“बस, अब और नहीं, निखिल… आज तो मुझे बोलने दो,”
सिया ने बरामदे में कपड़े फैलाते-फैलाते अचानक बाल्टी ज़मीन पर रख दी। उसकी आवाज़ में रोना भी था और थकान भी।
निखिल ने अख़बार से सिर उठाया, चश्मा थोड़ा नीचे खिसका,
“क्या हुआ फिर से? सुबह-सुबह तने हुए चेहरे का मतलब है, कुछ ना कुछ शुरू होने वाला है।”
सिया ने तिरछी नज़र से पति की ओर देखा,
“तुम्हें मज़ाक लग रहा होगा न? पर सच कहूँ, मैं थक गई हूँ। तुम्हारे ऑफिस, बच्चों के स्कूल, पापा की दवाइयाँ, मम्मी की पूजा, बड़ी भाभी की kitty पार्टी और छोटे देवर की कोचिंग—सबकी घड़ी मेरे सिर पर बंधी है, निखिल।
शायद तुम्हें याद भी नहीं होगा कि मैंने आख़िरी बार अपने लिए क्या किया था।”
निखिल ने अख़बार मोड़कर एक तरफ़ रख दिया,
“ठीक है, मान लिया, तुम बहुत काम करती हो। पर तुम चाहती क्या हो? साफ़-साफ़ बोलो न, ये घुमा-फिराकर ताने क्यों देती रहती हो?”
सिया की आँखों में हल्की नमी चमकी,
“तुम्हें पता है, मेरे कॉलेज के दोस्त मुझे ‘टॉपर सिया’ कहते थे?
कितनी मुश्किल से मैंने फ़ॉर्म भरा था इस ट्रेनिंग प्रोग्राम का… तीन महीने से इंतज़ार कर रही थी कि कब कॉल आएगा। आज सुबह मेल आया है—
दिल्ली में सात दिन का वर्कशॉप है, वही सोशल वर्क ट्रेनिंग, जिसकी मैं बातें करती रहती थी।
बस मैं ये चाहती हूँ कि इस बार मैं जाऊँगी। अकेली। कोई रिश्तेदार नहीं, कोई डेली-डेली की ज़िम्मेदारी नहीं।
और हाँ… कोई ये नहीं बोलेगा कि ‘घर का क्या होगा?’”
निखिल ने अनायास हँसने की कोशिश की,
“अरे, इतना भी क्या है उस वर्कशॉप में? ऑनलाइन सुन लेना, रिकॉर्डिंग आ जाएगी किसी दिन…”
सिया ने बीच में ही रोक दिया,
“नहीं निखिल, हर चीज़ ऑनलाइन नहीं होती।
कभी तुमने सोचा है? शादी के तीन साल बाद बीएड किया, फिर दो साल ट्यूशन पढ़ाए, लेकिन पूरे शहर में कोई मुझे ‘मैम’ नहीं कहता—सब ‘घर की बहू’ ही कहते हैं।
मैं बुरा नहीं मानती, पर क्या मैं सिर्फ बहू, बेटी, माँ और पत्नी भर हूँ? सिया नाम का भी कोई इंसान है या नहीं?”
निखिल कुछ पल चुप रहा।
“तो तुम ये ट्रेनिंग करोगी, फिर नौकरी करोगी, फिर घर को कौन संभालेगा? माँ-पापा की दवा कौन देखेगा? आँचल और अंशुमन को होमवर्क कौन कराएगा?”
सिया की आवाज़ अचानक ठंडी हो गई,
“तुम लोग तो यह मानकर चल ही चुके हो कि दुनिया में हर ज़िम्मेदारी के पीछे मेरा नाम लिखा है।
तो सुनो—इस बार मैं दिल्ली जाऊँगी। अगर इस बीच घर में कोई पूजा हो, शादी हो, मेहमान आएँ, तो संभाल लेना।
जैसे मैं हर बार ‘मैनेज’ कर लेती हूँ, वैसे तुम लोग भी कर लेना।
मैंने फ़ॉर्म भर दिया है, टिकट भी बुक कर लूँगी।
और सबसे ज़रूरी बात—इस बार न तो कोई रोकेगा, न कोई मेरे फैसले को बदलवाएगा।”
इतना कहकर सिया अंदर चली गई।
निखिल बरामदे में बैठा, फर्श की दरारों में कुछ ढूँढने लगा। उसे लगा जैसे अचानक उसका घर उसके ही खिलाफ़ खड़ा हो गया हो।
रात का खाना लगने के समय सिया चुपचाप रसोई में लगी रही। सब्ज़ी की खुशबू, फुल्कों की फुगनी, बच्चों की हँसी—सब सामान्य था, बस सिया की चुप्पी असामान्य थी।
डाइनिंग टेबल पर सासु माँ यानी निर्मला देवी बैठे-बैठे बर्तन सजा रही थीं।
उन्होंने निखिल की उदासी को भांप लिया।
“क्या बात है बेटा?” उन्होंने रोटी पर घी लगाते हुए पूछा, “ऑफिस में कुछ हुआ या घर में? सुबह से सिया भी ज़्यादा बात नहीं कर रही। तुम दोनों में कुछ हुआ क्या?”
