तेरी छाँव रहे – रवीन्द्र कांत त्यागी

सत्तर की उम्र आते आते श्रीनिवास जी की जिंदगी का एक रूटीन बन बन गया था. सुबह शौच आदि से निवृत होकर गाय की सानी पानी करना. दूध दुहकर घर चले जाना और चूल्हे के पास धनवंती से बतियाते हुए दो ग्लास गुड़ की चाय पीना. फिर अपने बँटाई पर दिये खेतों का एक चक्कर लगाकर दस बजे तक घर लौट आना.

पर क्या किसी की जिंदगी सदा एक जैसी रही है या रहना संभव है. एक दिन सुबह उठकर घर पहुंचे तो पता चला की धनवंती नहीं है. अब इस दुनिया में नहीं है.

आँगन के मध्य बने हवन कुंड की ज्वाला शांत हो चुकी थी. तेहरामी में आए मेहमान लौट चुके थे. भोज और मेहमानों की खातिरदारी की व्यवस्थाओं से थके मांदे जयंत उसकी पत्नी सुधा और श्रीनिवास अपने सौ साल पुराने पुश्तैनी घर की दुकड़िया में ढिबरी की रौशनी में कंबल पाँवों पर डाले बतिया रहे थे.

“सुबह दस बजे निकल जाएंगे बाउजी. लंबा सफर है. शाम ही हो जाएगी.”

“अपना सामान बता दीजिये पिताजी. क्या क्या ले चलना है. अभी पैक कर लेंगे”. सुधा ने कहा.

“मेंरा सामान! मैं कहीं नहीं जा रहा. तुम लोग कल चले जाना. अब इस उम्र में मैं कहाँ जाऊंगा. अरे तेरी चाची है ना. मेरे लिए भी दो रोटियां डाल दिया करेगी. अब इस उम्र में कहाँ जाऊँगा”.

“डाल दिया करेगी! क्यों डाल दिया करेगी. जमीन के बंटवारे को लेकर पहले ही इतनी तो तल्खी हो चुकी थी उनसे. और फिर हम नहीं है क्या. क्यों दूसरों के आसरे रहेंगे आप. मुझे इस बारे में अब कुछ नहीं सुनना है. सुबह आप मेरे साथ शहर चलेंगे… बस”. जयंत ने बच्चों की तरह जिद करते हुए अपनी बात रखी.

“अरे ये खेतों की हवा और मिट्टी की महक सूंघे बिना मुझे नींद नहीं आती. छोटे छोटे फ़्लैट होते हैं वहां. मुझे यहीं रहने दो बेटा.”

“चार कमरों का घर है हमारा. ड्रॉइंग डाइनिंग अलग. आप के लिए एकदम अलग कमरे की व्यवस्था रहेगी. अखबार, टेलीवीजन सब है. आप का खूब मन लगेगा. मैं और सुधा किसी भी स्थिति में अब आप को यहाँ नहीं छोड़ सकते बाऊजी. मां थी तो बात अलग थी. सुबह आप हमारे साथ चल रहे हैं. बस”.

श्रीनिवास जी को शहर आये दस दिन हो गए थे. बेटा ड्यूटी चला जाता. वे अखबार का एक एक लफ्ज चाट जाते. यहाँ तक कि विज्ञापन भी कई कई बार देख लेते. फिर टेलीवीजन पर समाचार देखते रहते. मगर कितना. मुक्त हवाओं में लहलहाते खेतों के बीच उम्र गुजरने वाला मस्तमौला मन यहाँ बड़ी घुटन महसूस करता था. परम्परागत भारतीय परिवारों में ‘बहू’ से भी घर के वरिष्ठ जानो की एक निश्चित दूरी होना स्वाभाविक ही है.

एक दिन दोपहर का खाना खाने के बाद श्रीनिवास जी ने बाहर का दरवाजा खोला और बहू को पुकारकर कहा “बहू, क्या मैं जरा बाहर तक घूम आऊं. घर में पड़े पड़े दम सा घुट रहा है”.

“हाँ जाओ न बाउजी. मगर सोसाइटी से बाहर मत जाना. पार्क है, क्लब है”. सुधा ने किचन से ही जवाब दिया.

श्रीनिवास जी सहज ही सीढ़ियां उतरने लगे मगर बाद में अहसास हुआ कि घर तो छटी मंजिल पर है. इतनी सीढ़ियां तो शायद पूरी जिंदगी में नहीं उतरी थीं. बाहर निकलते ही वसंत की हरियाली में नहाया हुआ पार्क था. वहीं एक बैंच पर बैठ गए. सुहानी गुनगुनी धूंप, वनस्पति व फूलों की सुगंध ने मन मोह लिया. शहर आने के बाद पहली बार सुकून सा महसूस हो रहा था. आंख बंद करके ऐसा लगा जैसे अपने खेतों में पहुँच गए हों.

