यह मेरी अपनी आपबीती हैं ।जब मैं सिर्फ ११ बर्ष की एक चंचल और नटखट बच्ची थी और अपने मम्मी पापा भैया की दुलारी थी।
मेरा नाम आभा हैं और यह कथा मेरे जीवन की एक ऐसी सच्चाई हैं जो मेरी जिंदगी को पूरी तरह से बदल देती है।
आभा छठी कक्षा की एक होनहार विद्यार्थी हैं ,आज वो बोहोत खुश हैं क्योंकि उसने क्लास में टॉप किया हैं और हर सब्जेक्ट में उसका सबसे ज्यादा नंबर आए थे।
उसकी मम्मी पापा और भैया ने उसे उसके पसंद के गिफ्ट्स दिए।
आभा को पढ़ने का बोहोत शौक़ है इसलिए उसके भैया ने उसे हिंदी कहानियों की पुस्तक दी है।
आभा उसी किताब में खोई हुई थी कि उसकी मम्मी ने आवाज़ लगाई तो वो कमरे से बाहर आई और देखा उसके दादाजी और दादीमां आए हैं।
आभा के दादा दादी लड़कियों का पढ़ना लिखना खेलना यह सब पसंद नहीं करते हैं लेकिन आभा के पापा शहर में एक बड़े कम्पनी में मैनेजर हैं और वो और उनकी पत्नी आभा को संस्कार और शिक्षा सही से देने में विश्वास करते है।उन दोनों ने कभी भी भाई बहन में फर्क नहीं किया।
आभा इसलिए अपने दादा दादी से डरती हैं क्योंकि वो जब भी आते थे बस आभा के पीछे पड़ जाते थे।
आभा के मां पापा उनके लिहाज में सब सहते थे।
आभा का भाई अभय अब ग्यारहवीं में पढ़ता हैं और वो अब अपने सामने अपनी बहन की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं करता लेकिन उसकी मम्मी के लिए वो चुप हो जाता था।
एकदिन संडे को आभा और अभय सुबह कमरे में अपने किताब लेकर पढ़ रहे थे और उनके पापा चाय पीते पीते अखबार पढ़ रहे थे मम्मी किचन में नाश्ता की तैयारी कर रही थीं एक हाउस हेल्पर उनके साथ काम करवा रही थी।
दादी अपने हाथ में माला लेकर चेयर पर बैठी थीं दादा जी बाहर टहलने गए थे।
अचानक दरवाजे की बेल बजी तो आभा के पापा संजय जी दरवाजा खोलने गए सामने उनके पिताजी के साथ कोई उनका गांव का दोस्त आए थे।
संजय जी ने झुककर प्रणाम किया और अपनी पत्नी सुनीता जी को आवाज़ लगाई तो वो भी सर पर पल्लू धर कर आई फिर उन बुजुर्ग के पैर छूकर आशीर्वाद लिया।
यह रामनारायण जी हैं आभा के दादाजी विश्वनाथ जी के बचपन के दोस्त और गांव के पड़ोसी।
आभा और अभय आकर उनके पैर छूते हैं तो रामनारायणजी आभा को पूछते हैं,” बेटी खाना बना लेती हो ना”?
सब यह सुनकर चौंक जाते हैं सिवाय दादा दादी के।संजयजी आभा से कमरे में जाने को कहते हैं और गंभीर स्वर में कहते है,” चाचाजी मुझे आपकी बातें बोहोत अजीब लगी क्या आप समझाएंगे की क्यों कहा आपने ऐसा”?