निखिल ने गिलास में पानी डालते हुए कहा,
“कुछ ख़ास नहीं माँ… बस आपकी बहू को अचानक दुनिया की सारी ट्रेनिंग और वर्कशॉप याद आ गई हैं। सात दिन की दिल्ली जाने की जिद कर रही है।”
सिया ने प्लेट में सब्ज़ी रखते-रखते हल्का-सा मुस्कुराकर कहा,
“माँ जी, जिद नहीं, इच्छा है।
आपको याद है न, जब मैं शादी करके आई थी, उस समय ही कहा था कि मुझे पढ़ाई और समाज सेवा में रुचि है। आप ही तो कहती थीं—‘बेटी, पढ़-लिखकर भी अगर औरों की मदद नहीं की तो पढ़ाई किस काम की?’
अब मौका मिला है, तो क्या गलत कर रही हूँ?”
निर्मला देवी ने भौंहें चढ़ाईं,
“बेटी, मैं मना तो नहीं कर रही। पर मई-जून का महीना, बच्चों की छुट्टियाँ, ऊपर से तेरे ससुर जी की शुगर की प्रॉब्लम, और अगले हफ्ते पड़ोस में सत्यनारायण की कथा, जिसमें हमारे घर से भोग जाएगा…
इन सब के बीच तुम कैसे जा पाओगी?
और सोचो—बड़ी भाभी (सुमन) को भी आराम चाहिए। वह अकेली कितने काम संभालेगी?”
सिया ने थाली टेबल पर रखते हुए कहा,
“माँ जी, बड़ी भाभी तो साल में दो बार नैनीताल चली जाती हैं—तीन-तीन हफ्तों के लिए। तब तो कोई नहीं सोचता कि उनके बिना किचन कैसे चलेगा।
जितनी बार वे जाती हैं, उतनी बार मैं कुछ ना कुछ मैनेज कर लेती हूँ।
तो क्या एक बार मेरा अपने लिए सात दिन निकालना इतना बड़ा अपराध है?”
सुमन, जो अभी-अभी अपने कमरे से मोबाइल हाथ में लेकर आई थी, तुरंत बोल पड़ी,
“लो, अब बात मुझ पर आ गई। मैं तो बच्चों की गर्मी की छुट्टी में मायके जाती हूँ, तब भी कहते हो कि ‘जरा घूम-फिर आओ, तुम बच्चों की पढ़ाई में लगी रहती हो साल भर।’
और तुम्हें क्या कमी है? तुम तो पूरे साल घर पर ही रहती हो, ट्यूशन पढ़ाती हो दो-चार बच्चों को, यही तो जीवन है तुम्हारा।”
सिया ने सुमन की ओर बिना गुस्से के देखा,
“भाभी, आप साल में कितनी बार ‘मे टाइम’ शब्द का इस्तेमाल करती हैं, आपको खुद पता होगा।
पर अगर मैं जिंदगी में पहली बार अपने लिए सात दिन मांग रही हूँ, तो सबको इतना भारी क्यों पड़ रहा है?”
निर्मला देवी ने निखिल की ओर देखा,
“तुम कुछ कहोगे बेटा? पिता जी को सुबह-सुबह टाइम पर इंसुलिन देना, डॉक्टर के पास ले जाना, बिजली-पानी, बैंक के काम… ये सब कौन करेगा?
सिया नहीं होगी तो घर सचमुच अधूरा पड़ जाएगा।”
निखिल ने गहरी सांस लेकर कहा,
“माँ, मैं भी तो यहाँ हूँ। क्या मैं सिर्फ ऑफिस जाने के लिए हूँ इस घर में?
एक हफ्ते में दुनिया नहीं बदल जाएगी।
सच बात तो ये है कि हमने सिया पर इतना भरोसा कर लिया है कि हमें लगता है उसके बिना घर चल ही नहीं सकता।
लेकिन अगर हम उसे मौका नहीं देंगे, तो उसे यह भी तो कभी महसूस नहीं होगा कि वह सिया है, केवल ‘बहू’ नहीं।”
निर्मला देवी चुप हो गईं। उनकी उम्र भर की मान्यताएँ और आज के समय की ज़रूरतें, दोनों आमने-सामने खड़ी थीं।
अगले दो-तीन दिन घर के माहौल में हल्का तनाव बना रहा।
सिया पहले की तरह ही सुबह चार बजे उठती, चूल्हा जलाती, पापा की दवाई देती, बच्चों को ऑनलाइन क्लास के लिए बैठाती, सुमन के लिए भी चाय भेज देती।
पर हर काम जैसे शरीर से हो रहा था, मन कहीं और था।
रात को लेटते समय निखिल ने सिया के कंधे पर हाथ रखते हुए धीरे से कहा,
“सिया… तुम टिकट बुक कर लो। मैं माँ से बात कर लूँगा।”
सिया ने उसकी ओर मुड़कर देखा,
“तुम सच में तैयार हो? घर का क्या होगा?”
