उमा देवी ने, आज फेसबुक पर देखा ,आज फिर एक लड़की के जीवन की बलि ‘दहेज़ रूपी दानव’ ने ले ली। उन चित्रों को देख, उनकी आँखों में आंसू आ गए। वो सोचने लगीं ,उनके अत्याचारों को वो सहन न कर सकी होगी। शीघ्र ही साहस छोड़ दिया होगा। कुछ दिन और जी लेती ,महारानी लक्ष्मी
बाई ,जिसने अंग्रेजों से ”लोहा लिया,”तुम ससुराल वालों को धूल न चटा सकीं। अपने ही प्रश्न में उलझी ,कैसे धूल चटाती वो कोई दुश्मन थे ? वे तो ऐसे रिश्ते थे जिनके लिए उसने अपनी मिटटी को बदला। दूसरे के आंगन में बसना चाहती थी, छाया करना चाहती थी किन्तु वो मिटटी उसे रास न आई। उन लोगों ने उसे जमने ही नहीं दिया उससे पहले ही उसे उखाड़ फेंकने की” साज़िशें” रच डाली होंगी।
किसी पौधे को, जब दूसरी मिटटी में रोपते हैं ,तो तब उसे बड़े प्यार से छाँव में रखा जाता है ,ताकि कड़ी धूप उसकी नाजुक जड़ों को सुखा न दे, किन्तु ये ऐसा पौधा है ,पिता की छत्र -छाया से निकलकर ,अपने अस्तित्व की तलाश में भटकती है ,कांपते, धड़कते दिलों से उस मिटटी में अपने को
जमाने का प्रयास करते हुए भी, उसे कभी धूप, तो कभी आंधी जैसी परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। ममतामई छाँव क्या होती है ? वो तो जैसे वहां दिखलाई ही नहीं देती। उस पर वैसे तो काम का उत्तरदायित्व पूरा होगा किन्तु अधिकार ,प्यार की वो हक़दार नहीं रही होगी। बहाना ‘दहेज़ ‘ही नहीं
होता ,गृहस्थी में अन्य अनेक कारण ऐसे बन जाते हैं जो झगड़े की जड़ का कारण बन जाते हैं और बात मार -पिटाई से लेकर ,घर से धक्का -मुक्की तक आ जाती है। तब ऐसे समय में क्रोध में इंसान न जाने क्या कदम उठा जाता है ?
मन विचलित हो उठा ,उन्हें अपनी बातें भी स्मरण हो आईं ,जब वे गर्भ से थीं। घर के सम्पूर्ण कार्य के पश्चात भी सास का मुँह सीधा नहीं ,बहु ‘हनीमून’ पर गयी या नहीं किन्तु सास को घूमना है ,उनके शौक पूरे होने चाहिए ,कभी रिश्तेदारी में तो कभी सतसंग के बहाने शहर से बाहर घूमने जाना हो।
उस दिन भी उन्हें क्रोध आ रहा था ,उन्हें घूमने जाना था। उमा से अब बैठकर पोंछा नहीं लगाया जाता था क्योंकि आठवां महीना जो पूरा हो गया था। वो कामवाली लगाना नहीं चाहती थीं क्योकि उनके घर में ,मैं पढ़ी -लिखी कामवाली जो आ गयी थी ,इसीलिए उन्हें काम करना पड़ गया।
उस दिन बहुत देर तक न जाने क्या -क्या सुनाती रहीं ?उस दिन उमा को भी बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने ससुर के सामने जाकर पूछा,वो उनसे पर्दा करती थी किन्तु उस दिन पर्दा नहीं किया -आप बताइये !मेरी गलती क्या है ?इस हालत में जितना काम हो रहा है, कर ही रही हूँ ,तब भी ये मेरे पीछे क्यों पड़ी रहती हैं ?
ससुर के सामने ऐसे खड़े देख ,दूर से ही चिल्लाईं -हरामज़ादी !ससुर के सामने मुँह उघाड़े खड़ी है।
उमा ने रोते हुए पूछा -तो क्या करूं ?किससे कहने जाऊँ ? ये भी तो पिता समान ही हैं ,मेरे माता -पिता ने तो यही कहा था ,वे भी हमारी तरह ही माता -पिता हैं किन्तु आप लोगों को मुझमें, अपनी बेटी कभी नजर नहीं आई। इस तरह के न जाने, कितने क़िस्से उसकी नजरों के सामने चलचित्र की तरह घूम गए।
कभी रोती ,कभी जी करता मर जाऊं किन्तु माँ का कथन स्मरण कर वो विचार त्यागकर जीवन में आगे बढ़ने का प्रयास करती। उसकी माँ ने कहा था -”आत्महत्या ”तो कायर लोग करते हैं ,जीवन में संघर्षों से भागना नहीं ,वरन उनका सामना करना चाहिए।”मेरा तो मत है ,”आत्महत्या करना भी इतना आसान नहीं ,जब अपने पीछे छोटे -छोटे बच्चों के मासूम चेहरे दिखलाई देते हैं ”,तब लगता है ,इस
जीवन से लड़ना ही होगा। शायद इस लड़की की हिम्मत टूट गयी होगी। घरों में ऐसी -ऐसी साज़िशें होती हैं ,जो धीरे -धीरे चिंगारी की तरह सुलगती रहती हैं। वे लोग समाज के ड़र से,ताकि बाहर किसी को पता न चले , बहु को धीरे -धीरे ,थोड़ा -थोड़ा तोड़ते रहते हैं ,और वो लड़की भी परिवार की इज्जत और संस्कारों की पोटली लिए सहन करने पर विवश हो जाती है। माता -पिता छोटे बहन -भाइयों के रिश्तों की दुहाई देकर ,निभाने की बात कहकर कई बार लापरवाह भी हो जाते हैं।
इतना पैसा लगाकर विवाह किया और अब यहां आकर रहेगी तो क्या लाभ ?लोग कहेंगे ,बड़ी बहन छूटी पड़ी है ,न जाने छोटी कैसे निबाहेगी ? किन्तु यह नहीं देखते, गलती किसकी है ?
आज मेरे विवाह को पच्चीस वर्ष हो गए ,किन्तु वे’ साज़िशे’ आज भी ज्यों की त्यों चलचित्र की तरह आज भी उनकी नजरों के सामने घूमने लगती हैं और अपनी बेटी के भविष्य की चिंता सताने लगती है , ये कैसे उन ”साज़िशों” का सामना करने लायक होगी ? इसे कैसे इतनी मजबूत बनाऊं ?जो किसी भी परिस्थिति का डटकर सामना कर सके क्योंकि समाज कितना भी उन्नति कर ले ?लोग कितने भी पढ़ -लिख जाएँ ? साज़िश सास करे या बहु!ये ”साज़िशें ”कभी कम होने वाली नहीं हैं।
✍🏻लक्ष्मी त्यागी