टीस

भूमि को किताबों की खुशबू बचपन से भाती थी। स्कूल के दिनों में जब भी कोई नई कॉपी मिलती, वो सबसे पहले उसे सूंघती, फिर कवर चढ़ाती, और कोने में पेंसिल से अपना नाम लिखती — बहुत सलीके से। लेकिन ये सलीका सिर्फ कॉपियों में ही था, उसके अपने सपनों में नहीं… क्योंकि सपनों को यहाँ सलीके में रखना सिखाया ही नहीं गया था।

   करीबन उन्नीस सौ निन्यानवे का समय था ।बी.ए. सेकंड ईयर में थी वो, और उस उम्र में जहाँ कुछ लड़कियाँ अपने करियर के पहले पायदान पर खड़ी होती हैं, वहाँ भूमि को मंदिर ले जाया जा रहा था — “एक लड़का आएगा, देखेगा तुझे, तू मुस्कुरा देना थोड़ा सा”, दादी धीरे से कहती थीं, जैसे कोई रस्म निभा रही हों। कभी मंदिर, कभी किसी फोटो को दिखाकर, कभी चुपके से देख लेने की कोशिश — ये सब बातें उसे भीतर से घायल करती थीं।

उसे बहुत महसूस होता था… ऐसा नहीं कि वो बचपना कर रही थी, वो समझती थी रिश्तों का मतलब, पर इतना भी नहीं कि अभी से किसी की दुल्हन बन जाए।

 “मैं तो अभी छोटी हूँ, मेरी इतनी जल्दी शादी की बात क्यों?” — ये सवाल दिन में सौ बार उसके मन में गूंजता था, लेकिन आवाज़ बाहर कभी नहीं आती थी।

उसका शहर छोटा था। बसों के शोर, मंदिर के घण्टों, और लोगों के सवालों से भरा हुआ — लेकिन उन गलियों में किसी ने कभी उसकी आँखों में झाँक कर नहीं देखा था कि वो वहाँ क्या खोजती है। उसे पढ़ना था, कोई प्रोफेशनल कोर्स करना था, कुछ बनना था — लेकिन ना घर में, ना मोहल्ले में किसी ने ये बात उसके लिए सोची भी नहीं थी।

उसे याद आता था दिल्ली में रहने वाली बूआ का घर, जहाँ उसकी दोनों बहनें — नेहा और रिया —  उस टाइम पर भी एमबीए और फैशन डिज़ाइनिंग में जुटी थीं। 

दोनों उम्र में भूमि  से थोड़ी बड़ी थीं , पर आज तक उनकी शादी की बात तक नहीं हुई थी। 

और इधर, वो खुद — अब तक चोटी बाँधती लड़की — रोज़ दादी के कहने पर साड़ी में तैयार होकर किसी की नज़र के इंतज़ार में खड़ी कर दी जाती।

एक बार तो मन ने हठ पकड़ लिया — “क्या सिर्फ शादी ही वो जरिया है जिससे मैं खुद को साबित कर सकती हूँ? क्या मेरा कोई और सपना नहीं हो सकता?”

लेकिन ये हठ वो कहे किससे?

बूआ ने भी कभी मम्मी से नहीं कहा, “उसे मेरे पास भेज दो, मैं पढ़ा दूँगी।”

माँ भी चुप रहीं — शायद उनके भीतर भी यही बात चलती होगी, पर ज़ुबान कभी नहीं बनी।

घर की दीवारें कभी-कभी इतनी मजबूत हो जाती हैं कि अंदर रहने वाली लड़की की आवाज़ उन्हें चीर नहीं पाती।

