“कमल बाबू, आख़िरी बार समझा देता हूँ… जो बात तय हुई है, वह निभानी पड़ेगी, वरना… फिर हम भी ज़िम्मेदार नहीं होंगे,”
लड़के के ताऊ हरिराम ने धीमी लेकिन कड़वी आवाज़ में कहा।
कमलदास ने धोती की गठान कसते हुए, मुस्कुराने की कोशिश की,
“अरे भाई साहब, आप तो घर के बड़े हैं, आपकी बात सिर–आँखों पर… जो आप लोगों ने कहा था, वही तो सब कर रखा है। मंडप, बैंड, मेहमानों की रुकने–खाने की व्यवस्था… सब आपकी ही पसंद से हुआ है।”
हरिराम ने आँखें तरेरीं,
“देखिए, गलती आपकी ही है… ज़्यादा मेहरबान हो गए, पूरे गाँव में बढ़–चढ़कर बता दिया कि बड़े बाप की लड़की है, धूमधाम से शादी होगी। अब बारात में भी तो लोग बढ़ गए हैं… और ऊपर से…”
वह थोड़ा झुककर बोले,
“आपको याद है न, दरवाज़े पर पहुँचते ही बारातियों के पाँव पड़ते वक़्त हर थाली में सोने की अंगूठी रखनी है? हम ख़ाली थाली लेकर नहीं खड़े हो सकते।”
कमलदास का चेहरा सफेद पड़ गया। पसीने की महीन बूंदें उनकी कनपटी पर उभर आईं।
“स…सोने की अंगूठी?” वह हकलाए,
“हरिराम जी, बात तो बस स्टील के गिलास और सूखे मेवे की हुई थी… अंगूठी वाली तो कोई बात नहीं…”
हरिराम ने तुनककर कहा,
“अरे, आपको याद नहीं तो हम क्या करें? मैं और रामपाल (लड़के के पिता) बैठे थे, आपने खुद कहा था कि ‘हम तो अपनी इकलौती बेटी की शादी में सोने की थाली भी न्योछावर कर देंगे।’ अब हमने शब्दों में लचीलापन थोड़ा-बहुत कर दिया, थाली की जगह अंगूठी ही सही। आखिर इज़्जत का सवाल है। मेरे लड़के की बारात है, कोई हंड़िया नहीं कि चुपचाप चला जाए।”
पास खड़े कुछ रिश्तेदार भी फुसफुसाने लगे,
“हाँ, हमने भी तो सुना था कमल भइया के मुँह से… बहुत शान से कह रहे थे…”
“अब बात मुँह से निकल गई, तो निभानी तो पड़ेगी…”
कमलदास ने बेबस होकर इधर–उधर देखा। सामने बने पंडाल में उनकी पत्नी सवित्री मेहमानों को चाय–नमकीन परोसवा रही थी। बेटी नेहा अपने कमरे में बहनों के साथ बैठी, हाथों में मेहंदी लगाए, लाज से झुकी होगी।
उनकी आँखों के सामने वह दिन घूम गया, जब नेहा को इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिला था और उन्होंने सीने पर हाथ रखकर कहा था,
“तू मेरे लिए बेटा भी है, बेटी भी। पढ़–लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाना, बस यही मेरी दहेज है।”
सोने की अंगूठियों की कल्पना ने जैसे उनके पैरों से ज़मीन खींच ली।
“हरिराम जी, सौ अंगूठियाँ… ये कैसे… इतनी बड़ी रकम… अभी…”
हरिराम ने तीखी हँसी के साथ कहा,
“सौ क्यों, बारातियों की संख्या डेढ़–दो सौ भी हो सकती है, आदमी ऊपर–नीचे होता रहता है। आप अग्रिम सोचिए। और सुनिए, इसमें हमारा कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं है, ये तो ‘रीति’ है, ‘मान–सम्मान’ है। अगर न निभा पाएँगे, तो बात हमारे बीच ही नहीं रहेगी, फिर गाँव में क्या मुँह दिखाएँगे?”
कमलदास ने कुछ पल के लिए आँखें बंद कर लीं। सालों से जमा की गई थोड़ी-बहुत बचत, नेहा की पढ़ाई, छोटे बेटे राहुल की ट्यूशन फ़ीस… उन्होंने कभी भी बेटे–बेटी में भेद नहीं किया था। अब इस उम्र में घर गिरवी रखकर सोने की अंगूठियाँ ख़रीदना?
