रीना एक सीधी-सादी, पढ़ी-लिखी और बहुत संस्कारी लड़की थी। उसकी नई-नई शादी हुई थी। वह हर रिश्ते को निभाने में विश्वास रखती थी। जब वह अपने ससुराल आई, तो यही ठान लिया था कि इस घर को भी अपने मायके जैसा प्यार देगी, और सबका दिल जीत लेगी।
रीना की सास अक्सर बीमार रहती थीं। रीना दिन-रात उनकी सेवा में जुटी रहती — दवाइयाँ देना, उनका पसंदीदा खाना बनाना, उनका ध्यान रखना। लेकिन फिर भी, उसकी सास को न जाने क्यों, रीना की हर बात खटकती थी। वह सोचती थीं कि बहू अगर ज़रा भी आराम करेगी या मुस्कुराएगी, तो बिगड़ जाएगी।
उन्हें रीना का घर से बाहर जाना, किसी से बात करना या खुद के लिए कुछ सोचना बिल्कुल पसंद नहीं था। वे हमेशा यही चाहती थीं कि रीना एक दासी की तरह घर में काम करे — बिना शिकायत, बिना थके।
रीना ने कभी कुछ नहीं कहा। वह अपने मन की बात अपने तक रखती रही। सोचती थी कि एक दिन उसके प्रेम, सेवा और समर्पण को उसकी सास जरूर समझेंगी।
फिर एक दिन आया — रीना की शादी की पहली सालगिरह। उसका पति चाहता था कि दिन कुछ खास हो। वह उसे फिल्म दिखाने ले गया। फिल्म के बाद रीना का मन होटल में खाना खाने का था, लेकिन पति ने मां के डर से ठेले से छोले-भटूरे दिलवा दिए और घर लौट आया। रीना उन छोले-भटूरों से भी बहुत खुश थी, क्योंकि उसे अपने पति का साथ मिला था।
जैसे ही दोनों घर पहुँचे, सास गुस्से से भड़क उठीं।
“खूब पैसे उड़ा लिए? बाहर खाना भी खाकर आए होंगे अब तो मां-बाप भाई बहन से क्या मतलब अब तो बीवी ही सब कुछ है पूरा जोरू का गुलाम बन गया सब पैसा उड़ा दो ऐस कड़वी बातें सुनकर रीना तो रोते हुए रूम में चली गई दुख तो उसके पति को भी बहुत हुआ वह सोचने लगा पूरा घर मेरी ही कमाई से चलता है क्या मैं अपनी पत्नी पर ₹500 भी खर्च नहीं कर सकता लेकिन वह अपनी मां को कुछ नहीं बोला
उसी पल उसके मन में एक बात गूंजने लगी —
“सास कभी बहू का दुख नहीं समझ सकती।”
शायद इसलिए कि बहू को कभी इंसान नहीं, सिर्फ एक जिम्मेदारी समझा जाता है।
रीना को अब यकीन हो चला था कि सेवा, त्याग और प्रेम भी तब तक व्यर्थ हैं, जब तक सामने वाला उन्हें समझने की कोशिश न करे।
उसने खुद को समेटा, आंसू पोछे और मन ही मन ठान लिया —
अब वह अपने लिए भी जिएगी।
लेखिका रेनू अग्रवाल
#सास को कभी बहू की तकलीफ नहीं दिखती