सूरज जब बुझने लगा और ठण्ड बढ़ने लगी तो पार्क का एक चक्कर लगाने का निश्चय करके टहलने लगे. कई पौधे पानी की कमी से सूख रहे थे. सूखे पत्तों को डालियों से हटाया नहीं गया था. श्रीनिवास जी के भीतर का किसान जाग उठा. उन्हें पेड़ों के साथ ये अन्याय भला कैसे बर्दाश्त हो सकता था. पास ही खुरपी चला रहे एक आदमी को आवाज दी “भइया सुनो. माली हो क्या तुम यहाँ”.

“जी साब, हम भी हैं. और लोग भी हैं”.

“ये देखो… पौधों को पानी देते हैं न, तो चिकनी मिट्टी ऊपरी सतह पर जम जाती है. उससे पौधों की जड़ों को बाहर की नमी और ऑक्सीजन मिलना बंद हो जाता है. तुम तो माली हो. ये बात पता होनी चाहिए. उनकी नलाई गुड़ाई नहीं करोगे तो पनपेंगे कैसे. नलाई करना जानते हो?

“जी… जी हाँ… नहीं, हम तो नए आये हैं. कभी नलाई गुड़ाई किये नहीं हैं. सुदरसन भइया को बुलाते हैं.”

“अरे. कैसे माली हो भाई. नलाई गुड़ाई नहीं जानते. क्या नाम है. कौन जिले के रहने वाले हो”.

“जी… सोनू नाम है… सोनू तिवारी. माली का काम कभी किये नहीं है मगर क्या करें साहब. शहर में नौकरी कहाँ है. बड़ी मुश्किल से ये काम मिला है”. माली ने अपना सा आदमी देखकर दिल खोल दिया.

“अरे भइया. कौन सी कंप्यूटर साइंस है. लाओ, खुरपी दिखाओ. हम बताते हैं तुम्हे”. और श्रीनिवास जी जमीन पर बैठकर पौधे की गुड़ाई करने लगे.

“रहने दीजिये चाचा, हम कर लेंगे. आप… आप को यहाँ कभी देखे नहीं है. बहार से आये हैं क्या”.

श्रीनिवास जी ने खुरपी चलाते हुए कहा “छह सौ तीन में जो जयंत सिंह रहता है ना, बेटा है मेरा”.

“अरे… अरे क्या कर रहे हैं चौधरी साब. हमारी नौकरी छुडवायेंगे क्या. हम कर लेंगे साहब”.

“अरे सोनू बेटा…. साहब वाहब कुछ नहीं. हम किसान आदमी हैं भाई. ये सब तो जिंदगी भर करते रहे हैं. और वो तुमने पहले क्या कहा था ‘चाचा’. बस वही ठीक है”.

शेष दोनों माली भी उत्सुकतावश वहीं आकर खड़े हो गए. सोनू ने परिचय कराया “अपने छह सौ तीन वाले सिंह साहब हैं न, उनके पिताजी हैं. बहुत बड़े आदमी है. जिमीदार हैं जिमीदार”. दोनों मालियों ने हाथ जोड़कर राम राम किया.

अब तो ये रोज का सिलसिला हो गया था. श्रीनिवास जी दोपहर का खाना खाकर पार्क में आ जाते. मालियों के आलावा सिक्योरिटी वाले भी उन्हें जान गए थे और उनके पास आकर बैठ जाते. अपने गांव के परिवार के और सुख दुःख के किस्से सुनाते. कभी कोई उनसे बड़े चाव और स्नेह से कहता “

आप की बहू ने आज खीर भेजी है चाचा. थोड़ा चख लीजिये तो हम को बहुत अच्छा लगेगा. और श्रीनिवास जी बिना झिझक कभी खीर, कभी कोई विशेष सब्जी या किसी के गांव से आई मिठाई शेयर कर लिया करते थे. अब उनका इस कंकरीट और भावविहीन मानव मुंडों के जंगल में खूब मन लग रहा था.

गुनगुनी धूप खिली हुई थी. गार्डन के सारे माली अपने अपने काम में जुटे हुए थे. श्रीनिवास जी बड़ी देर तक बैंच पर बैठकर धुप सेंकते रहे. तभी उनकी निगाह एक पौधे की सूखी हुई डाली पर गई.