उन्होंने सूखे होंठों पर ज़ुबान फेरते हुए कहा,
“हरिराम जी, सच–सच कहूँ तो मेरे पास इतना सब करने की ताकत नहीं है। मैंने जेवर नेहा के लिए बनवाए, थाली–बर्तन, फ़र्नीचर… जितना हो सका, किया। पर आपके कहे अनुसार हर बाराती को सोने की अंगूठी… ये तो मेरे बस से बाहर की बात है।”
हरिराम का चेहरा तन गया,
“तो साफ़–साफ़ बोलिए कि आप अपने होने वाले समधियों की इज़्ज़त नहीं कर सकते। रामपाल, तेरे सामने कह रहा हूँ—देख ले, बात तय थी, और अब ये मुकर रहे हैं।”
रामपाल, यानी दूल्हे के पिता, अब तक चुपचाप खड़े थे। चेहरा थोड़ा असमंजस में था, पर भाई की बात के सामने ज़्यादा बोलना उन्हें भी भारी लगता था।
“हरिराम भइया…,” वह धीमी आवाज़ में बोले,
“अब शादी का दिन है, इतना बड़ा… अब ऐसी बात…”
“तुम तो हमेशा ही ढीले रहते हो, तभी तो लोग सिर पर चढ़ जाते हैं। तुम चुप रहो, बात मैं निपटाऊँगा,” हरिराम ने झिड़क दिया।
कमलदास का सिर चकराने लगा। पंडित जी शगुन की थाली सजवा रहे थे, बरात गाँव की गली में बैंड–बाजे के साथ चढ़ते–उतरते नाच रही थी।
उधर, नेहा के कमरे में उसकी सहेलियाँ ठहाके लगा रही थीं। राहुल बाहर पटाखों की आवाज़ सुनकर दौड़ रहा था। सवित्री हर थोड़ी देर में आँगन, रसोई, मेहमान–सबकी तरफ़ नज़रें दौड़ा रही थीं।
अचानक लगा, जैसे इस पूरे हँसी–मज़ाक के बीच कोई अदृश्य रस्सी उनकी गरदन कस रही हो।
“कमल जी,” हरिराम ने फिर कहा,
“हमारा साफ़ कहना है, बारात दरवाज़े पर पहुँचेगी तो स्वागत सोने की अंगूठियों से हो, वरना हम सब वापस पलट जाएँगे। बात खून–पसीने की नहीं, इज़्ज़त की है।”
“बरात वापस…?”
ये दो शब्द कमलदास के सीने में भाले की तरह उतर गए।
उनकी आँखों के सामने नेहा का चेहरा घूम गया—कितनी उम्मीद से बात तय हुई थी। लड़का, अर्थात आदित्य, शहर की कंपनी में इंजीनियर था, नेहा की ही तरह पढ़ा–लिखा, समझदार दिखता था। रिश्ते के समय उसने बड़ी सादगी से कहा था,
“मास्टर जी, हमें कोई दहेज नहीं चाहिए, बस नेहा को उसके सपनों समेत अपने घर ले जाना चाहता हूँ।”
तब भी हरिराम ने ही कंधे पर हाथ रखकर कहा था,
“अरे, दहेज–वहेज नहीं, पर जो भी आप अपनी खुश़ी से करें, वो तो रखेंगे ही। हमारे खानदान की परंपरा है, बारात की सेवा शान से होनी चाहिए।”
उस समय “सेवा” बातें मिठास में ढँकी हुई लगी थी, आज उसकी असलियत चुभती काँटों जैसी नज़र आ रही थी।
कमलदास का मन किया कि वहीं जमीन पर बैठ जाए और पगड़ी उतार कर उनके पैरों में फेंक दे।
उसी समय राहुल भागता हुआ आया,
“पापा! पापा! बारात चौराहे पर पहुँच गई है, बैंडवाले ‘बैंड बजा रहे हैं, देखिए ना, कितनी मस्ती हो रही है!”
