रेशम की डोर – संध्या त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

       मम्मी जी ….आज मेरे साथ आप चलेंगी बाजार ….?

मुझे राखी लेना है….हम लोग दो चार दुकान घूम-घूम के  पसंद कर के लेंगे…

इनके साथ जाने से तो बस जल्दी करो , जल्दी करो ही रट लगाए रहते हैं अनन्या ने अपनी सासू मां किरण जी से कहा…।

हां बहू …दोपहर में चलेंगे , उस समय दुकान में भीड़ भी कम रहेगी आराम से पसंद करके ले लेना राखी..!

रंग बिरंगी राखियों से पूरा बाजार सजा हुआ था…. दुकान में जाकर एक राखी उठाकर अनन्या ने पूछा… भैया ये कितने का है….?

₹300 का ….दुकानदार ने तुरंत दाम बताया ….बाप रे इतना महंगा …?अचानक अनन्या के मुख से निकला… फिर एक दूसरी राखी देखने लगी… दुकानदार से एक बार फिर अनन्या ने पूछा ….भैया ये वाली कितने की है ..? ये ₹270 की ….दुकानदार ने तुरंत जवाब दिया और दूसरे ग्राहक की ओर मुड़ गया…!

   अनन्या ने किरण जी से कहा… मम्मी जी राखी तो सुंदर है …पर महंगा बहुत है…अनन्या की बात दुकानदार सुन रहा था … उसने तपाक से जवाब दिया…

 अरे मैडम… साल में एक ही बार तो मौका मिलता है फिर जितनी राखियां बचेंगी वो तो साल भर ऐसे ही पड़ी रहेंगी…!

अभी तक किरण जी ध्यान से अनन्या की गतिविधियां और बातें …देख सुन रही थीं….एकदम से उत्सुक होते हुए बोलीं ….ले ले ना बेटा ….यदि तुझे पसंद आ गया है तो …पैसे क्यों देख रही है…?

 मम्मी जी कई राखियां लेनी है ना …. अनन्या ऐसा बोलकर दूसरी तरफ बढ़ गई राखी छांटने…!

इसी बीच किरण जी अपने पर्स में से पांच – पांच सौ के दो नोट निकाले और धीरे से अनन्या को पकड़ाते हुए बोलीं…. ले बेटा …अपने पसंद की वो वाली  राखी…जो तुझे सबसे पहले पसंद आई थी ना… वो वाला ही ले ले…!

    यदि तेरे सामान मुझे राखी बांधना होता तो मैं पैसे कतई नहीं देखती …बस इतना ही तो बोल पाई थी किरण जी…।

अनन्या सासू मां की भावना समझते हुए मुस्कुरा कर …पैसे उन्हीं के पर्स में रखते हुए बोली….आप रखिए मम्मी जी …मैं उसी राखी को ले लेती हूं..।

घर लौटने पर थोड़ी थकान हो रही थी… तभी अनन्या दो कप चाय बनाकर ले आईं….एक कप खुद के लिए और दूसरा कप किरण जी को देती हुई बोली ……

मम्मी जी आप मामा जी को राखी बांधने क्यों नहीं जाती है …?

इस सवाल के लिए किरण जी बिल्कुल तैयार नहीं थीं …… वो .. वो….ऐसे ही काफी वर्षों से छोड़ दिया है राखी बांधना ….

पर क्यों मम्मी जी …?

आज अनन्या ने भी किरण जी के मुख से ही सच जानने की सोची…

 जल्दी-जल्दी में कारण बताने की बजाय विषय बदलकर बचपन की बातें  ही बताना शुरू किया किरण जी ने….

  जानती है अनन्या …..बचपन में करण भैया राखी के लिए इतने उत्साहित रहते थे ….खुद मेरे साथ दुकान जाते थे और सबसे बड़ी वाली राखी…. वो जो हमारे जमाने में स्पंज लगी राखी मिलती थी …जिसमें पैसे भी चिपके  होते थे ….बड़ी सी राखी करण भैया वैसी ही राखी पसंद करते थे ….मेरी पसंद का तो कोई महत्व ही नहीं होता …. वो बोलते …बांधना तो मुझे है….तो मैं अपनी पसंद से राखी लूंगा ….और फिर वो अपनी पसंद की राखी और अपनी ही पसंद की मिठाई (इमरती ) खरीदवाते थे ….और दिन भर बड़ी सी राखी बांधकर इधर-उधर इतराते हुए घूमते रहते थे…!

