Moral Stories in Hindi
“सुमन देखो तो,कौन आया है?”अपने कमरे में ऑफिस जाने के लिए तैयार होते हुए सुधाकर जी ने पत्नी से कहा।
सुमन थोड़ी ही देर में हड़बड़ाते हुए आई ,और कहा”सुनिए जी, जल्दी से बिस्तर पर सो जाइए।ऑफिस थोड़ी देर बाद चले जाइयेगा।मधुकर के मां-बाप आएं हैं।वही पुराना राग अलाप रहें हैं।अब हमने ठेका थोड़े ही ले रखा है,उनका।उनकी किस्मत का भोग तो उन्हें ही भोगना पड़ेगा।”
सुधाकर ने आश्चर्य और अविश्वास से पत्नी की ओर देखकर कहा”सुमन,तुम्हें शर्म आनी चाहिए,ऐसी बातें करते हुए।मधुकर के माता-पिता को मैं अपने माता-पिता मानता हूं।कम से कम अपने संबोधन में,सम्मान तो रखो।असहाय वृद्धों के लिए तुम्हारी यह सोच बहुत ही ग़लत है।और हां,मैं बिस्तर में क्यों पड़ जाऊं अचानक?मैं तो भला चंगा हूं।तुमने उनसे कुछ कहा है क्या,मेरे बारे में?”
“हां तो!और क्या करती?चार बार आ चुके हैं।हर बार कहते थे कि,तुमसे ऑफिस में मिलेंगे।मैंने टरकाने के लिए कह दिया था,कि तुम्हारे पैर का ऑपरेशन करवाने तुम हैदराबाद गए हो।एक महीने कब बीत गए,मुझे तो पता नहीं चला,पर इनको याद है देखिए।संबंधों की दुहाई देकर मुआवजा पाना चाहते हैं ये।मैं खूब जानती हूं ऐसे लोगों को।आप का अपना परिवार है,अपनी जिम्मेदारियां हैं। जान-
पहचान के नाम पर गले लटकना चाहतें हैं।”सुमन बेधड़क बोले जा रही थी,तभी सुधाकर ने देखा,चाची जी कमरे के दरवाजे के बाहर खड़ी आंखें पोंछ रही हैं।सुधाकर दौड़कर गया और पैर छूकर बोला”चाची ,कैसी हो तुम?इतने बरस में सुधि ली अपने लड्डू की।आओ ना,अंदर आओ।”
चाची ने गले लगा लिया सुधाकर को।आंसू पोंछते हुए बोलीं”मैं भूली ही कहां थी अपने लड्डू को।बस तुझे ऊपर पंहुचते हुए देख रही थी।मेरा कन्हैया तो राजा बन गया रे।खूब संतोष हुआ तुझसे मिलकर।अब पांव कैसा है ये?”