कमलदास ने बेटे की चमकती आँखों को देखा, और भीतर से टूटकर भी बाहरी दुनिया के लिए मुस्कुराने की कोशिश की,
“हुँह… अच्छा… तू जा, मेहमानों की मदद कर। मैं अभी आता हूँ।”
राहुल भाग गया, और कमलदास वहाँ से कुछ दूर, पुराने नीम के पेड़ की तरफ़ चले गए।
नीम के नीचे सूखी मिट्टी पर बैठकर उन्होंने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया।
“हे भगवान, अब क्या करूँ? बेटी का जीवन दाँव पर है। अगर मैं इस अन्याय के आगे झुक जाऊँगा, तो मेरी नज़र में मैं खुद गिर जाऊँगा… अगर ना झुकूँ, तो शादी टूट जाएगी, लोग कहेंगे—कमल मास्टर दहेज की वजह से बेटी की शादी तुड़वा बैठे।”
आँखों से आँसू रिसने लगे। उन्होंने जल्दी से रूमाल निकाला, माथे के पसीने के साथ आँसू भी पोंछ डाले।
उसी समय किसी ने पीछे से धीरे-से आवाज़ लगाई,
“कमल अंकल…”
उन्होंने पीछे मुड़कर देखा—दूल्हा आदित्य खड़ा था। घोड़ी से उतरकर वह बिना गहमा–गहमी के, चुपचाप यहाँ आ पहुँचा था। सिर पर सेहरा, कंधे पर साफ़ा, चेहरे पर चिंता और आँखों में दृढ़ता।
“अरे बेटा… तू यहाँ? बारात…”
आदित्य ने अपना सेहरा हल्का-सा ऊपर किया,
“अंकल, मैंने थोड़ी देर पहले ही चाचा जी और पापा को आपसे बात करते देखा। उनकी आवाज़ धीमी थी, पर बातें साफ़ सुनाई दे रही थीं। सोने की अंगूठियाँ, बारात का लौट जाना… सब समझ गया हूँ।”
कमलदास घबराकर उठने लगे,
“न… न… बेटा, तुम दूल्हे हो, आज तुम्हें इन झंझटों की चिंता नहीं करनी चाहिए। ये सब बड़े लोगों के बीच की बात है…”
आदित्य ने आगे बढ़कर उनके कंधे पकड़ लिए,
“आज सबसे बड़ी बात मेरी और नेहा की है, अंकल। ये रिश्ते हमारे बीच भी तो हैं। अगर मेरे नाम पर कोई ऐसी माँग रख रहा है, जो मुझे खुद ग़लत लगती है, तो चुप रहना भी तो अपराध है।”
कमलदास ने असमंजस में उसकी तरफ देखा,
“पर बेटा, तेरे चाचा जी… तेरे पिताजी… अगर उन्हें बुरा लग गया तो? शादी का माहौल…”
“अंकल,” आदित्य ने उनकी बात काटते हुए कहा,
“आपने नेहा को पढ़ाया, उसे अपने पैरों पर खड़ा किया। आप नेहा के लिए ‘दहेज’ नहीं, ‘डिग्री’ जुटाते रहे। वो भी दहेज माँगने वालों के घर भेजूँ, यह कैसे होने दूँ?”
कमलदास ने अनजाने में आदित्य का हाथ कसकर पकड़ लिया।
“तुम क्या करना चाहते हो, बेटा?”
आदित्य ने गहरी साँस ली,
“सबके सामने कहूँगा—दूल्हा होने के नाते, मुझे कोई सोने की अंगूठी नहीं चाहिए, न मेरे मेहमानों को। यदि किसी को सिर्फ़ अंगूठी के लिए यहाँ आना है, वो अभी घर जा सकता है। मैं नेहा से शादी करूँगा तो सिर्फ़ उसकी इंसानियत से, उसके गुणों से, न कि उसके पिता की आर्थिक क्षमता से।”
कमलदास ने घबराकर इधर–उधर देखा,
“लोग क्या कहेंगे?”
“लोग रोज़ कुछ न कुछ कहते रहते हैं, अंकल,” आदित्य मुस्कुराया,
“आज वक्त है कि कोई एक घर तो कहे—‘दहेज की माँग ग़लत है।’ अगर हम ही डर गए, तो बदलाव कौन लाएगा?”
कमलदास की आँखें भर आईं। उन्होंने आदित्य का चेहरा दोनों हाथों से पकड़ा,
“भगवान तुझे खुश रखे, बेटा। आज तूने मुझे अपने ही सामने ऊँचा कर दिया। मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी ऐसी जगह जाए जहाँ उसकी इज़्ज़त उसकी पढ़ाई से नहीं, उसके पिता की जेब से नापी जाए। लेकिन…”
वे फिर ठिठक गए,
“तुझे अपने घरवालों का डर नहीं लगता?”
