ससुराल के नियम

सुबह के सात भी नहीं बजे थे कि शर्मा हाउस की घंटी ज़ोर से बजी।
अंदर रसोईघर में सब्ज़ी काटती अवनि ने चौंककर घड़ी देखी—
“अरे, आज तो सीमा इतनी जल्दी आ गई?”

सीमा घर की कामवाली थी, जो आम तौर पर साढ़े सात–आठ के बीच आती थी।
दरवाज़ा खोलते ही अवनि ने देखा—सीमा सिर पर पुराना सा दुपट्टा कसकर बाँधे, हाथ रगड़ती हुई खड़ी थी।

“क्या हुआ सीमा, इतनी ठंड में इतनी सुबह?”
अवनि ने पूछा।

सीमा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“भाभी, सर्दी बहुत है, सोचा जल्दी निपटा लूँ काम तो दो-दो घर आराम से कर सकूँगी। पर बाथरूम में तो बिल्कुल बर्फ जैसा पानी आता है… हात-पाँव सुन्न हो जाते हैं।”

अवनि ने अनायास ही अपने गीले हाथों की ओर देखा। अभी कुछ देर पहले वह भी ठंडे पानी से बर्तन धोकर आई थी।
दिल में आया कह दे—“तुम्हारे लिए भी इंतज़ाम कर दूँगी”—
पर फिर उसे याद आया कि इस घर में नियम कौन बनाता है—दादी माँ और सास सरोजिनी जी।

शर्मा परिवार पुराने विचारों वाला ज़रूर था, पर बुरा नहीं था।
संस्कार, रीति-रिवाज, पच्चीस साल पुरानी आदतें — सब कुछ जैसे घर की दीवारों में चिपका हुआ था।
अवनि की शादी को केवल तीन महीने हुए थे, और वह धीरे-धीरे इस घर की धड़कनों को समझ रही थी।

रसोई में पीछे से आवाज़ आई,
“बहू, चाय बन गई क्या? मुझे साढ़े सात बजे भजन मंडली जाना है।”

सरोजिनी जी सिर पर पल्लू ठीक करते हुए आईं।
उन्होंने सीमा को देखा, जो सिंक के सामने बर्तन धोने लगी थी।

“सीमा, हाथ तेजी से चलाना, आज मुझे दस बजे से पहले लौटना है, बहू को भी हवन सामग्री की तैयारी करनी है।”

अवनि ने मुस्कुराकर कहा,
“जी मम्मीजी, चाय अभी लाई,”
फिर धीरे से बोल पड़ी,
“मम्मीजी, एक बात कहनी थी… सर्दियों में पानी बहुत ठंडा हो जाता है, मैं सोच रही थी अगर पीछे वाले बाथरूम में छोटा सा गीजर लग जाए, तो सीमा को भी आसानी रहेगी और मुझे भी।”

सरोजिनी जी ने भौंह उठाकर कहा,
“अरे बहू, हम तो बिना गीजर के बरसों से बर्तन धोते आए हैं। ठंड-गर्मी सब भगवान की देन है, जितना झेलो, उतना शरीर मजबूत होता है। नौकरों के लिए गीजर? फिर कल को कहेंगी, उनके लिए अलग डाइनिंग टेबल रख दो, अलग ड्राइंग रूम बना दो।”

इतना कहकर उन्होंने जैसे बात ख़त्म कर दी।
अवनि ने सीमा की ओर देखा, जो बिना कुछ बोले तेजी से हाथ चला रही थी। पानी में उसके हाथ सचमुच सुर्ख लाल हो रहे थे।

उसी वक़्त दालान में बैठे दादाजी की खाँसी सुनाई दी।
“बहू, मेरी स्पेशल अदरक वाली चाय कहाँ है? कल से गला खराब है।”

अवनि ने जल्दी से दो कप चाय बनाई—एक दादाजी के लिए, एक सरोजिनी जी के लिए—
फिर अपने लिए सिर्फ़ खाली गुनगुना पानी रखकर काम में जुट गई।

इतने में ऊपर वाले कमरे से आदित्य की आवाज़ आई,
“मम्मा, मेरा टिफ़िन हो गया क्या? आज ऑफिस जल्दी निकलना है, टीम मीटिंग है।”

आदित्य अवनि का पति था। दोनों ही एक ही आईटी कंपनी में काम करते थे, बस अलग टीमों में।
शादी के बाद अवनि ने वर्क फ्रॉम होम के लिए अप्लाई किया था, ताकि ससुराल की ज़िम्मेदारियों के साथ नौकरी भी चल सके।
पर घर के नियम कुछ अलग ही थे।

