सही फ़ैसला

सुबह का समय था। शहर की सड़कों पर हल्की-हल्की चहल-पहल शुरू हो चुकी थी। पूजा तेज़ कदमों से बस स्टॉप की ओर बढ़ रही थी। आज उसका नए स्कूल में पहला दिन था—एक शिक्षिका के रूप में। मन में उत्साह भी था और घबराहट भी। बार-बार घड़ी देख रही थी कि कहीं देर न हो जाए।

बस आई तो वह जल्दी से चढ़ गई। रास्ते भर वह सोचती रही—नया स्कूल, नए बच्चे, नए सहकर्मी… न जाने कैसे होंगे सब। पढ़ाई पूरी करने के बाद यह उसकी पहली नौकरी थी। उसने मन ही मन खुद को समझाया—“सब ठीक होगा, आत्मविश्वास रखो।”

स्कूल पहुँचते ही उसने रिसेप्शन पर अपना नाम बताया। चपरासी उसे प्रधानाचार्य के कक्ष तक ले गया।
“मैम, प्रिंसिपल आपको बुला रहे हैं,” कहकर वह लौट गया।

पूजा ने हल्की सी साँस ली और दरवाज़ा खटखटाया।
“आइए,” भीतर से आवाज़ आई।

जैसे ही वह अंदर गई, सामने बैठे व्यक्ति को देखकर वह ठिठक गई।
“अरे… आप?”
वह व्यक्ति भी कुछ क्षणों के लिए चुप रह गया।

“पूजा?”
“जी… सर,” उसने धीमे से कहा।

“बैठिए,” उन्होंने औपचारिक स्वर में कहा, लेकिन आँखों में आश्चर्य साफ़ था।

पूजा कुर्सी पर बैठ गई, पर उसका मन अचानक कई साल पीछे चला गया।

वह कस्बे का छोटा सा मोहल्ला… कच्ची सड़कें, शाम को बच्चों की किलकारियाँ। पूजा तब दस साल की थी। पास वाले घर में रहने वाला समीर—उससे दो साल बड़ा। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। पूजा पढ़ाई में तेज़ थी और समीर खेलों में।

हर शाम स्कूल के बाद दोनों गली में बैठकर होमवर्क करते। समीर गणित में कमजोर था, पूजा उसे समझाती। बदले में समीर उसे साइकिल चलाना सिखाता। दोनों की दोस्ती मासूम और निश्छल थी।

एक दिन स्कूल में भाषण प्रतियोगिता थी। पूजा का नाम आया। वह बहुत घबराई हुई थी।
“अगर मैं मंच पर भूल गई तो?” उसने रोते हुए समीर से कहा।

समीर ने मुस्कराकर कहा,
“तो क्या हुआ? भूल जाना कोई गुनाह नहीं। कोशिश करना ज़रूरी है।”

उस दिन पूजा ने पहला इनाम जीता। घर लौटकर उसने सबसे पहले समीर को मिठाई दी।

समय बीतता गया। आठवीं के बाद समीर के पिता की नौकरी दूसरी जगह हो गई। जाते समय समीर ने कहा था,
“मैं कभी न कभी लौटूँगा। तुम पढ़ाई मत छोड़ना।”

उसके बाद दोनों का संपर्क टूट गया।

वर्तमान में पूजा की आँखों में वही बीते दिन तैर गए। सामने बैठे व्यक्ति वही समीर थे—अब स्कूल के प्रधानाचार्य।

“आप यहाँ?” पूजा ने खुद को संभालते हुए कहा।

समीर ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“ज़िंदगी कभी-कभी पुराने रिश्तों को नए रूप में सामने ले आती है।”

थोड़ी औपचारिक बातचीत के बाद पूजा को उसकी कक्षा और विषय के बारे में बताया गया। सब कुछ सामान्य लग रहा था, लेकिन भीतर कहीं न कहीं पुराने भाव जाग रहे थे।

दिन बीतने लगे। पूजा पढ़ाने में पूरी लगन से जुट गई। बच्चों को वह केवल पाठ्यक्रम ही नहीं, जीवन के छोटे-छोटे मूल्य भी सिखाने की कोशिश करती। धीरे-धीरे उसकी पहचान एक अच्छी शिक्षिका के रूप में बनने लगी।