आदित्य ने हल्के से सिर झुकाया,
“डर तो लगेगा, अंकल। बहस होगी, विवाद होगा, शायद कुछ रिश्तेदार मुझसे नाराज़ भी हो जाएँ। पर अगर मैं सच में नेहा से प्यार करता हूँ, तो उसके पिता को इस तरह टूटते हुए देखकर चुप तो नहीं रह सकता।”
“तू… तू सच में नेहा से इतना प्यार करता है?”
“हाँ, अंकल। अगर ऐसा न होता, तो मैं भी सेहरे के पीछे छुपकर चुपचाप सोने की अंगूठियों का तमाशा देखता रहता।”
कमलदास ने आँखें मूँद लीं। उनके भीतर की काँपती आवाज़ स्थिर होने लगी।
“ठीक है, बेटा। जो तेरे मन में है, वही सही है। चल, अब जो भी कहना है, सबके सामने ही कहना।”
आँगन में अब तक ढोल–नगाड़ों की आवाज़ और तेज़ हो चुकी थी। नेहा के मामा बाहर दुआर सजाने में लगे थे। सवित्री पूजा की थाली लेकर तैयार खड़ी थी, किरण झिलमिलाते दीये में तेल डाल रही थी।
दरवाज़े पर बारात रुक गई। लड़कों की टोलियाँ नाच–नाचकर पसीने से तर–बतर हो चुकी थीं। हरिराम ने छड़ी से ढोल वाले को इशारा किया,
“बस–बस, अब थोड़ी देर रुक, अब रस्में होंगी।”
उन्होंने कमलदास की ओर देखा—
“क्या हुआ कमल जी, सोने की अंगूठियाँ तैयार हैं न?”
पूरे मोहल्ले की नज़र उस ओर उधर घूम गई। कुछ लोगों को अब तक असली बात का अंदाज़ा नहीं था, पर “सोना” शब्द कानों तक पहुँचते ही कानाफूसी शुरू हो गई।
कमलदास आगे बढ़े, पर बोलने से पहले आदित्य ने धीरे से उनका हाथ पकड़कर रोक दिया,
“अंकल, पहले मुझे कुछ कहने दीजिए।”
सबकी नज़र अब दूल्हे पर थी। सेहरे के मोतियों के बीच से दिखती उसकी आँखें अब साफ़, स्थिर थीं।
“चाचा जी, पापा…” आदित्य ने ऊँची लेकिन शांत आवाज़ में कहा,
“मैंने सुना कि आपने बारातियों के लिए सोने की अंगूठियाँ माँगी हैं। वो भी इस शर्त पर कि अगर ये नहीं दिया गया, तो बारात वापस लौटा दी जाएगी। क्या ये सच है?”
हरिराम थोड़ा सकपकाए, पर तुरंत सँभलते हुए बोले,
“अरे, ये तो खानदानी रिवाज़ है, बेटा। हमारी इज़्ज़त का सवाल है। दूल्हे के घरवालों की कुछ तो पैचान होनी चाहिए न!”
आदित्य ने सीधे उनकी आँखों में देखा,
“इज़्ज़त क्या है, चाचा—इंसान के व्यवहार से जुड़ी है या सोने की अंगूठियों से?”
हरिराम ने भौंहें चढ़ाईं,
“अब तुम हमसे इज़्ज़त का मतलब पूछोगे? हमने बरातें देखी हैं, तुमसे ज़्यादा। आज के लड़कों को आधुनिकता चढ़ गई है, मगर परंपरा का रस्म–रिवाज़ भूल गए हैं।”
आदित्य ने मुस्कुराकर कहा,
“परंपरा वही अच्छी होती है, जो लोगों की खुशियों को बढ़ाए, किसी की हंसी न छीने।
कमल अंकल ने हमें खुले दिल से स्वीकार किया, हमारी हर माँग पूरी की। बल्कि हमने तो कोई माँग की ही नहीं… बस एक सादा, सम्मानजनक शादी चाही थी।
मैंने नेहा से शादी के लिए ‘हाँ’ इसलिए कहा क्योंकि वो पढ़ी–लिखी है, अपनी सोच रखती है, दूसरों की मदद करना चाहती है। अगर आज उसकी शादी के दिन हम उसके पिता का सिर नीचा करते हैं, तो कल मैं नेहा की नज़रों में कैसे देखूँगा?”