जब से वह इस घर में आई थी, एक बात उसे हमेशा चुभती—
घर के मर्द और बच्चे नाश्ता अपनी-अपनी सुविधा से कर लेते थे,
पर उसके लिए नियम था—सबको खिला लेने के बाद ही खाना।
और सबसे जरूरी—सुबह चार बजे उठकर, सबसे पहले नहाना और फिर पूजा, तभी रसोई में प्रवेश।

सर्दियों के इन दिनों में यह नियम सबसे भारी लगता।
फर्श की ठंडक, पानी की सुई जैसे बूंदें, और ऊपर से जल्दी-जल्दी काम।
वह जानती थी, यह सब बरसों से चल रहा है,
पर यह भी सच था कि जब सरोजिनी जी बहू थीं, तब घर में नौकर इतने नहीं थे, गैस नहीं था, न इतना काम का बोझ।
समय बदल चुका था, पर नियम वही के वही थे।


उस दिन शाम को, जब ऑफिस का काम खत्म हुआ,
अवनि बालकनी में बैठकर थोड़ी देर आसमान देख रही थी।
आदित्य चुपचाप उसके पास आकर बैठ गया।

“थक गई?” उसने धीमे से पूछा।

अवनि ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“थोड़ी… पर आदत हो ही जाएगी।”

आदित्य ने उसकी ओर देखते हुए कहा,
“सुबह से देख रहा हूँ, तुम्हारे हाथ सूज गए हैं। बर्तन और ठंडा पानी… सब एक साथ।”

अवनि बोली,
“सीमा के भी, मेरे भी। सोचा था मम्मीजी से गीजर की बात करूँ, पर उन्होंने साफ़ मना कर दिया। कहती हैं, ‘हमने भी किया है, तुम भी करो।’”

आदित्य कुछ देर चुप रहा, फिर बोला,
“देखो, मुझे मालूम है घर के कुछ नियम तुम्हें परेशान करते हैं।
पर मैं भी अचानक जाकर मम्मी से नहीं कह सकता कि सब बदल दो।
उन्हें लगेगा कि मैं तुम्हारी बातों में आकर पुरानी रीति-रिवाज भुला रहा हूँ।”

अवनि ने सिर झुकाकर पूछा,
“तो फिर? क्या हमेशा ऐसे ही चलेगा?
घर के सारे पुरुष आराम से नाश्ता और चाय पी लें,
पर बहू अगर दो मिनट बैठकर खाए तो सौ सवाल उठते हैं?”

आदित्य ने गहरी सांस लेकर कहा,
“समाधान ढूँढ़ते हैं। झगड़ा करके नहीं होगा, धीरे-धीरे बात समझानी होगी।”

इसी बीच नीचे से दादाजी की आवाज़ आई,
“अरे आदित्य, नीचे आओ, रिटायर्ड कॉलोनी वालों की मीटिंग है, तुम्हें भी बैठना है।”

आदित्य उठ गया, पर जाने से पहले बोल गया,
“कल संडे है, मेरे पास थोड़ा समय होगा। देखेंगे कुछ। तुम भी सोचो, कैसे बात रखी जा सकती है।”

अवनि ने उसे जाते हुए देखा।
पहली बार उसे लगा कि बात शायद सिर्फ़ उसकी नहीं, पूरे घर की सोची जा सकती है।


अगले दिन सुबह, रविवार होने की वजह से थोड़ा आराम था।
अवनि भी आज चार के बजाय पाँच बजे उठी।
सोचा, “आज नहा-धोकर ही नीचे जाऊँगी, ताकि कोई कुछ न कह सके।”

ठंड अब और बढ़ चुकी थी।
बाथरूम में क़दम रखते ही जैसे देह काँप गई।
“काश, सच में एक छोटा-सा गीजर होता…”
उसने मन ही मन सोचा।

नीचे हॉल में दादाजी आरती लगा चुके थे।
सरोजिनी जी रोटियाँ बेल रही थीं।
आदित्य और मयंक (छोटा देवर) अभी तक कम्बल में दुबके हुए थे।

कुछ देर बाद सभी चाय के लिए जमा हुए।
आज अवनि ने नाश्ते के साथ साथ एक और चीज़ भी तैयार की थी—
एक छोटी-सी स्लाइड शो प्रेज़ेंटेशन अपने लैपटॉप पर।

नाश्ता करते समय उसने सहजता से कहा,
“दादाजी, मम्मीजी, एक छोटी-सी चीज़ दिखानी थी आप लोगों को।
कल कंपनी ने हमें एक नए प्रोजेक्ट की ट्रेनिंग दी, उसी का थोड़ा हिस्सा मैं घर पर भी आजमाना चाहती हूँ।”

दादाजी ने हँसते हुए कहा,
“अच्छा, बहू हमें भी थोड़ा आईटी वाला ज्ञान देगी आज!”

