अनन्या को पिछले कुछ दिनों से एक अजीब-सी बेचैनी महसूस हो रही थी।
अर्जुन—उसका पति—आम दिनों में शांत, गंभीर और थोड़ा रिज़र्व स्वभाव का इंसान था।
लेकिन पिछले पंद्रह-बीस दिनों से वह किसी अनदेखी खुशी से भरा हुआ घूम रहा था।
ऑफिस जाने से पहले गुनगुनाना,
देर रात तक मोबाइल पर मुस्कुराते रहना,
और अक्सर अचानक कहीं बाहर निकल जाना…
ये सब बातें अनन्या के दिमाग में शक की चिंगारी जला चुकी थीं।
सबसे ज्यादा उसे तब खटका,
जब अर्जुन का फोन आता, वह हमेशा कमरे के बाहर जाकर बहुत धीमे स्वर में बात करता।
पहले तो अनन्या ने खुद को समझाया—
“हो सकता है ऑफिस की कोई बड़ी डील हो… प्रमोशन मिल रहा हो…”
लेकिन ताज़्जुब की बात ये थी कि वह कुछ भी शेयर नहीं कर रहा था।
कभी उसने ऐसा व्यवहार नहीं किया था।
एक रात जब अर्जुन बालकनी में खड़ा बात कर रहा था,
अनन्या धीरे से दरवाज़े के पास आई।
वह उसकी आवाज़ पूरी तरह नहीं सुन सकी,
बस इतना सुन पाई—
“हाँ, हाँ… जैसा तुमने कहा है, बिल्कुल वैसा ही करूँगा…
चिंता मत करो, बस उसी दिन तय है…
और हाँ, जो चाहिए हो खरीद लेना… पैसों की चिंता मत करना…”
अनन्या का दिल एकदम धक्-धक् करने लगा।
उसका गला सूख गया।
“ये किससे इतनी मीठी आवाज में बात कर रहा है?
कौन है ये, जिसे पैसे तक खर्च करने की खुली इजाज़त दे रखी है?”
अगले दो दिन अर्जुन घर में जैसे हवा की तरह भागता-फिरता रहा।
कभी बालकनी में फोन, कभी बाहर जाते हुए कार में फोन…
कभी कहते—“मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूँ।”
अनन्या के मन का तूफान बढ़ता जा रहा था।
नींद उड़ चुकी थी।
वह सोफे पर बैठी घंटों फोन के उसी नंबर को देखती रहती,
जिससे अर्जुन बात करता था…
अजीब नाम—अनाम नंबर।
फिर तीसरे दिन शाम को वह नंबर फिर से आया।
अर्जुन ने जैसे ही फोन उठाया,
अनन्या ने चुपचाप रसोई में खड़े-खड़े उसकी आवाज़ सुनने की कोशिश की।
“हाँ, बिल्कुल… शनिवार को शाम सात बजे…
‘हिलटॉप ऑर्चर्ड रेस्टोरेंट’, वही ठीक रहेगा…
तुम सबको बुला लेना… मैं सब संभाल लूँगा…
ओके, बाय!”
अर्जुन की आवाज में अजीब-सा उत्साह था।
उसकी आँखें चमक रहीं थीं।
अनन्या को लगा जैसे कोई बर्फ का टुकड़ा उसकी रीढ़ में उतर गया हो।
उस रात अनन्या करवटें बदलती रही,
और मन में एक ही बात उभरती रही—
“वो किसके लिए इतनी बड़ी तैयारी कर रहा है?
किसके लिए ‘सब संभाल लूँगा’ कह रहा है?
किस दोस्तों को बुला रहा है?”
शनिवार आया।
शाम के छह बजे अर्जुन तैयार होकर निकला—
अच्छा-सा सूट, परफ्यूम, चमकते जूते…
वह किसी खास मौके के लिए तैयार हुआ था, यह साफ दिखाई दे रहा था।
अनन्या खुद को रोक न सकी।
वह थोड़ी दूरी से अर्जुन की टैक्सी के पीछे-पीछे चल दी।
दिल में धड़कनें इतनी तेज़ थीं कि खुद की ही आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी।
‘हिलटॉप ऑर्चर्ड रेस्टोरेंट’—
सुंदर, रोशनी से जगमगाता हुआ होटल था।
अनन्या ने शक से काँपते कदमों के साथ लॉन में प्रवेश किया।
भीतर से संगीत की मधुर धुनें आ रही थीं।
केक, गुब्बारे, सजावट…
उसके कदम भारी हो गए।
आज वो सच सामने देखने आई थी—
चाहे वो कितना भी कड़वा क्यों न हो।
जैसे ही वह हॉल में दाखिल हुई,
उसने देखा अर्जुन सुंदर सजावट वाला एक बड़ा केक देखते हुए खड़ा था।
थोड़े लोग आसपास खड़े थे,
लेकिन किसी की शक्ल अनन्या को पहचान में नहीं आई।
उसके दिमाग में चीखें गूँज रहीं थीं—
“यही है वो पार्टी… किसी ‘औरत’ के लिए…”
उसके पैरों में जैसे जान नहीं रही।
वह आगे बढ़कर कुछ कहने ही वाली थी कि अर्जुन ने उसे देखकर मुस्कुरा दिया।
और आगे आकर धीमे स्वर में बोला—
“आज कुछ मत कहना अनन्या… बस चुप रहना, मेरे साथ चलो…”
अनन्या का दिल गले में अटक गया।
उसने हिम्मत करके कहा—
“अर्जुन… ये सब… ये सब किसके लिए है?