विश्वनाथ जी और उनकी धर्मपत्नी शांति देवी घबरा रहे थे।
रामनारायण जी हंसकर बोले,” अरे तो पोते की बीवी के हाथ का खाना भी तो खाना हैं इसलिए पूछा”।
संजय जी सारा माजरा समझ गए, लेकिन वो अपने माता पिता का अनादर बाहरी लोगों के सामने नहीं करना चाहते थे इसलिए चुप रहे।
रामनारायण जी को विश्वनाथ जी बाहर ले जाकर बोले,” अभी संजू को पता नहीं है इस बारे में मैं तुझे फोन करूंगा बाद मे”।
रामनारायण चले जाते हैं।संजय जी और सुनीता जी निर्णय लेते हैं कि अब तक जो हुआ वो सब नज़र अंदाज किया लेकिन अब बोहोत ज्यादा ही मामला गंभीर हो चुका है।
संजय जी ने अभय को बुला कर पैसे देते हुए कहा ,” बेटा तुम दोनों जाओ आइसक्रीम खाकर आओ और भी कुछ मन हो तो खा लेना “।
अभय समझ रहा था इसीलिए वो आभा को लेकर चौपाटी चला गया।
अब घर पर यह चार लोग थे ,दो पीढ़ी का टकराव होने वाला था। संजय जी और सुनीता जी साथ में आए और बोले,” मां बाबूजी आप लोग क्या सोचकर यह सब कर रहे थे, आभा मात्र ग्यारह साल की हैं यह उसके पढ़ने खेलने के दिन हैं”।
शांति जी मुंह बनाकर बोली,” तुझे और बहु को क्या पता आजकल के बच्चे क्या क्या गुल खिला रहे हैं कल मैने देखा तेरी यही बच्ची बगल वाले के पंद्रह साल के लड़के से हँस हँस कर बात कर रही थी ,बेशर्म कही की”।
सुनीता जी से अब बर्दाश्त नहीं हुआ,” मां आपको मैने हमेशा अपनी सगी मां से ज्यादा मान सम्मान दिया और अपने मेरी फूल जैसी बच्ची पर चरित्र हीनता का दाग लगा रही है जब अपने ऐसे करेंगे तो गैरों से कोई क्या उम्मीद करें”।
ऐसे ही चारों में बात होती हैं दादा दादी गुस्से में अपना सामान पैक करने लगते हैं।
अभय आभा आते हैं तो घर का माहौल बोहोत अजीब लगता है उन्हें।
दादा दादी अपने कमरे में हॉल में सर झुकाए उनके पापा मम्मी।
दूसरे दिन आभा की छुट्टी थी संजय जी ने भी घर के माहौल को देखते हुए छुट्टी ली थी।अभय के क्लास थे वो कॉलेज में था तो वो चला गया था।
सुबह दस बजे घर की बेल बजी तो संजय जी ने दरवाजा खोला सामने बगलवाले शर्मा जी का बेटा बिक्रम था और उसके हाथ में एक बक्सा था छोटा सा।
संजय जी हंसते हुए बोले,” अरे बेटा कैसे आना हुआ “?
विक्रम हंसके,” नमस्ते अंकल वो आभा को बुला दीजिए ना कुछ काम था ” अचानक विश्वनाथ जी आकर ज़ोर से बोले,” ए लड़के तेरी हिम्मत कैसे हुई हमारे घर की बेटी से दोस्ती करने की, देखो संजू तुम्हारी बेटी की चाल ढाल “।
तभी आभा आई,” अरे भैया आप!
विश्वनाथ जी का चेहरा फीका पड़ गया।विक्रम की आंखों में आंसू आ गए थे लेकिन वो समझदार था ,” अरे आभा तुमने मुझे राखी बांधी थी उसदीन तो मेरे पास तुम्हे देने के लिए कोई तोहफा नहीं था तो आज मैं वो तोहफा देने आया था”।
आभा ने कहा ,” भैया आपने उस दिन कहा था कि मेरी कोई छोटी बहन नहीं हैं इसलिए तो मैं आपकी बहन बनी अब इसमें तोहफा क्यों”?
सब सुन रहे थे दोनों बच्चों की मासूम रिश्ते की परिभाषा ।जहां संजय जी और सुनीता जी का सर गर्व से ऊंचा हो गया था वोही दादा दादी को अपनी छोटी और घिनौनी सोच से खुद को छोटा महसूस हो रहा था।
विक्रम को संजय जी ने गले से लगाया और कहा ,” बेटा आज से आभा के दो भाई हैं अभय और विक्रम ,बेटा किसी भी रिश्ते को स्वीकार दिल से करना ही उस रिश्ते की सच्चाई होती है”।
फिर संजय जी और सुनीता जी आभा को गले से लगाकर कहते है,” बेटा तुमने तो इस छोटी उम्र में रिश्तों की अहमियत सिखाई”।
आभा ने विक्रम के जाने के बाद अपने दादा दादी को प्रणाम किया और बोली,” दादाजी दादी मां आप दोनों यही रहिए , मैं आप लोगों से बोहोत प्यार करती हूं “।उसके दादा दादी आभा को गले से लगा लेते हैं,” हां बेटा तूने तो हमारी आँखें खोल दी ,तू सिर्फ संजू या बहु का गर्व नहीं हमसब का गर्व हैं “।
बेटियों को जो शर्म समझते हैं उन्हें हम सब बेटियों की तरफ से, ” शर्म नहीं गर्व है हम”।
सोमा शर्मा
जमशेदपुर