सुधाकर निरुत्तर था,चाची के इस प्रश्न पर।ख़ुद की नजरों से गिरा था आज।सुमन की ओर देखा,तो वह समझ कर रसोई की तरफ मुड़ गई।सुधाकर चाची को बिस्तर पर बिठाने लगा तो उन्होंने हंसकर कहा”अरे,लड्डू,बाहर बैठक में बुढ़ऊ भी बैठें हैं।चल उनसे भी मिल ले।”
सुधाकर हंसते हुए चाची के साथ बाहर बैठक में आ गया।चाचा को देखकर विश्वास ही नहीं हुआ,कि ये वही सोमेश्वर दास जी हैं,गांव के सरपंच।उन्हीं के बाग से मधु के साथ मिलकर खूब फल चुराए थे उसने। जब-जब चाची के पास शिकायत करने पंहुचते तो उल्टा उन्हीं को डांट देतीं थीं वे बुढ़ऊ कहकर।आज वही चाचा जी झुकी हुई कमर लेकर असहाय से लग रहे थे।पैर छूते ही गले लगाकर
जोर-जोर से रोने लगे वे।सुधाकर ने धीरज बंधाते हुए उन्हें चुप कराना चाहा तो चाची बोली “रो लेने दे रे लड्डू इन्हें।पिछले छह महीने से रंज का ज्वालामुखी भीतर दबाए बैठें हैं।मैं तो रो लेती हूं,लल्ला को याद कर के।ये आदमी रो ही नहीं पाया।तुझसे मिलना बहुत जरूरी था लड्डू।बहुरिया ने बताया कि तू बाहर गया है, ऑपरेशन करवाने।महीना भर बाद आने वाला था ,इसी से हम अभी आए।”
सुधाकर ,सुमन के रचे हुए त्रिया चरित्र को समझने का प्रयास कर ही रहे थे कि सुमन चाय-नाश्ता नौकरानी के हांथ में सजवाकर आई।सुधाकर ने अपने हाथों से चाय चाचा-चाची को दी।चाची ने कपड़े के थैले से पोटली निकाली,और संकोचवश सुमन के हांथ में रखते हुए बोली”बहुरिया,ये लड्डू की पसंद की कुछ चीजें हैं।उसे खिला देना।हमें जल्दी निकलना होगा।बस चली जाएगी।लड्डू से कुछ जरूरी बात करनी थी।वकील के पास जाना पड़ेगा।तुम बच्चों को लेकर आना कभी गांव।बहुत साल हो गए तुम्हें आए।”
सुमन की त्योरियां चढ़ गई।वकील के पास जाकर क्या जरूरी बात करनी है?फिर से बेवकूफ बनाएगी सुधाकर को।”
सुधाकर ने कहा”अभी आप लोग कहीं नहीं जा रहें हैं।मेरे साथ रहिए।मैं खुद छोड़ आऊंगा आप लोगों को।जो भी जरूरी बात है,बाद में होगी।सुधाकर के बारे में तो बताइये।मैं विदेश क्या चला गया,आप लोगों ने मुझे पराया कर दिया।उसकी मौत की खबर भी नहीं की आपने।आकर गांव गया,तब पता चला कि आप लोग गांव का घर-बार छोड़कर कहीं तीरथ में जा चुके हैं।तब से मैं भगवान से दिन -रात
आप लोगों से मिलने की प्रार्थना करता रहा हूं।अपने लड्डू को कन्हैया कहती थी,और भुला भी दिया।तरसा दिया आप लोगों ने मुझे।कंपनी ने पांच साल का बान्ड भरवा लिया था,इसी लिए मैं आ नहीं पा रहा था अपने देश।जब पैसा दिया उतना,तब काम छोड़कर आ गया।अब मैं यहीं कंपनी में काम करने लगा हूं।मैनेजर बन गया हूं चाची।ये कंपनी का ही दिया घर है।अपना घर तो मैं आपके गांव में ही बनाऊंगा,वो भी जल्दी।बस आप लोग अपना हांथ रखिएगा मेरे सर पर।”बोलते हुए सुधाकर रो रहा था।चाची की ममता का बांध भी टूट गया।जाने कब तक रोते रहे दोनों।
