मालती देवी के लिए जीवन एक खुली किताब था, जिसके हर पृष्ठ पर नियम और अनुशासन साफ-साफ लिखे थे। वह अपने जमाने की सबसे प्रतिष्ठित अध्यापिकाओं में से थीं, जिनकी बातें उनके छात्र कभी नहीं टालते थे।
अब सेवानिवृत्त होने के बाद, उनका पूरा ध्यान अपने घर और बेटे के परिवार पर था। उनके बेटे अनिकेत की पत्नी, प्रिया, एक ग्रामीण परिवेश से आई थी। प्रिया स्वभाव से शांत, थोड़ी अंतर्मुखी और बेहद संवेदनशील थी। वह अपने सपनों की दुनिया में जीती थी, जहाँ रंग और कल्पनाएँ ही सब कुछ थीं।
शादी के बाद, प्रिया को उम्मीद थी कि उसे एक नया घर, एक नया परिवार मिलेगा जो उसे समझेगा। लेकिन मालती देवी की दुनिया में भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं थी। उनके लिए, प्रिया का शांत स्वभाव ‘कमज़ोरी’ था, उसकी सपने देखने की आदत ‘गैर-जिम्मेदाराना’ थी।
सुबह सबसे पहले उठना, बिना नाश्ते के पूजा-पाठ करना, और फिर घंटों रसोई में बिताना – यह प्रिया की दिनचर्या बन गई थी।
मालती देवी की हर बात में ‘हमारे ज़माने में’ और ‘यह राय परिवार का नियम है’ जैसे वाक्य होते थे। प्रिया कोशिश करती थी, लेकिन अक्सर थक जाती। एक दिन रसोई में काम करते हुए उसका हाथ जल गया। दर्द से उसकी आँखें भर आईं।
मालती देवी ने देखा। उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। “ध्यान से काम करो, प्रिया। ऐसी छोटी-मोटी चोटें तो लगती रहती हैं। हमारे ज़माने में तो हम पूरे-पूरे दिन चूल्हे के सामने काम करते थे, कभी उफ़ तक नहीं की।” उन्होंने एक पल को भी नहीं सोचा कि उस जले हुए हाथ के पीछे कितनी पीड़ा थी। उनके लिए यह सिर्फ एक ‘हादसा’ था, कोई गंभीर तकलीफ़ नहीं।
प्रिया अंदर से टूट जाती। उसे अपनी माँ की याद आती जो उसके ज़रा से खरोंच लगने पर भी बेचैन हो जाती थीं। यहाँ उसकी सिसकियाँ भी अनसुनी रह जाती थीं। वह अक्सर रात को तकिए में मुँह
छिपाकर रोती, ताकि उसकी आवाज़ किसी तक न पहुँचे। मालती देवी को प्रिया की आँखों के नीचे काले घेरे, उसकी बुझी हुई हँसी, सब दिखते थे, पर उनके लिए यह ‘नए माहौल में ढलने की समस्या’ थी, या शायद ‘आलस्य’।
“अनिकेत, तुम्हारी पत्नी आजकल कुछ खोई-खोई रहती है,” मालती देवी एक शाम अनिकेत से बोलीं। “मुझे लगता है उसे काम से ज़्यादा आराम की ज़रूरत है। शायद वह घर के कामों में मन नहीं लगा रही।”
अनिकेत ने प्रिया से पूछा। प्रिया ने बस सिर झुका लिया। उसे लगा, अगर उसका अपना पति भी उसकी बात नहीं समझेगा, तो कौन समझेगा? उसे लगा उसकी माँजी ने जो ‘खोयापन’ देखा है, वह सिर्फ बाहरी है, भीतर का दर्द उन्हें कभी नहीं दिखेगा।
प्रिया को चित्रकला का बहुत शौक था। वह अपने खाली समय में कैनवास पर रंग बिखेरना पसंद करती थी, जिससे उसे शांति मिलती थी। एक दिन वह अपने कमरे में बैठकर पेंटिंग कर रही थी। मालती देवी अचानक कमरे में आईं।
“यह क्या कर रही हो, प्रिया?” उनकी आवाज़ में तीखापन था। “यह सब क्या है? घर में इतने काम पड़े हैं और तुम यहाँ रंग-पेंट लेकर बैठी हो? यह सब बच्चों का खेल है। हमारे घर की बहुएँ कभी ऐसी ‘फालतू’ चीज़ों में समय बर्बाद नहीं करती थीं।”
प्रिया का ब्रश हाथ से छूट गया। उसकी पेंटिंग पर रंग बिखर गए। उसके सपनों का एक टुकड़ा फिर बिखर गया।
उसने चुपचाप अपने रंग और कैनवास समेट लिए। उसकी आँखें नम थीं, पर उसने एक शब्द भी नहीं कहा। मालती देवी को प्रिया की आँखों में आँसू नहीं दिखे, उन्हें सिर्फ ‘अनुशासनहीनता’ दिखी थी। उनके लिए, प्रिया का दुख सिर्फ ‘समय के कुप्रबंधन’ का परिणाम था, जिसे ‘सुधारने’ की ज़रूरत थी।
धीरे-धीरे, प्रिया ने अपनी कला को पूरी तरह छोड़ दिया। उसकी हँसी और भी कम हो गई। वह हर वक्त डरी-सहमी रहने लगी। उसका चेहरा पीला पड़ने लगा, और वह अक्सर बीमार रहने लगी। मालती देवी ने ये सब देखा।
उनके लिए, यह सिर्फ ‘शारीरिक कमजोरी’ थी। उन्होंने प्रिया के लिए अच्छे से अच्छे डॉक्टर बुलाए, दवाइयाँ मंगवाईं, पर उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि इस ‘बीमारी’ का असली कारण क्या है। उन्हें लगा, जब डॉक्टर दवा दे रहे हैं, तो सब ठीक हो जाएगा।
एक दिन, प्रिया की छोटी बहन उससे मिलने आई। उसने प्रिया को देखकर कहा, “दीदी, तुम कितनी बदल गई हो। तुम्हारी आँखों की चमक कहाँ चली गई? तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?”