   और पता है गिफ्ट में मुझे क्या मिलता था…. कभी कंपास बॉक्स.. कभी टिफिन बॉक्स….मतलब जिस भी सामान की जरूरत होती  ,गिफ्ट में वही मिल जाता था ….क्योंकि समान दिलवाना तो मम्मी पापा को ही था… सिर्फ भैया के हाथों से ….

चहकते – चहकते आंखों में चमक लिए किरण जी ऐसे बता रही थीं जैसे सामने सारा दृश्य घूम रहा हो…!

  किरण जी की खुशी , उत्साह अनन्या को समझ में आ रही थी… अब अनन्या ने सासू मां का हाथ अपने हाथ में लेते हुए बड़े प्यार से पूछा….

प्लीज मम्मी जी …ऐसी क्या बात हो गई जो आपने राखी बांधना ही छोड़ दिया… और मामा जी भी बंधवाने नहीं आते..?

 खैर ….जाने दीजिए ना …मुझे ये जानना भी नहीं है ….एक लंबी सांस लेते हुए किरण जी थोड़ी गंभीर हो गई…

बेटा , क्या है ना….कभी-कभी बिना कुछ हुए भी बहुत कुछ हो जाता है…

हर साल  राखी से दो-तीन दिन पहले ही भाभी का फोन आ जाता था… कब आ रही है ,थोड़ा पहले आ जाइएगा वगैरह – वगैरह …. पर अचानक फोन आना बंद हो गया या कहूं तो बुलाना ही बंद हो गया… फिर मैंने खुद को बहुत समझाया …राखी है …बहन ही भाई की कलाई पर राखी बांधती हैं…. उस वर्ष बिना बुलाए  ही चली गई थी… अनुभव भी थोड़ा…..अच्छा जाने दे ना… क्या बार-बार किसी बात को दोहराना….

    एक बार राखी पर मैं भैया के घर  नहीं पहुंच पाई थी….कुछ इमरजेंसी आ गया था ….जानती तो है मायके बहुत पास में है …भैया आ सकते थे… राखी बंधवाने ….पर वो आए भी नहीं… और उन्होंने कोई शिकायत भी नहीं की …. ना ही फोन करके पूछा कि मैं क्यों नहीं आई…! भैया के रिटायरमेंट के बाद मेरा राखी में ना जाना … शायद उन लोगों को लगा कि अब लेनदेन में कमी होगी इसलिए मैं नहीं आई होंगी राखी बांधने…!

पर सच बताऊं ….सारा दिन मन ही मन इंतजार करती रही ….किसी भी गाड़ी के रुकने की आवाज आती.. दरवाजा खुलता …दौड़कर दरवाजे पर जाती …शायद भैया आए होंगे…. फिर वापस आ जाती ….फोन बजता ..लगता भैया जोर से डांटेंगे …क्यों नहीं आई …गाड़ी भेज रहा हूं लेने….पर… ऐसा कुछ भी नहीं हुआ….

न जाने करण भैया को ऐसी कौन सी मजबूरी थी….

फिर धीरे-धीरे मुझे भी लगने लगा.. राखी पर जाने से कहीं भैया मुसीबत में ना पड़ जाए और न जाने से वो रिटायरमेंट वाली बात….

उस घर की नजरों में तो मैं दोनों ही स्थिति में दोषी बनी रही….. पहले राखी पर बतौर शगुन ज्यादा पैसे मिलते थे …. ..अब रिटायरमेंट के बाद कम मिलने लगा… शायद इसीलिए,…

जानती है अनन्या …फिर मेरे मन में एक बात आई…राखी तो भाई बहन दोनों का पर्व है …तो पूरी गलतीऔर कमी मेरी ही क्यों…?

 भैया को भी तो उत्सुकता होनी चाहिए ना राखी बंधवाने की…

ऐसी कौन सी बहन होगी जो इतना पास होते हुए भी राखी के दिन अपने भाई के कलाई पर राखी बांधना नहीं चाहेगी…!

बहुत मन होता था मुझे राखी बांधने का… ये पर्व मनाने का….इसीलिए मैंने कभी कोरियर से राखी भेजी भी नहीं …मैं तो खुद जाकर बांधना चाहती थी बेटा…

आगे किरण जी कुछ कहती अनन्या ने कहा ….बस मम्मी …अब हो गया…

सब ठीक हो जाएगा …आप जाएंगी… इस बार मायके ….राखी बांधेगी मामा जी को…. और  हां ये वाली राखी …सबसे महंगी वाली राखी की और इशारा करती हुई अनन्या ने कहा…. 