खाना खाने के बाद चाची ने थैली निकाली ,उसमें से एक चिट्ठी दी सुधाकर को।चिट्ठी बंद ही थी लिफाफे में।साथ में कुछ कागजात भी थे।चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते सौ बार रोया होगा सुधाकर।पढ़ने में अच्छा नहीं था मधु। खेत-खलिहान,जमीन खरीदना -बेचना ही करना चाहता था। बारहवीं के बाद सुधाकर का चयन अच्छे कॉलेज में हो गया था,जिसकी फीस भी अच्छी खासी थी।एक अनाथ बच्चे के लिए मधु की मां आगे आईं और उसका एडमिशन हो गया।घर बोलने को तो मधु का ही घर उसका था।यहां
सुधाकर शहर पढ़ने चला गया,और मधु ने सेना ज्वाइन कर ली। छुट्टियां मिलते ही जब मधु आता ,तो सुधाकर के पास पहुंच जाता।सुधाकर को लेकर ही आता साथ गांव।बड़े होकर भी खूब धमाचौकड़ी मचाते दोनों। धीरे-धीरे एम बी ए पास कर लिया सुधाकर ने।विदेश में नौकरी का अवसर मिला,तो इस
बार भी चाची ने पैसों का जुगाड़ किया।जैसे ही मना करता तो मधु कहता,ले -ले रे मेरी अम्मा का कन्हैया है तू।बाद में सुदामा बनकर मैं ही आऊंगा तेरे पास मांगने।सुधाकर विदेश जा रहा था ,तो मधु कैसे ना आता।एक दिन की स्पेशल छुट्टी लेकर आया था। चाची ने पांच साल का नाश्ता-खाना मानो एक ही बार में भेजा था।
सुधाकर को बाद में सुमन ने बताया “मैंने मधु भैया को मजाक में सुदामा कहकर बुलाया था।उन्हें गुस्सा नहीं आया।आप जब कन्हैया हैं चाची के तो मधु भैया सुदामा ही हुए ना।”सुधाकर की आत्मा रो पड़ी।चिल्लाते हुए कहा सुमन को तब”तुम्हें क्या पता,कौन सुदामा ,कौन कन्हैया।अरे सुदामा तो मैं था।अनाथ ,गरीब ,आश्रित बच्चे कोअपना बेटा मानकर बड़ा किया है मधु के परिवार ने।तुमने उन्हें ही सुदामा कह दिया।कितनी छोटे दिल की हो तुम सुमन।
तब से अब देखा है दोनों को।इकलौते पुत्र को खोने के बाद ,सब कुछ छोड़ -छाड़कर मेरे पास आएं हैं जरूरी काम से।और सुमन उनको टरका रही है।ऐसा क्यों कर रही है।शादी में भी माता-पिता के पूरे नेंग चाचा-चाची ने ही किए थे।अपनी हवेली में चाची ने ही मुंहदिखाई करवाई थी।अब चुप नहीं रहेगा,सुमन से बात करनी ही पड़ेगी।
सुमन से कुछ पूछने से पहले ही वो धमकाने लगी”देखिए,ये सच है कि उन्होंने आपके लिए बहुत कुछ किया है।पर सच यह भी है कि अब वो बेसहारे हैं।बेटे की कमी आपसे तो पूरी नहीं होगी ना।इनके होंगे कई प्रकार के अधूरे काम,जो अब ये आपके कंधे में बंदूक लगाकर करवाना चाहते हैं।आपके पास इतना समय है भी?”