निखिल ने हल्का-सा मुस्कुराकर कहा,
“देखा? जिसे सब ‘ज़िम्मेदार’ कहते हैं, वह भी आज यही सवाल पूछ रही है—‘घर का क्या होगा?’
जब सालों से तुम अकेली ये घर चला रही हो, तो एक हफ्ते हम सब मिलकर नहीं चला पाएँगे क्या?
मैं कोशिश करूँगा… और माँ को भी समझाऊँगा।”
सिया की आँखों में हल्की चमक उभरी,
“धन्यवाद, निखिल… तुमने शायद पहली बार मुझे सिर्फ पत्नी नहीं, इंसान की तरह देखा है।”
तीन दिन बाद सुबह, सिया किचन में काम करते-करते अचानक चक्कर खाकर गिर पड़ी।
गर्म दूध का भगोना उलटने से पहले ही सुमन दौड़कर अंदर आई और गैस बंद की।
“अरे सिया!… माँ, जल्दी आइए!” वह चिल्लाई।
निर्मला देवी घबराकर रसोई में पहुँचीं।
सिया का चेहरा पीला पड़ गया था, माथे पर पसीना था।
“इतनी सुबह से काम पर लगी रहती है, कुछ खाती-पीती भी है कि नहीं,” निर्मला देवी बड़बड़ाते हुए उसे पानी के छींटे देने लगीं।
डॉक्टर को बुलाया गया।
उन्होंने ब्लड प्रेशर चेक किया, कुछ सवाल पूछे, फिर गंभीर स्वर में कहा,
“शरीर सिर्फ थकावट की वजह से नहीं गिरता, मानसिक थकान भी शरीर को ऐसे ही तोड़ देती है।
आपकी बहू बहुत कुछ संभाल रही है। थोड़ा आराम और खुद के लिए समय नहीं दोगे तो यह हालत और बिगड़ सकती है।”
निर्मला देवी ने सिर झुका लिया।
जब डॉक्टर चला गया तो वह कमरे में अकेली बैठी, दीवार पर टंगी भगवान कृष्ण की तस्वीर को देखने लगीं।
कितने सालों से घर की लक्ष्मी के रूप में बहुओं की पूजा करने की बातें सुनती आई थीं,
पर कभी सोचा ही नहीं कि लक्ष्मी भी थक सकती है।
शाम को, जब सिया की आंख खुली, तो उसने देखा कि उसके पास बैठी निर्मला देवी उसकी हथेली सहला रही हैं।
ये वही हाथ थे, जो अक्सर घर की व्यवस्था के नाम पर नियमों की लकीरें खींचते थे।
“कैसी हो, बेटा?” निर्मला देवी ने धीमे से पूछा।
सिया ने होंठों पर हल्की मुस्कान लाई,
“ठीक हूँ, माँ जी… थोड़ी चक्कर आ गई थी बस।”
निर्मला देवी ने गहरी सांस ली,
“सिया… तू दिल्ली जाएगी। वर्कशॉप में।
ये कोई एहसान नहीं है मेरा, ये तेरी कमाई है।
मैंने आज पहली बार सोचकर देखा कि जिस घर के लिए तू इतना कुछ करती है, उस घर ने तुझे क्या दिया?
बस ‘बहू’ का नाम।
अब जो तेरा मन कहे, तुझे वह करने दूँगी।
बस एक बात—सात दिन के लिए जा रही है न?”