आदित्य समझ गया कि अवनि ने कुछ सोचा है।
उसने टीवी से लैपटॉप जोड़ा, और स्क्रीन पर पहला स्लाइड आया—

“हमारा घर – आज और कल”

पहली तस्वीर में पुरानी रसोई की फोटो थी, जो दीवार पर लगी थी—
जिसमें सरोजिनी जी अकेले चूल्हे पर रोटियाँ सेंक रही थीं, पास ही उनकी तीनों देवरानियाँ खड़ी थी।

अवनि ने कहा,
“यह फोटो आप लोग पहचानते हैं ना? मम्मीजी की शादी के कुछ साल बाद की होगी, है न?”

सरोजिनी जी मुस्कुरा दीं,
“हाँ, तब गैस नहीं थी, मिट्टी के चूल्हे पर पकाते थे। सुबह चार बजे उठ जाते थे हम सब।”

अगले स्लाइड पर आज की रसोई की तस्वीर थी—
गैस, मिक्सी, माइक्रोवेव, वाटर फिल्टर, फ्रीज़, सब कुछ।

अवनि बोली,
“समय के साथ हमारे घर में कितने बदलाव आ गए।
तब मिट्टी का चूल्हा था, अब गैस है।
तब हाथ से आटा पीसते थे, अब मशीनें हैं।
तब कोई कामवाली नहीं थी, अब सीमा है।
मतलब सुविधाएँ बढ़ी हैं।
लेकिन एक चीज़ नहीं बदली…”

अगले स्लाइड पर कुछ वाक्य लिखे थे—
“सुबह सबसे पहले बहू का नहाना…”
“सबको खिला लेने के बाद ही खाना…”
“घर में काम करने वाले के लिए ठंडा पानी…”

दादाजी और सरोजिनी जी चुप होकर पढ़ने लगे।

अवनि ने धीरे से कहा,
“मैं कुछ कहना चाहती हूँ, अगर आप लोग अनुमति दें तो।”

दादाजी ने सिर हिलाया,
“बोलो बहू, आज तो प्रेज़ेंटेशन पूरा देखेंगे।”

अवनि ने शब्दों को बहुत सावधानी से चुना,
“मम्मीजी, मैं जानती हूँ कि आपने बहुत मेहनत की है इस घर के लिए।
आपने ठंड में नहाकर, बिना आराम किए सब कुछ संभाला।
आपकी मेहनत और त्याग के सामने मेरी सारी बातें छोटी हैं।
पर क्या सिर्फ़ इसलिए कि आपने कष्ट उठाया,
आने वाली बहूओँ और बेटियों को भी वही कष्ट उठाने ही चाहिए?”

सरोजिनी जी ने कुछ कहना चाहा,
पर दादाजी ने हाथ से इशारा करके उन्हें रोक दिया।

अवनि आगे बोली,
“और सिर्फ़ बहू ही क्यों?
आपने भी ठंड में काम किया, तो क्या अब आप भी उसी तरह कष्ट उठाएँगी?
या हम सब चाहेंगे कि इस उम्र में आप आराम से रहें, समय पर नाश्ता करें, दवा लें, धूप में बैठें?”

हॉल में थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहा।
आदित्य ने मौके को भांपकर कहा,
“दादाजी, मुझे लगता है अवनि कहना ये चाहती है कि—
नियम और परंपराएँ इंसानों के लिए होती हैं,
इंसान नियमों के लिए नहीं।
जहाँ नियम से तकलीफ होने लगे,
वहाँ थोड़ा बदलाव करना गलत नहीं हो सकता।”

मयंक भी बोल उठा,
“हाँ दादाजी, कॉलेज में हमारे प्रोफ़ेसर कहते हैं—
‘अपडेट न होने वाला सॉफ्टवेयर धीरे-धीरे काम करना बंद कर देता है।’
घर भी अगर अपने नियम अपडेट न करे,
तो रिश्तों में वायरस घुस जाता है।”

दादाजी यह तुलना सुनकर मुस्कुरा दिए,
“अच्छा, तो हम लोग पुराने वर्जन हो गए क्या?”