कौन है वो लड़की… जिसे तुम पिछले दिनों फोन करते रहे?”
अर्जुन मुस्कुराया—
“वो लड़की?”
उसने हल्का-सा इशारा किया—
“सिया… बाहर आओ!”
भीड़ से एक लड़की निकली—
लगभग बीस-बाइस साल की।
लंबे बाल, बड़ी-बड़ी आँखें, और मासूम चेहरा।
अनन्या हैरान रह गई—
“ये… ये कौन?”
सिया उसके पास आकर बोली—
“दीदी… मैं सिया हूँ…
अर्जुन भैया की बहन।”
अनन्या के होश उड़ गए।
“बहन? लेकिन तुम्हारी तो…”
अर्जुन ने उसका हाथ पकड़कर समझाया—
“अनन्या… ये मेरी सौतेली बहन है।
हम दोनों एक ही पिता से हैं, लेकिन माँ अलग।
पापा की दूसरी शादी के बाद सिया अपनी माँ के साथ दूसरे शहर में रहती थी।
कई सालों से हम दोनों का संपर्क बहुत कम था।
अब तीन महीने पहले उसने मुझसे बात शुरू की…
और उसने बताया कि उसके कॉलेज में एक अवॉर्ड सेरेमनी है…
और वह चाहती थी कि मैं उसके साथ रहूँ।
यही कारण था कि मैं उससे बात कर रहा था—
धीमे स्वर में, अकेले में, क्योंकि मैं चाहता था कि उसके बारे में सब तुम्हें एक सुंदर तरीके से बता सकूँ।”
सिया की आँखें भीग गईं।
“दीदी… भैया ने कभी मुझे नीचा नहीं दिखाया…
हमेशा कहा—
‘मेरी पत्नी बहुत समझदार है।’
लेकिन मुझे पता था… आप थोड़ी-सी चिंता जरूर करोगी।
इसलिए मैं भैया को कहती रहती थी
कि सरप्राइज़ करके बताना…”
अनन्या की आँखें भर आईं।
उसका शक, उसकी आशंका…
सब उसके सामने राख की तरह बिखर चुका था।
अर्जुन ने केक की ओर इशारा किया—
“आज सिया का ग्रेजुएशन डे है…
और उसका ‘गोल्ड मेडल’।
मैंने सोचा… क्यों न परिवार वाले भी उसके साथ खुशी मनाएँ…”
तभी हॉल में तालियाँ गूँज उठीं—
सिया के कॉलेज के दोस्त, उसके प्रोफेसर, और अर्जुन के दो-तीन ऑफिस मित्र सब मौजूद थे।
सिया को अवॉर्ड दिया गया।
अर्जुन ने उसे गले लगाया।
फिर अनन्या के पास आकर बोला—
“अब बताओ…
कभी-कभी फोन छुपाकर बात करने से किसी का घर टूटता है?
या बिना पूरी बात सुने शक करने से?”
अनन्या की आँखों से आँसू बह निकले।
वह अर्जुन के सामने खड़ी होकर धीमे स्वर में बोली—
“मुझे माफ कर दो…
मैंने तुम्हारी आधी-अधूरी बातें सुनीं…
और मन में खुद ही कहानियाँ बना लीं…”
अर्जुन मुस्कुरा दिया—
“चलो, अच्छा है… अभी तक हम टीवी सीरियल्स वाले पति-पत्नी नहीं बने थे…
पर अब थोड़ी रिहर्सल हो गई।”
सिया ने हँसते हुए कहा—
“दीदी, भैया तो आपको समझकर ही फोन पर मुझे चिढ़ाते थे…
ये कहते हुए—
‘अनन्या बहुत कच्ची है, सुन लेगी तो पूछेगी भी नहीं, नाराज़ ही हो जाएगी!’
और हुआ भी वही।”
अनन्या ने शरमाकर कहा—
“अब नहीं करूँगी…
कभी भी बिना पूछे किसी बात का फैसला नहीं करूँगी।
तुम दोनों को गलत समझना मेरी सबसे बड़ी गलती थी।”
अर्जुन ने उसे गले लगा लिया—
“अब ये सोचो… पार्टी करनी है, केक काटना है…
मतलब उससे पहले तुम रोती रहोगी क्या?”
अनन्या हल्के से मुस्कुराई,
फिर सिया को गले लगा लिया—
“मुझे भी इस फैमिली का हिस्सा बनाओ न…
तुम्हें गोल्ड मेडल की बहुत-बहुत बधाई, सिया!”
अर्जुन ने दोनों के कंधे पर हाथ रखा—
“बस! अब हमारी फैमिली पूरी हुई।”
हॉल में संगीत चालू हो गया।
केक कटने लगा।
सब खुशियाँ मना रहे थे।
अनन्या मन ही मन सोच रही थी—
“अगर मैंने आधी बातें सुनकर शक किया और घर लगभग टूटने की कगार पर आ गया…
तो आगे से एक बात याद रखूँगी—
बात पूरी सुनना,
और पूरी बात पूछना…”
रात को जब वे घर लौटे,
अर्जुन ने हल्के से कहा—
“अगली बार जब मैं किसी लड़की से बात करूँ,
तो मुझे अच्छी तरह याद दिला देना—
‘मुझे भी बताना ज़रूरी है।’”
अनन्या हँस दी।
“बस, तुम छुपाना बंद कर दो… मैं शक करना बंद कर दूँगी।”
और उस रात, पहली बार उसने महसूस किया—
शक घर नहीं बचाता…
विश्वास बचाता है।
और वह घर…
आज सचमुच बच गया था।
मूल लेखिका
हेमलता गुप्ता