प्रिया अपनी बहन से लिपटकर फूट-फूट कर रो पड़ी। “कोई मुझे नहीं समझता, रेनू। मैं घुटन महसूस करती हूँ। मेरी आत्मा मर चुकी है।”
मालती देवी दरवाज़े पर खड़ी थीं। उन्होंने ये शब्द सुने। उनके चेहरे पर एक हल्की-सी सिकुड़न आई। ‘घुटन’? ‘आत्मा मर चुकी है’? ये शब्द उनकी ‘पुस्तकीय जानकारी’ में कहीं नहीं थे। उन्होंने इसे एक ‘भावनात्मक अतिरेक’ माना। उनके तर्कवादी दिमाग में यह ‘अस्पष्ट’ था।
कुछ महीनों बाद, प्रिया इतनी कमज़ोर हो गई कि उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। डॉक्टर ने बताया कि प्रिया गंभीर डिप्रेशन से जूझ रही है। “इनका मानसिक स्वास्थ्य बहुत खराब हो चुका है। इन्हें भावनात्मक समर्थन और शांति की सख्त ज़रूरत है।”
मालती देवी को ज़ोरदार झटका लगा। ‘डिप्रेशन’? उन्होंने तो सिर्फ प्रिया को ‘कमज़ोर’ समझा था। उन्हें समझ नहीं आया कि जो लड़की इतनी ‘छोटी-मोटी’ बातों पर रोती थी, वह इतनी बीमार कैसे हो गई। उन्हें लगा कि यह सब अचानक हुआ है। उन्हें यह नहीं दिखा कि प्रिया का हर अनसुना आँसू, हर दबाई हुई सिसकी, उसके दर्द का एक छोटा हिस्सा था जो अब एक पहाड़ बन चुका था।
अस्पताल में, मालती देवी प्रिया के पास बैठी रहीं। उन्होंने पहली बार प्रिया के पीले चेहरे पर गौर किया, उसकी सूजी हुई आँखों को देखा। उन्हें लगा कि उन्होंने कुछ गलत किया है, पर क्या – यह उन्हें ठीक से समझ नहीं आया। उनके मन में एक अजीब सा खालीपन था। वह प्रिया की तकलीफ़ को अब ‘बीमारी’ के रूप में देख रही थीं, लेकिन उसकी जड़ तक उनकी समझ नहीं पहुँच पा रही थी।
प्रिया धीरे-धीरे ठीक होने लगी। मालती देवी ने अपनी आदतों में कुछ बदलाव किए। उन्होंने प्रिया को पेंटिंग करने की छूट दी, उसे अकेले रहने का समय दिया। घर का माहौल थोड़ा नरम हुआ।
लेकिन यह एक अधूरा बदलाव था। मालती देवी ने कभी प्रिया से अपने कठोर व्यवहार के लिए माफी नहीं मांगी, क्योंकि उन्हें यह एहसास ही नहीं हुआ कि उनकी ‘तार्किक’ बातें कितनी चोट पहुँचा सकती थीं। प्रिया ने भी कभी खुलकर अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं किया, क्योंकि उसके मन में डर बैठ चुका था।
उस घर में, अब सिसकियाँ कम थीं, पर एक गहरी खामोशी अब भी थी – एक ऐसी खामोशी जो दो अलग-अलग पीढ़ियों, दो अलग-अलग दुनियाओं और भावनाओं को समझने में एक गहरी खाई को दर्शाती थी। मालती देवी को अंततः अपनी बहू की तकलीफ ‘दिखी’ तो, पर उसकी गहराई और उसके असली कारण को वे कभी पूरी तरह ‘समझ’ नहीं पाईं। यह वह दर्द था जो उनकी आंखों को दिखा, पर उनके दिल तक नहीं पहुंच पाया।
संजना सिंह
#सास को बहू की तकलीफ नहीं दिखाई देती