चारों तरफ़ खामोशी फैल गई। पास में खड़े कुछ युवाओं ने चुपचाप सिर हिलाया।
हरिराम ने तुनककर कहा,
“तो तू कह क्या रहा है स्पष्ट कर। सोने की अंगूठी नहीं चाहिए तो मत चाहिए, परंतु बारात की तो इज़्ज़त रखनी पड़ेगी न!”
“इज़्ज़त मैं अपने तरीके से रखूँगा, चाचा,” आदित्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा,
“जो भी बाराती मेरे साथ यहाँ आए हैं, वो मेरे मेहमान हैं, मेरे दोस्त, मेरे रिश्तेदार। मैं उन सबके सामने घोषणा करता हूँ—
जो भी इस शादी में सिर्फ़ सोने की अंगूठी के लिए आया है, कृपया अभी वापस लौट जाए। यहाँ सिर्फ़ वो लोग रहें, जिन्हें नेहा और मेरे इस रिश्ते की खुशी है, न कि किसी लालच की उम्मीद।”
एक मिनट के लिए सन्नाटा ऐसा छाया, जैसे हवा भी थम गई हो।
पीछे से किसी ने फुसफुसाकर कहा,
“क्यों, नंदू, तू सोने की अंगूठी लेने आया है क्या?”
“अरे नहीं रे, हम तो बस नाचने आए हैं दूल्हे के साथ,” हँसी की हल्की लहर दौड़ गई।
कुछ बुजुर्ग एक-दूसरे को देखते रहे। दूर खड़े बच्चों को कुछ समझ नहीं आ रहा था, पर उनके चेहरों पर उत्सुकता थी।
हरिराम ने अचकचाकर चारों ओर देखा।
“ये तू क्या तमाशा कर रहा है आदित्य? लोग हँसेंगे हम पर!”
आदित्य ने शांति से कहा,
“लोग हँसेंगे अगर हम दहेज माँगकर गरीबों को लूटेंगे। लोग सम्मान करेंगे अगर हम दहेज की रस्म ख़त्म करने की शुरुआत करेंगे।
आज अगर मैंने चुपचाप सोने की अंगूठियाँ ले लीं, तो कल मेरी छोटी बहन की शादी में मैं भी किसी और से ये माँग रखने की हिम्मत करूँगा। मैं ऐसी परंपरा आगे नहीं बढ़ाना चाहता।”
रामपाल ने अब तक चुप्पी साध रखी थी। उन्होंने एक पल को अपने भाई की तरफ़ देखा, फिर बेटे की तरफ़।
“हरिराम भइया…” उन्होंने भारी आवाज़ में कहा,
“आदित्य सही कह रहा है। जब रिश्ता तय हुआ था, मैंने खुद कहा था—दहेज नहीं लेंगे। आज अगर सोने की अंगूठी माँगकर लड़की वालों पर बोझ डालेंगे, तो मेरी ही बात झूठी साबित होगी।
मैं अपने बेटे का सिर ऊँचा देखकर खुश हूँ। ये हमारी नहीं, इसकी जीत है। जो इस शादी में सिर्फ़ रिश्ते की खुशी के लिए आया है, वही हमारे लिए काफ़ी है।”
कमलदास के गले में कुछ उभर आया। उन्होंने folded hands से रामपाल की तरफ सिर झुका दिया।
हरिराम ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला, पर साथ खड़े कई रिश्तेदारों की नज़रें अब उस पर सवाल बनकर टिक गई थीं। जो लोग अभी तक मन ही मन सोने की अंगूठी के स्वप्न देख रहे थे, अब उन्हें अपनी सोच पर शर्म-सी महसूस होने लगी।
उनमें से एक बुजुर्ग, जो हमेशा हर बात पर टिप्पणी देने के लिए प्रसिद्ध थे, आगे बढ़कर बोले,
“हरिराम, यह लड़के की बात सही है। हम तो आए हैं इसके जीवन के नए अध्याय का साक्षी बनने, सोने की अंगूठी तो हमने खुद भी कभी नहीं देखी। बरात तो हमारी इज़्ज़त है, पर दहेज हमारी ज़िद नहीं होना चाहिए। चलो, रस्म शुरू करो, बहुत देर हो रही है।”
धीरे–धीरे भीड़ का रुख बदल गया। किसी ने “दहेज मुक्त विवाह की जय हो” कहा, किसी ने तालियाँ बजाईं, कुछ लोग चुपचाप मुस्कुराने लगे।
हरिराम ने परिस्थितियों को भाँपते हुए खुद को सँभाला।
“ठीक है भाई, अगर तुम सबको यही ठीक लगता है तो… मैं कौन होता हूँ बीच में आने वाला? चलो, लड़की वाले को बुलाओ, जूता छुपाई, द्वार–पूजा सब रस्में होंगी, बस सोने की अंगूठी वाला सवाल यहीं ख़त्म।”
भीड़ में फिर से मुस्कान फैल गई। बैंड वाले ने नया गाना शुरू कर दिया—
“आज मेरे यार की शादी है…”
सवित्री की आँखों से आँसू बह निकले, जब नेहा को लेकर वह दुआर तक आई। नेहा ने एक पल के लिए आदित्य की तरफ देखा—उसकी आँखों में सम्मान की एक नयी चमक थी, जो किसी भी सोने की अंगूठी से हजार गुना अधिक कीमती थी।
कमलदास ने मन ही मन सोचा,
“बहुत लोग कहते रहे, ‘बेटी बोझ होती है’, ‘विदा करके चैन मिलता है।’ पर आज तो लग रहा है कि मैंने बेटी नहीं, अपने घर की इज़्ज़त, अपने सिद्धांतों की जीत विदा की जगह नए घर भेजी है। और दामाद… नहीं, बेटा मिला है।”
पूरी शादी हँसी–मज़ाक, गीत–संगीत, थोड़ी–बहुत नोकझोंक के बीच संपन्न हो गई।
विदा के समय नेहा ने पिताजी से लिपटते हुए कहा,
“पापा, आपने हमेशा सिखाया कि गलत के आगे झुकना नहीं। आज आदित्य ने आपकी सीख को सच्चे अर्थों में निभाया है। अब मुझे कोई डर नहीं, मैं जानती हूँ कि जिस घर जा रही हूँ, वहाँ मेरी कीमत मेरे गुणों से होगी, आपके पैसे से नहीं।”
कमलदास ने उसकी पीठ सहलाई।
“जा बेटी, खुश रह। आज तुम दोनों ने मिलकर ये साबित कर दिया कि शादी दो परिवारों का नहीं, दो विचारों का मिलन है। और जब विचार साफ़ हों, तो दहेज जैसी गंदगी ख़ुद ही बह जाती है।”
बारात चली गई, ढोल की आवाज़ दूर तक सुनाई देती रही। पर उस दिन का किस्सा यहीं खत्म नहीं हुआ।
गाँव के कई घरों में उस रात ये बात चर्चा का विषय बनी—
“सुना, कमल मास्टर की लड़की की शादी में सोने की अंगूठियों का मामला उठा था?”
“हाँ, पर दूल्हे ने खुद ही मना कर दिया… वाह रे जमाना, अब नए लड़के ही पुराने रिवाज़ तोड़ रहे हैं।”
कुछ बुज़ुर्ग खीझे,
“आजकल के लड़के–लड़की बहुत ज़्यादा बोलने लगे हैं…”
पर वहीं बैठे एक और बुज़ुर्ग मुस्कुराकर बोले,
“चले करो, अगर इसी बहाने दहेज जैसी बीमारी कम हुई तो हमको क्या तकलीफ़? कमल मास्टर ने पूरी ज़िंदगी बच्चों को ईमानदारी पढ़ाई, आज उसका फल उसने अपनी बेटी की शादी में देख लिया। हम तो कहेंगे—जय हो ऐसे दूल्हे की… और जय हो ऐसी बेटी वाले बाप की।”
उस रात, आँगन में अकेले खड़े कमलदास ने आसमान की ओर देखा। छोटे–छोटे टिमटिमाते तारे उन्हें जैसे आँखों से गले लगा रहे थे।
“बहुत डर गया था आज,” उन्होंने मन ही मन सोचा,
“पर अच्छा हुआ कि बरात लौटाने वाला डर, अपनी बेटी की आँखों में उतरते सम्मान के आगे छोटा साबित हुआ।”
हवा के हल्के झोंके में नीम के पत्ते सरसराए, जैसे कह रहे हों—
“जब कोई पिता अपने सिद्धांतों की पगड़ी नहीं उतारता, तो भगवान खुद उसकी लाज रख लेते हैं।”
मूल लेखिका
रश्मि प्रकाश