अपने ही घर में उन दरिंदों द्वारा तार-तार कर दी गई अपनी बेटी की अस्मिता पर माँ और बेटी दोनों ही जार-जार रो रही थीं। वहीं पास में बेटी के पिता लाचार एवं असहाय खड़े थे क्योंकि दोनों दरिंदें राजनीति एवं पैसे की दृष्टि से बहुत रसूखदार एवं ताकतवर थे। तीनों ही अपने आप को असहाय महसूस कर रहे थे।
माता-पिता दोनों एक अलग पीड़ादायक अंतर्द्वंद्व से भी जूझ रहे थे कि समाज में हमारी बेटियों के लिए उनके अपने ही घर से अधिक सुरक्षित और कौन सा स्थान हो सकता है ? अब अपने ही घर में बेटियों की असुरक्षा का सामना वे किस ‘ताकत’ से कर पाएंगे। वे पति-पत्नी केवल कुछ समय के लिए ही तो अपने निकटवर्ती मित्र से मिलने घर से बाहर गए थे
कि उन दोनों दरिंदों ने बेटी के अकेलेपन का फायदा उठाते हुए,अपनी व्यापारिक रंजिश की ‘ताकत’ उसकी लाज छीनकर दिखा दी थी और घर वापिस आने पर बेटी की चीत्कारों और उसकी घायल देह ने उन्हें निशक्त कर सुन्न कर दिया था।
एकाएक मां ने अपने माथे पर हाथ मारते हुए ‘मेरी फूटी तकदीर’ कहकर जब बदहवास सी अपनी बेटी को अपने आंचल में समेटना चाहा तो बेटी बिलख-बिलखकर रो रही पड़ी, ‘मां !मेरी तो तक़दीर ही फूटी थी जो आज मैं आप दोनों संग जाने को तैयार नहीं हुई। वरना …काश ! मैं घर में होती ही नहीं!’
लेकिन तभी सहसा एक ‘आंतरिक ताकत’ से माँ उठी, ‘नहीं बेटा हमारी तकदीर फूटी नहीं है ! हम हार नहीं मानेंगे। हम तकदीर के नाम पर विलाप नहीं करेंगे, अपितु उन दरिंदों को उनकी तकदीर का आइना दिखाएंगे।’ और ‘चलो उठो। अपने आप को संभालो’ कहते हुए मां ने तुरंत अपने तथा बेटी के आंसू पोंछे और एक दृढ़ संकल्प के साथ, सामाजिक शर्म और भय से बाहर निकलकर, अपने पति को पुलिस को फोन लगाने के लिए कहा।
दरअसल उन दरिंदों को सजा दिलाकर अब वह स्त्री एवं न्याय की ताकत भी दिखा देना चाहती थी।
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब।
मुहावरा तथा कहावतें लघुकथा प्रतियोगिता