सब हल्का-सा हँस पड़े।
माहौल थोड़ा नरम हुआ।

अवनि ने बात आगे बढ़ाई,
“मम्मीजी, मैं बस इतना चाहती हूँ कि—
सर्दियों में पहले हमें कुछ खाने की इजाजत हो,
ताकि मेरी तबीयत भी खराब न हो और घर भी सही से चले।
और अगर संभव हो, तो रसोई के पीछे वाले बाथरूम में छोटा सा गीजर लग जाए,
ताकि सीमा और मैं ठंडे पानी से थोड़ा बच सकें।
हमारे लिए नहीं, इंसानियत के नाते भी हम उन पर यह कठोरता क्यों रखें?”

सरोजिनी जी एकटक टीवी स्क्रीन को देखती रहीं।
उनके चेहरे पर कभी कड़ाई, कभी नरमी की परछाइयां पड़ रही थीं।

आखिरकार उन्होंने धीरे से कहा,
“मैंने जो किया, वो मेरे समय की मजबूरी थी।
बहुत बार मन भी हुआ कि कोई नियम बदले,
पर तब हमारे पास बोलने की हिम्मत नहीं थी।
हिम्मत तुम लोगों में है, तो शायद… यही सही समय है।”

उन्होंने आगे जोड़ते हुए कहा,
“पर एक शर्त है, बहू।”

अवनि ने चौक कर पूछा,
“जी?”

“जो भी बदलाव हो, वो सिर्फ़ बहुओं के लिए नहीं,
घर के सभी सदस्यों के लिए समान हो।
अगर बहू के लिए गीजर है, तो बेटों के लिए भी।
अगर बहू के लिए नियम ढीले हैं, तो बेटों के लिए भी वही अपनाए जाएँ।
ऐसा न हो कि बेटों को आराम हो और सिर्फ़ बहू पर ही अपेक्षा का बोझ रहे।”

अवनि की आँखें चमक उठीं,
“यही तो मैं चाहती हूँ, मम्मीजी!”

दादाजी ने हँसते हुए कहा,
“तो फिर फैसला हो गया।
आदित्य, आज शाम हमें बाजार ले चलो।
रसोई वाले बाथरूम के लिए गीजर और अगर ज़रूरत हो तो ऊपर वाले बाथरूम के लिए भी देख लेंगे।
और हाँ, अब से नाश्ते का टाइम जो भी तय होगा,
सबके लिए एक ही रहेगा।
जो समय पर उठकर नहाना चाहे, नहाए,
पर भूखे पेट सिर्फ़ नियम के नाम पर किसी को परेशान नहीं करेंगे।”

आदित्य ने उत्साह से कहा,
“ओके दादाजी! आज ही ले आते हैं।
वैसे भी कंपनी से इस बार बोनस मिला है,
घर के लिए कुछ अच्छा हो जाए तो बोनस सफल समझूँगा।”

सरोजिनी जी अब भी कुछ सोच में डूबी थीं।
उन्होंने सीमा की तरफ़ देखा, जो दरवाज़े के पास खड़ी ये सब सुन रही थी।
सीमा की आँखों में हल्की नमी थी।
वह जल्दी से आँचल से आँख पोंछकर अंदर भागने लगी कि कहीं उसे कोई देख न ले।

“सीमा!”
सरोजिनी जी ने आवाज़ दी।

“जी मालकिन…”
सीमा सकुचाते हुए वापस आई।

“आज से तू काम ख़त्म करने के बाद, रसोई की स्टूल पर बैठकर पहले चाय पीया कर।
फिर अगले घर जाना।
और हाँ, कल से बर्तन धोने के लिए पीछे वाले बाथरूम में गर्म पानी मिलेगा।
अपने हाथों का भी ख्याल रखना, समझी?”

सीमा ने यकीन और अनयकीन के बीच आँखें झपकाईं,
फिर सहजता से मुस्कुराकर बोली,
“जी मालकिन… भगवान आपको खुश रखे।”

उसके ‘भगवान’ वाले शब्द में एक सच्चा आशीर्वाद था,
जिसने हॉल के वातावरण को जैसे हल्का और पवित्र बना दिया।


कुछ ही हफ्तों में घर का दृश्य बदलने लगा।
सर्दी की सुबहें पहले जैसी ही ठंडी थीं,
पर अब रसोई में गर्म पानी की भाप के साथ
रिश्तों में भी एक मुलायम गर्माहट घुल रही थी।

