी।”
भार्गवी खिलखिला कर हॅस दी – ” बच्चू, जिस दोस्त के साथ मिलकर तुम पढाई और चैटिंग करते थे और जिसने तुम्हारे साथ ही प्रोबेशनरी ऑफिसर की परीक्षा भी पास की है, उसे मैं जानती हूॅ। देवयानी नाम है उसका।”
” मम्मा आप भी….।” शरमाकर पहले तो नीलाक्ष ने सिर झुकाया और फिर भार्गवी के गले लग गया।
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर