गुरुग्राम की ऊँची इमारतों के बीच “गैलेक्सी हाईट्स” नाम की एक सोसाइटी थी। ऊपरी मंज़िल पर रहने वाली अन्विता मेहता की ज़िंदगी चमचमाती लाइटों जैसी थी—शानदार, तेज़ और ख़ूबसूरत। उसके पिता रजत मेहता बड़े उद्योगपति थे और माँ संध्या मेहता समाजसेवा से जुड़ी थीं।
इसी सोसाइटी की सबसे निचली मंज़िल पर कमला देवी अपने परिवार के साथ रहती थी। कमला यहाँ काम करने वाले घरेलू सहायकों में से एक थी और उसकी छह साल की बेटी काया अकसर अपनी माँ के साथ काम पर जाया करती और चुपचाप कोनों में खड़ी होकर उस दुनिया को देखती, जो उसकी नहीं थी। अन्विता की टेबल पर रंग-बिरंगे खिलौने सजे रहते, जिन्हें देख काया की आँखें चमक उठतीं।
हर शाम अन्विता को बालकनी से काया गुलमोहर के पेड़ के नीचे खेलती हुई दिखाई देती, उसकी आँखें ऊपर अन्विता की बालकनी में टँगे रंग-बिरंगे टेडी बियर, गुड़ियों और किताबों की ओर ललचाई नज़रों से देखतीं।
एक दिन अन्विता ने नीचे झाँकते हुए गुलमोहर के पेड़ के नीचे खड़ी काया को आवाज़ दी—
“क्या तुम्हें टेडी बियर पसंद है?”
काया झेंप गई, फिर धीरे से सहमति में सिर हिलाया।
अन्विता ने झट से एक गुलाबी टेडी नीचे गिरा दिया।
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“अब ये तुम्हारा है!”
बस, उसी शाम गुलमोहर की छाँव में एक रिश्ता पनपा—एक अमीर घर की लड़की और एक घरेलू सहायिका की बेटी के बीच का, जो हर सामाजिक दीवार को नज़रअंदाज़ कर स्नेह में ढलता चला गया।
अन्विता हर शाम स्कूल से लौटती तो काया का इंतज़ार करती। दोनों सोसाइटी के पार्क में खेलतीं। कभी-कभी अन्विता उसे अपने कमरे में बुला लेती, ड्रॉइंग सिखाती, पियानो बजाना दिखाती और काया उसे मिट्टी के खिलौने बनाना सिखाती।
“दीदी, ये गाने कैसे बजते हैं?” खुशबू की आँखों में हमेशा सीखने की ललक होती।
अन्विता हंसकर कहती, “आओ, मैं सिखाती हूँ!”
लेकिन इस दोस्ती को समाज इतनी आसानी से कहाँ अपनाने वाला था?
एक दिन, संध्या मेहता ने देखा कि काया उनकी महँगी कालीन पर बैठी है। उनकी आँखें संकुचित हो गईं।
संध्या मेहता ने कमला को सख्त लहजे में कहा, “देखो, काम पर आओ तो आओ, लेकिन अपनी बेटी को बार-बार घर मत भेजा करो।”
कमला की आँखें झुक गईं, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया और काया सहमकर पीछे हट गई।
उस दिन से काया अन्विता से दूर-दूर रहने लगी। पार्क में भी उसके पैर ठिठक जाते।
अन्विता ने कई बार पूछा, “क्या हुआ काया? मुझसे बात क्यों नहीं कर रही?”
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पर काया बस मुस्कुराकर कहती, “कुछ नहीं दीदी, बस काम में माँ की मदद करनी होती है।”
समय बीतता गया। अब अन्विता कॉलेज जाने लगी थी और काया भी माँ के साथ घरों में काम करने लगी।
एक दिन, रजत मेहता को एक बड़े बिज़नेस प्रोजेक्ट के लिए मुंबई शिफ्ट होना पड़ा। परिवार ने गुरुग्राम का घर बेच दिया और अगले ही हफ्ते मुंबई जाने की तैयारी होने लगी।
जब अन्विता को ये खबर मिली, तो सबसे पहले उसका मन काया के पास जाने का हुआ।
लेकिन काया घर पर नहीं थी। कमला से पूछा तो पता चला कि वह अब एक बुटीक में असिस्टेंट का काम करने लगी थी। लेकिन कमला ने बुटीक का पता नहीं बताते हुए हाथ जोड़कर यह भी कह गई कि अन्विता काया से मिलने की चेष्टा ना करे।
***
“पर माँ, मैं बिना उससे मिले कैसे जा सकती हूँ?” अन्विता अपनी माँ से कहती है।
संध्या मेहता ने हल्के से हँसते हुए कहा, “अन्विता, तुम्हारी दुनिया और उसकी दुनिया अलग है। दोस्ती अच्छी बात है, पर कुछ रिश्ते निभाए नहीं जाते, उन्हें वक़्त के साथ छोड़ देना चाहिए।”
उस रात अन्विता बहुत रोई, लेकिन वह चाहकर भी काया से नहीं मिल पाई।
और फिर, वह मुंबई चली गई।
***
सात साल बाद, एक दिन अन्विता दिल्ली के एक बड़े शोरूम में अपनी माँ के साथ आई थी।
वहाँ डिज़ाइनर ड्रेसेस बेचने वाली एक लड़की उसके पास आई—”मैम, क्या आपको कोई खास डिजाइन पसंद है?”
अन्विता ने उसकी आवाज़ सुनी और उसके हाथों की चूड़ियों को देखा—वही छोटे-छोटे लाल धागों वाली चूड़ियाँ, जो कभी उसने काया को गिफ्ट की थीं।
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“काया?”
वो लड़की ठिठक गई।
आँखों में नमी थी, शब्द गले में अटक गए।
“दीदी?”
अन्विता ने झट से उसका हाथ पकड़ लिया।
“तू कहाँ चली गई थी? मैंने तुझे कितना ढूँढा!”
खुशबू मुस्कुराई, “आपने मुझे ढूँढा था? पर मैं तो बस यहीं थी दीदी… अपनी दुनिया में!”
अन्विता की आँखें नम हो गईं।
“मैं तुझे लेने आई हूँ काया, चल मेरे साथ!”
काया ने हल्के से सिर हिला दिया। “नहीं दीदी, अब हमारे रास्ते अलग हो चुके हैं। मैं आपकी सोसाइटी का हिस्सा नहीं, इस दुनिया का हिस्सा हूँ। दोस्ती तो दिल को चीज है, दिल में ही रहनी चाहिए।
अन्विता ने उसका हाथ कसकर थाम लिया।
“हाँ काया, दोस्ती दिल में रहती है। और तू भी मेरे दिल में रहती है। मैं तुझे अब दोबारा खोने नहीं दूँगी!”
“अब कहाँ ले जाओगी, दीदी? रिश्तों की चूड़ियाँ एक बार टूट जाएँ तो दोबारा नहीं पहनी जातीं!”
अन्विता रो पड़ी। “मैंने तुझे खो दिया था काया, पर अब और नहीं! मैं तुझे छोड़कर नहीं जाऊँगी और देख तूने आज भी वही चूड़ियाँ पहनी है ना।”
काया की आँखों में आँसू छलक पड़े। “पर दीदी, मैं तुम्हारी दुनिया में कहाँ फिट होती हूँ?”
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अन्विता ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।
“मेरी दुनिया तेरे बिना अधूरी है और अब मैं इसे और अधूरी नहीं रहने दूँगी!”
बहुत दिनों बाद, अन्विता ने काया को गले से लगा लिया।
कोई पर्दा, कोई दीवार, कोई भेदभाव… कुछ भी बीच में नहीं था।
उस दिन पहली बार, उसने उसे अपनी बराबरी पर नहीं, अपने हृदय के सबसे करीब खड़ा किया—
न मालिक की बेटी, न नौकर की बेटी, बस दो आत्माओं का स्नेह था यह।
गुलमोहर का पेड़ कट चुका था, पर उसकी स्मृतियाँ अब भी हवाओं में जीवित थी।
उसकी छाँव में जन्मी दोस्ती फिर से महक उठी थी और इस बार, उसे कोई जड़ से उखाड़ नहीं सकता था।
क्योंकि स्नेह का बंधन समय से परे होता है—
उसे न कोई दीवार रोक सकती है, न कोई समाज, न कोई ऊँच-नीच की रेखा।
वह बस बहता है, जैसे हवा में बिखरी गुलमोहर की पंखुड़ियाँ—
मुक्त, निर्मल और अमर।
✍️आरती झा आद्या
दिल्ली