एक दिन स्कूल में वार्षिक कार्यक्रम की तैयारी चल रही थी। समीर ने सभी शिक्षकों की बैठक बुलाई।
“इस बार हम बच्चों में सिर्फ प्रतिभा नहीं, सहयोग और जिम्मेदारी की भावना भी दिखाना चाहते हैं,” उन्होंने कहा।

पूजा ने सुझाव दिया,
“अगर हम बच्चों से स्वयं कार्यक्रम की योजना बनवाएँ, तो वे ज़्यादा सीखेंगे।”

समीर ने सहमति में सिर हिलाया।
“अच्छा विचार है।”

बैठक के बाद समीर ने पूजा से कहा,
“तुम अब भी वही हो—हर बात में कुछ नया सोचने वाली।”

पूजा मुस्करा दी, पर उसने बात को वहीं खत्म कर दिया। वह जानती थी कि अतीत की यादों में बहना आसान है, लेकिन वर्तमान की ज़िम्मेदारियाँ कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं।

कुछ दिनों बाद स्कूल के एक छात्र के घर से फोन आया। छात्र के पिता बीमार थे और फीस भरने में असमर्थ थे। स्कूल के नियम सख्त थे। समीर असमंजस में थे।

पूजा ने कहा,
“सर, अगर हम शिक्षा को केवल पैसे से जोड़ देंगे, तो ऐसे बच्चों का भविष्य अंधेरे में चला जाएगा।”

समीर ने गहरी साँस ली।
“तुम ठीक कह रही हो।”

उन्होंने उस बच्चे की फीस माफ कर दी।

उस शाम समीर ने पूजा से कहा,
“शायद यही कारण है कि तुम शिक्षिका बनीं। तुम्हारे लिए शिक्षा सेवा है।”

पूजा ने उत्तर दिया,
“और आपके लिए?”

समीर कुछ पल चुप रहे।
“मेरे लिए यह जिम्मेदारी है… और शायद एक प्रायश्चित भी।”

“कैसा प्रायश्चित?”
“मैंने कभी अपने सपनों के लिए समझौता नहीं किया, पर दूसरों की जरूरतें देखना देर से सीखा।”

पूजा ने महसूस किया कि समय ने दोनों को बहुत बदल दिया है।

कुछ महीनों बाद समीर के माता-पिता स्कूल आए। बातचीत के दौरान उन्होंने पूजा की बहुत प्रशंसा की। जाते-जाते समीर की माँ ने सहजता से कहा,
“समीर, ऐसी बहू मिले तो घर खुश हो जाए।”

पूजा थोड़ी असहज हो गई।

शाम को समीर ने साफ़ शब्दों में कहा,
“मैं तुम्हें किसी दबाव में नहीं डालना चाहता। अगर तुम चाहो, तो हम सिर्फ पुराने दोस्त ही रह सकते हैं।”

पूजा ने शांत स्वर में कहा,
“दोस्ती में भी ईमानदारी होनी चाहिए। मैं अपने जीवन में रिश्ते ज़रूर चाहती हूँ, पर किसी अधूरे भरोसे पर नहीं।”

समीर ने सिर झुका लिया।
“शायद यही सबसे बड़ा सबक है—रिश्ते तभी टिकते हैं जब उनमें सम्मान हो।”

कुछ समय बाद पूजा को दूसरे शहर के प्रतिष्ठित स्कूल से प्रस्ताव मिला। यह उसके करियर के लिए बड़ा अवसर था। वह दुविधा में पड़ गई।

समीर ने कहा,
“तुम्हें जाना चाहिए। अपने सपनों को मत छोड़ो।”

पूजा ने मुस्कराकर उत्तर दिया,
“यही तो आपने मुझे बचपन में सिखाया था।”

अंततः पूजा ने नई नौकरी स्वीकार कर ली। विदाई के दिन स्कूल के बच्चे रो पड़े। समीर ने उसे शुभकामनाएँ दीं।

बस में बैठते समय पूजा ने पीछे मुड़कर स्कूल की इमारत को देखा। उसे लगा जैसे जीवन ने उसे एक बार फिर सिखा दिया हो—

कि सच्चे रिश्ते कब्ज़ा नहीं करते, हौसला देते हैं।
कि प्यार का सबसे सुंदर रूप है—एक-दूसरे को आगे बढ़ते देखना।

और यही सीख उसके जीवन की सबसे बड़ी नैतिक जीत बन गई।

लेखिका : डिंपल गोयल

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