भूमि चुप रही…

 और पड़ोस की औरतें जैसे आग ही लगाने के लिए बनी थीं। 

कोई ताना देती — “अरे, फलानी की बेटी तो भूमि से छोटी है, उसका रिश्ता तो हो भी गया, और आप अब तक कुछ कर भी नहीं रहे?” फिर कोई और औरत दादी के कान में कह जाती, “अरे ज़्यादा पढ़ा-लिखा दोगे तो लड़की हाथ से निकल जाएगी, देख लो ज़माना कैसा चल रहा है।” इन बातों का असर धीमे ज़हर की तरह होता था — भीतर रहता और बाहर से शांत लगता।

और फिर, एक दिन भूमि ने हिम्मत जुटाई। माँ के सामने जाकर बोली — “मुझे बाहर पढ़ने जाना है।” हाथ में एक फॉर्म था — किसी प्रोफेशनल कोर्स का, किसी नए रास्ते का। एक प्रोफेसर ने उसे ये सुझाव दिया था, मदद की थी, उम्मीद की एक लकीर थमाई थी। पर दादी ने जैसे ही फॉर्म देखा, छीन कर अलमारी में रख लिया — “नहीं पढ़ाना।” वही ठंडी, थकी हुई, लेकिन अंतिम आवाज़। जैसे कोई पत्थर की मुहर लगा दे।

माँ ने बहुत देर तक कुछ नहीं कहा। मानो कह रही हो मैं कुछ नहीं कर सकती ।

सास के कहने पर प्रोफ़ेसर को भी खरी खोटी सुनाई गई क्यों सपने दिखा रहे हो । बेटी के हाथ पीले होने दो ।

आज के बाद इस तरह का फ़ार्म मत लाना ।

ये देख उस दिन भूमि फूट फूट  कर रो पड़ी ।

 बुआ की बेटियाँ जब भी नानके आती और बाहरी दुनिया का बताती तो भूमि ने जो समझा महसूस किया कि दुनिया कितनी बड़ी है, और उसका अपना घर… कितना छोटा यानि वहाँ के लोगों की सोच छोटी । कितना फ़र्क़ है ।उसे हर पल ये महसूस होता रहा कि जिनसे हम प्रेम करते हैं, जिन्हें हम सबसे ज़्यादा चाहते हैं, वे ही कभी-कभी हमें सबसे कम समझते हैं। माँ और दादी — जिनकी गोद कभी उसका घर हुआ करती थी, अब जैसे उसे वहां से निकाल देना चाहती थीं।

उसे लगता, “मैं क्या बोझ हूँ उनके लिए? क्या वे सच में चाहती हैं कि मैं बस जल्दी से किसी की दुल्हन बन जाऊँ और उनका घर खाली कर दूँ?भूमि ने अपने भीतर एक गहरी चुप्पी पाल ली — वो चुप्पी जो बोलती नहीं, बस तड़पती है।

वो दिल से बुरी नहीं थी, कभी भी नहीं थी। वो सारा काम करती, सबके लिए सोचती, पर उसके साथ किसी ने वैसा नहीं सोचा। शायद यही सबसे बड़ी टीस होती है — जब हम अपनों से प्रेम करें, और वही अपने हमें सबसे अनजाना बना दें।

कभी-कभी रिश्ते तब ही बनते हैं, जब वक़्त चाहता है… और वक़्त ने भी शायद तब ही चाहा जब भूमि के भीतर की बेचैनी थोड़ी थमने लगी थी।और एक दिन एक ऐसा रिश्ता आया — जिसमें कोई दबाव नहीं था, कोई जबरदस्ती नहीं, कोई मंदिर नहीं, कोई बहाना नहीं… बस एक सीधी-सी मुलाकात, और एक सच्चा समझदार लड़का, जो भूमि की आँखों में उसे ही पढ़ सका।

शादी हुई — बिना शोरगुल के, बिना घुटन के।

और फिर, शादी के बाद जब उसने ज़िंदगी को अपने हिस्से से जीना शुरू किया, तो अपने भीतर एक वादा भी जन्मा — एक मौन व्रत —

