रेशमी साड़ी – अर्चना नाकरा : Moral Stories in Hindi

मां खुद के लिए कभी कुछ क्यों नहीं खरिदती थी नानी ने दे दिया… कभी मामा ने !

‘पापा क्यों नहीं, मां के लिए कुछ लेकर आते थे’

दादी के लिए भी तो लेकर आते थे ..

उसे समझ में नहीं आता था

पुलकित अब छोटा नहीं रहा था

तिस पर मां ‘रसोई की गर्मी में दिन भर खाना पकाती ‘

दोनों बुआ, चाचा.. सब साथ रहते थे

परिवार बहुत बड़ा था

‘पर मदद करने वाला कोई नहीं’

मां का..कहीं बाहर जाना होता नहीं था

या शायद वह ‘अपनी स्थिति के कारण जाना नहीं चाहती थी’

‘बहुत मन करता था पुलकित का’

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मां को भी कभी.. ‘सजे सवरे देखें ‘

और  मां,साल की चार साड़ियां बदल बदल के ही पहनती !

मुंह पर फिर भी मुस्कुराहट रहती!

उसने हर महीने थोड़े थोड़े पैसे बचाए थे

फिर भी कम लग रहे थे.. सोच रहा था, मां के पर्स में से निकाल लूं?

क्या अलमारी खोल… पर्स निकाल लूं?

‘पर हाथ कांप गए’

‘पर्स फिर भी खोला’ शायद देखना चाहता था कि उसमें कितने रुपए हैं?

‘सौ सौ के  के चार, पांच नोट तो दिख रहे थे’

पर हिम्मत नहीं पड़ी..!

‘दरवाजे के पीछे तभी आहट हुई’

मां खड़ी थी!

कमर पर हाथ रखे …

और पुलकित के हाथ में पर्स था

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मां  ने पूछा.. कुछ चाहिए?

वो बोला, नहीं मां !

कुछ नहीं चाहिए!

अच्छा इधर आ … मां ने पुलकित को कहा.. वो फिर ,बोला.. नहीं चाहिए मां !

पता नहीं क्यों .आज अलमारी में से कुछ निकालने जा रहा था तो

पर्स पर..  हाथ चला गया मुझे कुछ नहीं चाहिए !

सुन तो सही…

यह ₹200 तेरे लिए निकाल कर रखे हैं अलग से!

मां ने अलमारी के कपड़ों में रखे ‘ सामान से कागज़ के एक पुलिंदे को खींचा’

और लपेटे हुए 50 ₹50  के चार नोट.. पुलकित की ओर बढ़ा दिये!

बेटा.. तेरा भी तो मन करता होगा!

कुछ अपनी पसंद का लेने का?

तू अब बड़ा हो गया है. वो बहुत देर तक नोटों को सहलाता रहा..और फिर बाज़ार की ओर चल दिया

घर लौटा  तो उसके हाथ में दो साड़ियां थी पर..

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“सूती नहीं”

दादी हरदम सुनाया करती थी तेरी मां तो  रेशमी (सिंथेटिक)साड़ी  पहने..!

और हमारी यही सूती !

‘हमने तो ना पहनी’

कभी ऐसी “चटक मटक साड़ी” !

पर पुलकित ने ‘कभी जवाब नहीं दिया था ‘

शायद उसे ‘सूती, रेशमी .. सिंथेटिक इन  साड़ियों का पता ही नहीं था’

पर,आज जब वो बाजार गया ..तो हैरान हो गया!

सूती साड़ी ₹800 से कम नहीं थी

उस पर और दाम ऊंचे से ऊंचा !!

और ‘रेशमी साड़ी’

मतलब “सिंथेटिक “

जैसी मां पहनती थी

कुल 100 से ₹200 में इतनी सुंदर सुंदर…

वो” दो  साड़ियां” खरीद लाया था

और  छुपा कर  रख दी

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रात को मां को कमरे में बुलाकर बोला.. मां बहुत मन था तुम्हारे लिए सूती साड़ी लेकर आऊं!

आपको’ गर्मी बहुत लगती है ना रसोई में’…

पर मैं ..बस !!

यह अपनी बचत के पैसों से यह कहकर.. मां की गोद में सर रखकर  फफक कर,रो पड़ा था

मां की आंखें भीग गई थी

अरे..’अधिक गर्मी नहीं लगती है मुझे’

बेटा ..रसोई में पुरानी  घिसी हुई साड़ी पहन लेती हूं

‘तू मेरी चिंता ना किया कर’

नहीं मां!

अब और नहीं ..मैं रात पापा से भी बात करूंगा!

सबके लिए सामान आता है फिर आपके लिए क्यों नहीं?

दिन भर कितना काम करती हो !

सारा घर संभालती हो

उस पर दो सूती साड़ी भी नहीं ?

मां ने पुलकित के मुंह में मिश्री का टुकड़ा डालते हुए बोला’ अच्छा चल दिल छोटा ना कर’

तेरी दी साड़ी तैयार  कर लेती हूं और फिर…

कल शाम मंदिर चलेंगे!

देख.. ना..

अब तेरी दी हुई साड़ी पहनूंगी !

दादी ना जाने कब से खड़ी उनकी बातें सुन रही थी बोली कुछ नहीं .. पोते को कहते सुन जो लिया था…

अब उनकी भी बोलती बंद थी

जो वो,अक्सर सुना दिया करती थी ‘हमारी किस्मत में तो यही सूती साड़ी लिखी है’

अब, उन्हें ‘अपने बेटे पर गुमान हो आया था’ और ‘अपनी बहू के बेटे पर भी’

फिक्र करने वाला होना चाहिए.. गुजारा तो हो जाता है!!

पुलकित की मां, साड़ियों को हाथ में लिए सोच रही थी..  आने वाला  उनका..समय “अच्छा समय’ पुलकित के हाथों में’… होगा!

लेखिका

अर्चना नाकरा

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