सुधाकर ने एक शब्द नहीं बोला।पत्र तो वह पढ़ चुका था अपने मित्र का।पर वो कागजात कैसे हैं।क्या चाचा चाची की जमीन गिरवी है किसी के पास?है अगर तो मैं ही छुड़वाऊंगा।
रात में चाचा -चाची से इत्मीनान से बात की ,तब पता चला। चाचा-चाची ने मधु के जाने के जाने के पहले ही पूरी जमीन दो हिस्सों में बांट दी थी।मधु के जाते ही उसके हिस्से का भी सुधाकर को ही मिला था।अब वकील के पास जाकर रजिस्ट्रर्ड करना था।इसी काम से दोनों आ रहे थे बार बार।
सुमन कान खड़े कर पति और मधु के माता-पिता की बातें सुन रहीं थीं।उसे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इतनी जमीन कोई अपने किसी मुंहबोले बेटे को दे सकतें हैं।चार -पांच करोड़ की तो होगी ही। भविष्य सुरक्षित हो जाएगा।
अगले दिन सुधाकर , चाचा-चाची के साथ गांव गए तो सुमन को भी ले गए। रजिस्ट्रेशन के समय चाचा-चाची द्वारा दी हुई सारी जमीन एक ट्रस्ट के नाम स्थांतरित कर दी सुधाकर ने।जिसके प्रमुख चाचा-चाची को बनाया गया।उसने सबके सामने यह घोषणा की “मधुकर की इच्छा थी यहां स्कूल
और कॉलेज बने।बच्चों को बाहर पढ़ने के लिए ना जाना पड़े।तो इस जमीन में वही बनेगा।सुधाकर की कमाई का कुछ हिस्सा इस अभियान में शामिल होगा,बिना बाधा के। हस्ताक्षर करने के बाद सुधाकर को लगा ,उसका दोस्त मधु उसके साथ ही खड़ा है।दोनों के सपनों को अब सत्य और क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी उसकी है।वह बिना बाधा यह जिम्मेदारी निभाएगा।”
सुमन असंतुष्ट दिखीं तो सुधाकर ने सभी के सामने एक और प्रतिज्ञा ली”मैं , चाचा चाची का आजीवन पालन-पोषण करूंगा।यहीं उनके घर में ही मेरा परिवार रहेगा,एक साथ।यदि किसी को आपत्ति हो तो,जा कर जहां मर्जी रह सकता है।”
पति द्वारा सारी जमीन दान में देते हुए देख सुमन की जबान चिपक गई तालू से। सुधाकर का यह रूप तो उसने कभी देखा ही नहीं था पहले।
चाचा-चाची ने मधु के द्वारा तैयार कराए कागजों को सुधाकर को सौंप दिया।अब वे अपने पुत्र मोह से आजाद होना चाहते थे। तीर्थ जो अधूरा रह गया था ,उसे अब पूरा करना था।चाची की विशेष इच्छा थी,जाने की।
तब सुधाकर ने वकील बुलाकर चाचा-चाची को अपने पालक के रूप में स्वीकार कर लिया।और बोला”आज से आप मेरे माता-पिता।आपने तो बचपन में ही मुझे अपना लिया था,मुझसे ही देर हो गई आप लोगों का आशीर्वाद पाने में।अब आप लोग शहर में मेरे घर पर ही रहेंगें।जब मन करेगा,सब मिलकर गांव आ जाएंगे।”,
चाचा-चाची ने सुधाकर को गले लगाकर कहा”तूने तो दोस्ती का मान रख लियो रे।कहां तू राजा कृष्ण,और कहां हम सुदामा के गरीब माता पिता।”
सुधाकर ने कहा”मेरी सांसें आपकी अमानत है।आज मैं जो भी हूं,आप लोगों के कारण ही हो पाया।सुदामा तो मैं था।यशोदा और नंदलाल के साथ रहकर मुझे आप दोनों ने कन्हैया बना दिया।मेरा दयालू मोहन ख़ुद वैभव छोड़ सुदामा बन गया।देश की सेवा में अपने प्राण न्यौछावर कर गया वो।अब उसके सपनों को पूरा करने की जिम्मेदारी मेरी।और आप लोगों को अब मैं कहीं भागने नहीं दूंगा।”
सुमन की आंखें फटी रह गई ।क्या सोचा था उसने।इकलौते बेटे की मौत से गरीबी झेल रहे बूढ़े -बूढ़ी सुधाकर से मदद मांगना चाहते हैं,पर यहां तो इन्होने ही सुधाकर को राजा बना दिया।मैं ही ग़लत थी।रिश्तों की मर्यादा नहीं समझ पाई।सबसे पहले सुधाकर के पैरों में गिरकर माफी मांगी उसने। चाचा-चाची ने तो माफी मांगने के पहले ही उसे गले से लगाकर ऋणी कर दिया।
सुधाकर का पत्नी की आंख खोलने के लिए यह कदम उठाना अनिवार्य था।
शुभ्रा बैनर्जी