उन्होंने सोचा कि इस निर्जीव डाली को पेड़ से अलग कर देते हैं. अभी डाली हाथ में पकड़ी ही थी कि रैंप पर एक लम्बी गाड़ी आकर रुकी. उसमे से एक सजे धजे नौजवान बाहर निकले. नौजवान ने चारों तरफ नजरें गुमाईं और श्रीनिवास जी की तरफ देखकर बोले “अरे सुनो, जरा ये सामान लिफ्ट तक पहुंचा दो”.

श्रीनिवास जी सन्न रह गए. अपनी जमीन पर स्वछंद, पूरे मालिकाना हक के साथ खेती करने वाले किसान थे और अपने गांव समाज के सम्मानित नागरिक थे. बचपन और जवानी में तो दोस्तों से अनौपचारिक तू तड़ाक होती थी किन्तु उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें एक सम्मान के दायरे में जीने की आदत हो चुकी थी.

गांव में उन्हें नाम लेकर पुकारने वाला भी कोई नहीं बचा था अब. मन लगाने को बागवानी करने और साधारण वेशभूषा के इस पक्ष की तो उन्हें कभी कल्पना ही नहीं थी. उन्होंने इधर उधर देखा कि कोई माली या चौकीदार हो तो उन्हें सहायता के लिए भेज दें किन्तु कोई दिखाई नहीं दिया.

आगंतुक ने दोबारा कुछ सख्त लहजे में पुकारा “अरे सुना नहीं क्या. ये सामान लिफ्ट तक ले जाना है”. इस बीच पिल्ला गोद में लिए लिपी पुती मेमसाहब भी नीचे उतर चुकी थीं और श्रीनिवास जी को हिकारत की निगाह से घूर रही थीं.

तभी इत्तेफाक से श्रीनिवास जी के बेटे की गाड़ी पीछे आकर रुकी. वो कुछ माजरा समझ पाते, इस से पहले ही नौजवान मिस्टर मल्होत्रा ने कहा “देखिये सिंग साहब. कैसा लोकतंत्र आ गया है अपनी सोसाइटी में. इस बुड्ढे से दो बार कहा कि सामान लिफ्ट तक ले जाना है मगर सुनता ही नहीं”.

“मिस्टर मल्होत्रा, वो जिन्हे आप बुड्ढा कह रहे हैं वो मेरे पिताजी हैं. क्या तुम्हारे संस्कारों में इतनी भी तमीज नहीं है कि किसी बुजुर्ग के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है. यही सिखाया है तुम्हारे माता पिता ने तुम्हे”.

मल्होत्रा एकदम स्तब्ध. मुँह से बोल न फूटें. फिर उनकी श्रीमती आगे आईं और स्थिति को सँभालने का प्रयास किया. “ओह, वी आर एक्स्ट्रीमली सॉरी मिस्टर सिंग. हमे पता नहीं था…. दरअसल इनके कपड़ों पर लगी मिट्टी देखकर कोई भी…. मगर….  आप का भी तो फर्ज बनता है कि आप के पिताजी…. “

“मेरा क्या फर्ज बनता है, ये मुझे मत सिखाइये मिसेज मल्होत्रा. मैं फख्र और अभिमान के साथ कहता हूँ कि वो मेरे पिता हैं और हम गांव से आये हुए किसान हैं. इनके मिट्टी लगे हुए इन्ही हाथों ने मेरा जीवन संवारकर, मुझे पढ़ा लिखकर योग्य बनाया है. अपने जीवन की संध्या में अपनी स्वेच्छा से सहज और अनुकूल जीवन जीने का अधिकार है उन्हें.

में बाधा क्यों बनूँ. नकली शान और छद्म खानदानी रहीसी दिखाने के लिए उन्हें बनावटी वेशभूषा में लपेटकर कमरे में कैद कर दूँ. मेरे घर का डैकोरेशन पीस हैं वो. वो वैसे जियेंगे, जैसे उन्हें कम्फर्टेबल लगता है. और…. और इंसान के व्यक्तित्व की गरिमा, उसका सामाजिक सम्मान और पात्रता परिधान में ढूंढते हैं

आप लोग. शर्म आनी चाहिए आप को अपनी इस तुच्छ सोच पर. अपने ऊपर झूंठी शान और दिखावे का ये जो छद्म आवरण ओढ़ रखा है न आप लोगों ने, उस से आजाद होकर देखिये. दुनिया बेहतर दिखाई देगी”.

जयंत का चेहरा क्रोध से जल रहा था. फिर थोड़ा जज्ब करते हुए पिता की तरफ मुखातिब हुए और आत्मीयता से बोले “चलो पिताजी. ऊपर चलते हैं. खाने का समय हो रहा है”. और दोनों पिता पुत्र धीरे धीरे लिफ्ट की और बढ़ गए.

  रवीन्द्र कांत त्यागी

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