 यदि मेरी बेटी हुई तो उसके साथ कभी वो नहीं होगा जो मेरे साथ हुआ था।”

उसने पति से बात कर बी.एड की तैयारी  शुरू की । घर कार्य के साथ पढ़ाई जारी रही और आखिर बी एड कर ली ।

उस दौरान भूमि के अंतर्मन में एक आवाज़ गूँजती थी ।

पीहर ने तो साथ नहीं दिया पर पति जिनसे मैं अभी मिली मेरे लिये कुछ कर दिखाने का ज़रिया बन गये ।

वो स्कूल में पढ़ाती रही — सालों तक, इम्तहान करवाती, टिफिन सजाती, होमवर्क जांचती — लेकिन जब घर लौटती, तो बेटी के सामने कभी ये फर्क नहीं रखा कि वो लड़की है, और उसकी उम्र बढ़ रही है।

बेटी को वो  खूब पढ़ा रही थी, सिर्फ़ किताबें नहीं — वो उसे अपने फैसलों की आज़ादी सिखा रही थी, आत्मसम्मान की परिभाषा सिखा रही थी।

कई वर्ष बीत चुके है।

घर में कभी शादी की बात नहीं होती, ना कोई ताना देता है, ना कोई पड़ोसन आग लगाने की हिम्मत करती है।

शादी तभी होगी जब बेटी चाहेगी। जब आत्मनिर्भर हो जाएगी ।

भूमि ने अपनी बेटी के लिए ऐसा घर बनाया था, जहाँ लड़की होना कोई बोझ नहीं, बल्कि एक पूरा अधिकार है।

अगर कभी उसकी बेटी को कोई अच्छा लड़का पसंद आए, और वह उसके साथ ज़िंदगी बिताना चाहे — तो भूमि की आँखों में सिर्फ़ एक बात होगी:

“अगर लड़का अच्छा है, तुम्हारी पसंद साफ़ है, और तुम्हारी मर्ज़ी शामिल है — तो मैं तुम्हारे साथ हूँ।”

क्योंकि भूमि जान चुकी थी —

प्यार का सबसे सच्चा रूप वही होता है, जहाँ ज़बरदस्ती नहीं प्रेम होता है । 

    “ जहाँ अंगुलियाँ मिल कर मुट्टी बन जाती है “

जहाँ हम अपनी अधूरी कहानियाँ अपने बच्चों पर थोपते नहीं — बल्कि उन्हें उनके हिस्से की कहानी पूरी करने का हक़ देते हैं।

शाम ढल रही थी।  कॉलेज से लौटकर भूमि ने बेटी की पढ़ाई का बैग एक ओर रखा और उसे आवाज़ दी —

“आर्या, ज़रा आना इधर…”

बेटी आई, हाथ में चाय का कप लिए।

भूमि ने चाय का एक घूँट लिया और हल्की मुस्कान से बोली —

“आज पढ़ाई की जगह तुम्हें एक बात बतानी है।”

आर्या हैरान हुई — माँ इतनी गंभीर होकर कभी नहीं बोलती थी।

भूमि ने बहुत धीमे से कहा —

“जब तू नहीं थी, तब मैं थी…

और तब मेरा कोई नहीं था जो मुझसे पूछता — ‘तू क्या चाहती है?’”

फिर चुप रह गई कुछ देर।

बेटी धीरे से माँ के पास आकर बैठ गई।

उसने माँ की हथेली थाम ली।

उस पल में जैसे दो पीढ़ियाँ एक-दूसरे को समझ गईं — बिना कोई और शब्द कहे।

और उस पल में भूमि को महसूस हुआ —

जो टीस उसने सहकर जी थी, वो अब विरासत नहीं बनेगी।

उसने सिर्फ़ एक बेटी नहीं पाली थी —

उसने एक पूरी नई सोच को जन्म दिया था।

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ज्योति आहूजा 

“बेटी का घर बसने दो ”

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