मैं…?   ना बाबा ना …

अब  नए सिरे से शुरू करूं राखी बांधना…. वो सब  भी क्या सोचेंगे…

    सास बहू की बातें पास में खड़े महेश बाबू  (किरण जी के पति) सुन रहे थे.. उन्होंने कहा…

  अनन्या बिल्कुल ठीक कह रही है किरण जी…इस बार आप जाइए ..राखी बांधिए और करण भैया की मजबूरी… अपनी उपेक्षा का कारण स्पष्ट रूप से पता करिए….!

बातों से तो बड़ी-बड़ी समस्या का समाधान हो जाता है फिर आप दोनों तो भाई-बहन हैं… 

जाइए खुलकर बातें कीजिए …लड़ लीजिए …रोइए… दिल की बात कह कर अपने मन को आप भी हल्का कर लीजिए और करण भैया को भी बोलने दीजिए ..अपने मन की बातें …

   पर वर्षों से आपके मन में चल रही मायके जाने और राखी बांधने की लालसा को समाप्त मत कीजिए किरण जी….!

एक पीढ़ी के संस्कारों का ..रीति रिवाजों का , परंपराओं का प्रतिनिधित्व कर रही है आप…. विरासत में हम अपने उत्तराधिकारियों को यही सब तो अमूल्य चीजें छोड़कर जाएंगे..।

….. राखी के दिन……

कॉलबेल बजाने के बाद …करण भैया.. करण भैया… की आवाज ने रिटायर्ड करण भैया के कानों को विश्वास ही नहीं हुआ….उम्र के इस पड़ाव पर,… लगभग दस वर्षों बाद बहन किरण की आवाज सुनकर अचंभित रह गए…!

कौतूहल , जिज्ञासा , उत्सुकता , प्रसन्नता मिश्रित .. ” आया ”  शब्द ही करण भैया के मुख से निकला…

दरवाजा खोलते ही सामने बहन किरण वो भी अब उम्र दराज होने को आई… हाथ में एक थैला पकड़े और मिठाई का डिब्बा रखा हुआ देखकर….करण को जैसे विश्वास ही नहीं हुआ ….

किरण तू  ?

  हां भैया…. अरे.. देखो – देखो किरण आई है…..

 पल्लू से हाथ पोछती हुई …पसीने से लथपथ सविता  (भाभी ) भी रसोई से निकल कर दरवाजे से झांकती हुई आश्चर्य से बोली …किरण आप …

आइए ना …अंदर  आइए…आप भी ना पहले अंदर आने को तो कहते …. सविता ने करण की तरफ देखते हुए शिकायती भरे लहजे में कहा….

 लेकिन करण भैया को सब्र कहां था… बहन किरण का हाथ कस कर पकड़ कर जोर-जोर से कदम बढ़ाते हुए बगल में रह रहे चाचा चाची के घर आवाज देकर …चाचा जी देखिए तो कौन आया है….

…. किरण आई है किरण ….

 बिल्कुल उसी तरह जैसे बचपन में जब खेलने निकलते तो करण भैया का हाथ पकड़ कर जाना ही किरण के लिए रक्षा कवच बन जाता था…

बिल्कुल आज राखी के दिन भी करण भैया ने वैसे ही मजबूती से बहन किरण का हाथ पकड़ा था…

करण भैया का कसकर इतनी मजबूती से हाथ पकड़ना…. शायद पिछली सारी कमजोर और ढीली पड़ी रिश्तो की पकड़ को एक बार फिर सुदृढ़ कर दिया…!

  सारे मोहल्ले में घूमने और बताने के बाद कि …किरण आई है… घर आकर बोले…अब राखी बांध किरण …किरण  राखी और मिठाई के साथ भाई की फेवरेट मिठाई इमरती भी लेकर आई थी….!

  सुंदर सी नग से जड़ी राखी देखकर भाभी बोली …. वाह बहुत सुंदर राखी है ….नग और मोतिया जो जड़ी है…

नहीं सविता…. इस  ” रेशम की डोर ”  में ….अनंत प्यार …भाई के कुशलता की कामना …प्रार्थना …कुछ अनकही बातें  , और बहुत सी भावनाएं जड़ी हुई है ….

  ले बांध किरण ….भाई ने हाथ आगे बढ़ाया ….बहन की भावना और भाई की मजबूती से हाथ पकड़ना …रिश्तो की एक बार फिर  मजबूती बता रही थी….!

      इस प्यार भरे लम्हे में भाई-बहन दोनों को शिकायत , मजबूरी या किसी भी बाध्यता के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं थी… ना ही इसने कुछ कहने , सुनने पूछने..का मौका ही दिया..!

(स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित रचना)

✍️ संध्या त्रिपाठी

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