राखी का त्यौहार आने वाला था। बाजार रंग-बिरंगी राखियों से सजे हुए थे, और बहनों की भीड़ हर दुकान पर उमड़ रही थी। मगर इस रौनक से दूर, एक छोटे से गांव की स्नेहा, चुपचाप एक राखी अपने हाथों से बना रही थी। वह हर साल की तरह इस बार भी अपने भाई अतुल को राखी भेजने जा रही थी। फर्क बस इतना था कि अतुल पिछले सात वर्षों से उससे न तो मिला था, न ही कोई पत्र लिखा था।
स्नेहा और अतुल एक साथ पले-बढ़े थे। माँ-बाप के गुजर जाने के बाद दोनों ने एक-दूसरे का सहारा बनकर जीवन जिया। लेकिन जब अतुल शहर पढ़ने गया, तो धीरे-धीरे उसकी दुनिया बदल गई। नए दोस्त, नया माहौल और फिर नौकरी की भाग-दौड़… उसने स्नेहा की खबर लेना बंद कर दिया।
स्नेहा को कोई शिकायत नहीं थी। हर साल राखी बनाकर भेजती, एक छोटा सा पत्र लिखती — मुझे तुझसे कुछ नहीं चाहिए, बस तू खुश रहना भाई मेरी यही कामना है।
इस बार स्नेहा ने राखी के साथ एक मिट्टी की छोटी सी गुड़िया भेजी, जिसे उन्होंने बचपन में मिलकर बनाया था। और लिखा —
भाई, ये बंधन सिर्फ कच्चे धागों का नहीं है। ये बचपन की मिट्टी, माँ की यादें और तेरे हर खुशी व आँसू का साथी है। तू भूले तो सही पर मेरा दिल हर साल तुझे याद करता है।
इधर शहर में अतुल एक बड़ी कंपनी में अफसर बन चुका था। उसी दिन उसकी टेबल पर डाक आई। राखी और गुड़िया देखकर उसकी आँखें भर आईं। गुड़िया को देखते ही बचपन की गलियाँ, माँ की गोद और स्नेहा का प्यार जैसे सामने आ गया।
अतुल तुरंत छुट्टी लेकर गांव पहुँचा। दरवाजे पर खड़ी स्नेहा को देखकर उसकी आँखें झुक गईं। मगर स्नेहा की मुस्कान में कोई शिकवा नहीं था। वह बस बोली —आ गया तू? चल, पहले तुझे मिठाई खिलाऊँ।
अतुल की आँखों से आँसू बह निकले। उसने राखी की थाली उठाई और हाथ आगे बढ़ाकर बोला,
दीदी, आज समझ आया -ये बंधन वाकई सिर्फ कच्चे धागों का नहीं है, ये तो वो रिश्ते हैं जो वक्त, दूरी और खामोशी को भी पार कर लेते हैं।
प्रतिमा पाठक
दिल्ली
#ये बंधन सिर्फ कच्चे धागों का नहीं है ।