क्या कहा आपने…। चिंटू की शादी में चाचा के घर जाना है…
आप भूल गई माँ… ये वही चिंटू है… जिसे आप अपना छोटा बेटा मानती थी और ये वही चाचा है जो… उस एक्सीडेंट में दीदी के ससुर से पैसे माँग रहे थे…कि… अनु आपकी भी कुछ लगती है!”
“ जाने दो बेटा… ये क्यों भूल जाती हो?? कि उस एक्सीडेंट की ख़बर लगते ही सबसे पहले पहुँचे थे वहीं चाचा-चाची।”
“हाँ माँ! हमे सब याद है, आप भूल रही है.. उस एक्सीडेंट ने सबसे पहले वो राह चलते कांवड़िये और भले से सी.एम. ओ. दंपति थे, जिन्होंने आपलोगो को फर्स्ट – एड के लिए निकट सरकारी हॉस्पिटल में भर्ती करे था और दीदी की लेकर लखनऊ मेडिकल कालेज ले गए थे।
और रही बात चाचा-चाची की तो.. वो उस जगह से नज़दीक थे सो उनका वहाँ पहले पहुँचना उनका कर्तव्य था और कावड़ियों और सीएमओ की इंसानियत ।”
बेटी की बातें सुन कर मेरी आँखों में चलचित्र की तरह वो एक्सीडेंट की घटना घूमने लगी…
हमसब परिवार सहित इलाहाबाद जा रहे थे।रास्ते मे हमारी कार का एक्सीडेंट एक गाय को बचाने मे हो गया।
दूसरे दिन सावन का आखिरी सोमवार एवं रक्षा बन्धन होने की वजह से कावडिय़ों का दस्ता इलाहाबाद की ओर जा रहा था।उन्होंने ही दोनों तरफ के वाहनों को रोक कर हमारी मदद की।उनमे से एक पूर्व सी.एम.ओ. दम्पत्ति भी थे, जिन्होंने हमसब को एक नजदीकी अस्पताल मे हमें प्राथमिक चिकित्सा दिलवाई।राहगीरों ने हमारी बहुत मदद की,हमारा सामान एवं हम सबको अस्पताल तक पहुंचा कर और हमारे नजदीकी रिश्तेदारो के आ जाने पर हम सभी को उन्हें सौंप कर अपनी-अपनी यात्रा जारी की।
हालांकि उस हादसे मे मैं अपने पति को नहीं बचा पाई,लेकिन उन कावडियों, राहगीरों और सी.एम.ओ.दम्पत्ति की ताउम्र त्रृणी रहूँगी।उन्हीं की बदौलत हमारे परिवार के बाकी सदस्य सुरक्षित हैं।
“कहाँ खो गई माँ??”बेटी की आवाज़ सुन कर वर्तमान में लौटी मैं और बोली—“ तुम सब ठीक कह रहे हो पर… ये मत भूलो कि… चाचा तुम्हारे पापा के भाई है खून का रिश्ता है तुम्हारा उनसे।
“मैं उस घर की बहू हूँ…सबसे बड़ी बात चाची-चाचा से बड़ी हूँ…इसलिए सभी रिश्तों को साथ लेकर चलना मेरा कर्तव्य है, उनकी गलतियों को माफ़ करके उनको नई राह दिखाना मेरा फर्ज़ है। छोटे तो बचपना करते ही है लेकिन बड़ों का काम बड़प्पन दिखाना होता हैं, “रिश्तों की पोटली” बनाकर रखने से ही घर मजबूत होता है इसलिए मेरी बात मानो और सारी बातें भूल जाओ ।”
“ आप भूल सकती है माँ… पर हम भाई-बहन नहीं…क्योंकि आपकी दी हुई परवरिश की वजह से हमने उन्हें कभी उन्हें ग़ैर नहीं समझा और एक्सीडेंट में सबसे पहले चाचा को जी फ़ोन किया… हाँ मानते है उन्होंने मेरे पापा का अंतिम संस्कार किया … वो चाहे इंसानियत के नाते या फिर उनका भाई के नाते फ़र्ज़ के समझ कर किया… हमारा-आपका कुछ नहीं किया…पापा के बाद कभी किसी ने पलट कर कभी हाल-चाल नहीं लिया… सबकों ये लगा कि…
कहीं उन्हें ही ज़िम्मेदारी न उठानी पड़े । माँ आप और दीदी तो हॉस्पिटल में एडमिट थी पर मैं माँ…पापा आंतिम संस्कार के बाद माँ सब रिश्तेदार बैठ कर पंचायत करते थे… पापा क्या-क्या… छोड़ गए है… कितना क़र्ज़ है… अभी कुछ दिन पहले ही बड़ी बेटी की शादी करे थे…बेटा अभी पढ़ रहा … किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर ये नहीं कहा कि… रानों बेटा तुम परेशान ना हो… हम सब है ना…”
“देखो बेटा!हम बस यहीं कहेंगे कि… #रिश्ते अहंकार से नहीं त्याग और माफ़ी से टिकते है ।”
लेखिका : संध्या सिन्हा