काला रंग,एक आंख आधी बंद सी और बाहर निकले हुए दांत,,,कुल मिलाकर वह मुझे एक आंख ना भाती। मैं बहाने बनाकर उसे निकालना चाहती लेकिन उसकी मां हाथ जोड़कर अपनी कमजोर स्थिति का हवाला देकर मुझे चाहकर भी उसे नही निकालने पर मजबूर कर देती।
फिर एक दिन अचानक मेरे पति नही रहे।उनकी तेरहवीं के बाद जब सारे रिश्तेदार चले गये। मेरा सर्जन बेटा नौकरी से त्यागपत्र देने चला गया तो मेरी भाभी मेरे पास रुक गईं,
लेकिन उन्हें भी वापस जाना पड़ा। दिन तो पड़ोसी रिश्तेदार दोस्तों के आते रहने से कट जाता लेकिन समस्या रात की थी कि जब तक बेटा वापस ना आ जाये,मैं अकेले कैसे रहूंगी? ऐसे में मेरी पूर्व घरेलू सहायिका ‘सुधा’ ने उबार लिया कि “भइया के वापस आने तक आँटीजी के पास हम रहेंगे!”
मेरा मन भर आया! जो मुझे एक आंख न सुहाती,जिसे मैं हटाना चाहती थी, आज वही मेरा सहारा बनी,,,,
तब मेरी मन:स्थिति ठीक नही थी, मैं हर समय रोती रहती।मुझे रोता देख वह भी रोती,फिर बुज़ुर्गो की तरह समझाती ,ज़बरदस्ती खाना खिलाती! रात में जब तक मैं सो नही जाती,
वह नही सोती,मेरी आहट लिये रहती। उसका सेवाभाव,अपनत्व देखकर मैं नतमस्तक हो गई! और तब मुझे समझ में आया कि सूरत से ज़्यादा सीरत का महत्वपूर्ण होती है। जिससे मेरा खून का कोई रिश्ता न था ,कठिन वक्त में उसी ने मेरी माँ से बढ़कर मेरा ध्यान रखा।
कल्पना मिश्रा
कानपुर
एक आँख न भाना