सिया के गले में जैसे कुछ अटक गया हो।
उसने तकिए से आधा उठकर माँ के गले लगना चाहा, पर शरीर ने साथ नहीं दिया।
निर्मला देवी खुद आगे बढ़कर झुक गईं,
“ले, आज पहली बार तूने मुझे गले नहीं लगाया, मैंने तुझे लगा लिया है।”
दरवाजे पर खड़ा निखिल यह दृश्य देख रहा था।
उसके कंधों पर से जैसे किसी ने बोझ उतार लिया।
उसे लगा, घर सचमुच घर जैसा लगने लगा है।
तीन दिन बाद, सिया की ट्रेन थी।
सुबह-सुबह पूरे घर में हल्की सी हलचल थी—
पर इस बार वह हंगामा नहीं, उत्साह था।
बच्चों ने अपनी-अपनी छोटी-छोटी लिस्ट बना रखी थी—
“मम्मी, मेरे लिए लाल रंग की पेंसिल लाना।”
“मेरे लिए इंडिया गेट की फोटो खींचना।”
सुमन ने भी सिया के बैग में चुपके से घर की बनी मठरी रख दी,
“वहाँ जाकर बाहर का कम खाना, बहन। अपने हाथ से तो तू कुछ बनाएगी नहीं, ये खा लेना।
और हाँ, लौटकर हमें भी सिखाना, कि यह वर्कशॉप वाली सिया कैसी होती है।”
सिया ने मुस्कुरा कर कहा,
“भाभी, वहाँ की सारी बातें, सारे नोट्स आप सबसे साझा करूँगी।
एक दिन हम सब मिलकर किसी गाँव की महिलाओं के लिए भी कुछ करेंगे—सपने देखना और अपनी ज़िंदगी खुद चुनना सिखाएँगे उन्हें।”
निर्मला देवी दरवाजे के पास खड़ी थीं, हाथ में आरती की थाली।
जाते-जाते उन्होंने सिया के सिर पर हाथ रखा,
“जाओ, बेटी। आज तू सिर्फ मेरे बेटे की पत्नी नहीं, इस घर की नाक नहीं,
आज तू अपने लिए जा रही है।
और याद रखना—यह घर तेरा इंतज़ार करेगा… पर तुझे वापस खींचकर लाने की कोशिश नहीं करेगा। खुद लौटना, अपने पंखों की उड़ान देखकर।”
स्टेशन तक निखिल ही सिया को छोड़ने गया।
रास्ते में उसने कार धीरे चलाते हुए कहा,
“सिया… एक बात कहूँ?”
“हूँ?” सिया खिड़की से बाहर खेतों की तरफ़ देख रही थी।
“जब तू लौटकर आएगी न, तो शायद तेरी आँखों की चमक अलग होगी।
वही चमक, जो कभी कॉलेज की डिबेट जीतने के बाद होती थी।
मैं चाहता हूँ, तू वैसी ही सिया बनकर लौटे।
और सुनो… अगर तू चाहो, तो बाद में किसी पार्ट टाइम प्रोजेक्ट से शुरू कर लेना।
घर थोड़ा adjust हो जाएगा।
हम सब सीख जाएँगे कि सिया के बिना भी गैस जल सकती है, दाल बन सकती है, बच्चों को होमवर्क कराया जा सकता है।”
सिया ने चौंककर उसकी ओर देखा,
“सच में कह रहे हो? कहीं दिल्ली की हवा लगने के बाद अपना फैसला बदल न लेना?”
निखिल ने हँसते हुए कहा,
“फैसला मैंने आज नहीं, उस दिन बदल लिया था, जब डॉक्टर ने बताया कि तू मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से थक चुकी है।
उस दिन पहली बार डर लगा—कि अगर इस भागदौड़ में तुझे खो दिया, तो यह घर सचमुच खाली हो जाएगा।
और… मुझे यह भी समझ में आ गया कि पति होना सिर्फ पैसे कमाना नहीं,
अपनी पत्नी के सपनों को भी जगह देना है।”
ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आ चुकी थी।
सिया ने बैग कंधे पर टाँगा, पानी की बोतल उठाई, और निखिल की आँखों में देखती हुई बोली,
“धन्यवाद, निखिल।
शायद तुम्हारे इस ‘हाँ’ ने मेरे कई सालों की ‘न’ को तोड़ दिया है।
अब देखना—जिस सिया को तुमने हमेशा घर के भीतर देखा है,
वह जब बाहर से कुछ सीखकर लौटेगी, तो सिर्फ अपने लिए नहीं,
इस घर के लिए भी नई रोशनी लेकर आएगी।”
ट्रेन धीरे-धीरे चल पड़ी।
सिया खिड़की से हाथ हिलाती रही,
निखिल प्लेटफॉर्म के किनारे-किनारे दौड़ता रहा,
और आँखों के कोने में जमा हुई नमी को ट्रेन की हवा ने चुपचाप सुखा दिया।
घर लौटते समय निखिल के दिमाग में एक और विचार आया।
उसने तय किया कि इस बार वह सिर्फ सिया के जाने के सात दिन नहीं गिनेगा,
बल्कि साल के कैलेंडर पर एक छोटा-सा नियम लिख देगा—
“हर साल, हर बहू, हर बेटी,
अपने लिए कुछ दिन ज़रूर चुनेगी।
क्योंकि जो अपने सपनों में जान डालती है,
वही घर की रूह को भी ज़िंदा रखती है।”
उधर, ट्रेन में बैठी सिया ने अपनी डायरी खोली और पहली लाइन लिखी—“आज पहली बार, मैं कहीं से भागकर नहीं,
अपने पास लौटने जा रही हूँ।”
समाप्त