सरोजिनी जी अब कभी-कभी खुद भी नाश्ते के साथ बैठ जातीं,
“आज पहले खा लेते हैं, पूजा थोड़ी देर बाद कर लेंगे,
भगवान भूखे पेट की पूजा से ज़्यादा,
दूसरों के प्रति हमारी सोच देखता है।”

दादाजी अखबार के साथ चाय भी खुद उठा लेते,
“बहू, तेری मीटिंग है ना आज दस बजे?
तू पहले खा कर लैपटॉप पर बैठ जा।
नाश्ते की चिंता मत कर, हम भी अब आधुनिक हो गए हैं।”

आदित्य और मयंक अब कभी-कभार बर्तन भी धो देते,
“अरे, हम भी तो इंसान हैं, हमारे हाथों में भी ताकत है,
सिर्फ़ बहुओं और नौकरों के सहारे क्यों रहें?”

सीमा की हँसी भी अब पहले से ज़्यादा खुलकर आने लगी थी।
कभी-कभी चाय पीते वक्त वह अपने गाँव की बातें सुना देती,
और सरोजिनी जी भी ध्यान से सुनतीं,
“अच्छा! वहाँ भी ऐसी-ऐसी ठंड पड़ती है?
तो तुझे तो बचपन से ही कितनी तकलीफ हुई होगी!”

एक दिन सरोजिनी जी शाम को अवनि के कमरे में आईं।
अवनि ऑफिस का काम निपटा रही थी।

“बहू, ज़रा फुर्सत है?”
उन्होंने पूछा।

अवनि ने तुरंत लैपटॉप साइड में रख दिया,
“जी मम्मीजी, बोलिए।”

सरोजिनी जी कुछ पल चुप रहीं,
फिर धीरे से बोलीं,
“तुमने उस दिन प्रेज़ेंटेशन में कहा था ना—
‘इंसान नियमों के लिए नहीं, नियम इंसान के लिए होते हैं।’
शाम को मैं कमरे में जाकर लंबे समय तक उसी बात पर सोचती रही।
सच कहूँ, जब बहू बनकर इस घर में आई थी,
तब भी कई नियम मुझे बहुत कठिन लगते थे।
पर तब किसी ने सुनने की कोशिश नहीं की।
हमने सीख लिया था—‘जो है, जैसा है, वैसे ही चलेगा।’
आज जब तुमने वही दर्द इतना प्यार से मेज़ पर रखा,
तो लगा, मैं भी अपने समय में बोल पाती,
तो शायद मेरी भी कुछ तकलीफें कम हो सकती थीं।”

अवनि की आँखें भर आईं।
उसने सरोजिनी जी के हाथ पकड़ लिए,
“मम्मीजी, अगर हम अपने समय की तकलीफें अगली पीढ़ी को सौंपें,
तो हमारा जीना बेकार हो जाएगा।
आपने जो सहा, उसने आपको मजबूत बनाया,
और आपने जो समझा, वो हमें आगे बढ़ने की ताकत दे रहा है।”

सरोजिनी जी ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा,
“और तू भी याद रखना,
कल तेरी भी बहू आएगी,
तब जो नियम तू बना चुकी होगी,
जरूरी नहीं कि वे उसके लिए भी सही हों।
वक़्त बदलेगा, हालात बदलेंगे।
तू भी तब उसके लिए जगह छोड़ना,
ताकि वो भी अपने हिस्से की नर्मी इस घर में ला सके।”

अवनि ने हँसते हुए कहा,
“बस मम्मीजी, यही सीख आगे की पीढ़ी को देनी है—
कि ‘हमने भी किया है’ सबसे बड़ा तर्क नहीं होता,
‘अब बेहतर कर सकते हैं’ ये सबसे बड़ा तर्क है।”

नीचे दालान में बच्चों की हँसी गूँज रही थी।
सीमा बर्तन धोते हुए गरम–गरम पानी में हाथ डुबोकर चैन की साँस ले रही थी।
दादाजी रेडियो पर पुराने भजन सुन रहे थे।
आदित्य और मयंक ऑनलाइन किराने की सूची बना रहे थे।

घर वही था,
दीवारें वही थीं,
पर अब नियमों की कठोरता के बजाय
रिश्तों की गरमाहट उस घर को सच्चा “घर” बना रही थी।और अवनि ने सोचा—
शायद यही सच है—
जब हम अपने अपनों के लिए बदलना सीख जाते हैं,
तभी असली नियम बनता है—
“प्यार पहले, परंपरा बाद में।”

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