रक्षाबंधन – नरेश वर्मा : Moral Stories in Hindi

  नाम तो उसका मनोरमा था पर उसकी पहचान हमारे मोहल्ले में मुन्नी नाम से थी।जिस मध्यमवर्गीय मोहल्ले में हमारा मकान था उससे एक घर छोड़ मुन्नी का परिवार रहता था।मुन्नी के पिता स्थानीय कचहरी में किसी वकील के मुंशी थे।मुन्नी की उम्र उन दिनों १४ या १५ रही होगी। मुन्नी का भाई नहीं था उससे तीन वर्ष छोटी एक बहन भर थी।परिवार छोटा था पर उसी अनुपात में मुंशी जी की तनख़्वाह भी छोटी ही थी बस किसी तरह गृहस्थी की गाड़ी खिंच रही थी ।मुन्नी की माँ यशोदा का हमारे घर खूब आना जाना था

।यद्यपि हमारे और यशोदा के घर के जीवन स्तर पर अच्छा-ख़ासा फर्क था पर यह फर्क माँ और यशोदा की दोस्ती में कभी परिलक्षित नहीं होता था ।उसका एक बड़ा कारण यह भी था कि यशोदा मेरी माँ के हर छोटे-बड़े काम में , हारी-बीमारी में सदैव मददगार रहती थी।इसके एवज़ में माँ भी यशोदा की कभी आर्थिक रूप में तो कभी राशन-पानी में अक्सर मदद कर दिया करती थी।किंतु बात एक-दूसरे के हित साधने भर तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि इसके मूल में था माँ और यशोदा के मध्य का अंतरंग प्रेम।मुझे याद है

एक बार यशोदा बीमार पड़ गईं थीं।शुरुआत में घर के बने काढ़ा और घरेलू नुस्ख़ों द्वारा बीमारी से जंग लड़ी गई , पर बुख़ार था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था ।जब कई दिनों तक यशोदा माँ से मिलने नहीं आईं तो माँ ने मुन्नी से यशोदा के बारे में पूछा ।पूरा हालचाल जानने के बाद माँ तुरंत बाज़ार गईं और अपने फैमिली डॉक्टर को लेकर यशोदा के घर पहुँच गईं ।कहना न होगा कि डॉक्टर से लेकर दवाओं तक का पूरा खर्च माँ ने उठाया ।माँ का यह अपनी सहेली के प्रति प्रेम था इसमें कहीं भी कोई एहसान का भाव नहीं था।

 आप सोच रहे होंगे की बात का आरंभ मैंने मनोरमा यानी मुन्नी से किया पर चर्चा उसकी माँ और अपनी माँ पर केन्द्रित कर दी।वास्तविक कहानी में मुन्नी का प्रवेश रक्षाबंधन वाले दिन से हुआ ।मैं घर में इकलौता था और मुन्नी दो बहनें भर थीं।मेरी कोई बहन न होने से रक्षाबंधन वाले दिन माँ को मेरी सूनी कलाई अखरती थी ।चूँकि यशोदा और उसकी बेटियों का हमारे घर आना जाना था तो माँ के मन में विचार आया कि क्यों न इस बार से मुन्नी द्वारा मुझे राखी बँधवा दी जाए ।माँ के प्रस्ताव से यशोदा तो प्रसन्न थी ही पर सब से ज़्यादा मुन्नी उत्साहित थी

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क्योंकि आज से उसको भाई जो मिलने जा रहा था ।किन्तु सच कहूँ तो राखी बँधवाने से ज़्यादा मुझे पतंग और माँझे की फ़िक्र थी ।हमारे शहर में रक्षाबंधन वाले दिन पतंग उड़ाने और पेंच लड़ाने का ख़ूब रिवाज था।मेरे लिए राखी के धागे से ज़्यादा किसी तेज़ माँझे की दरकार थी किंतु मुन्नी के लिए राखी का धागा एक नए भावनात्मक रिश्ते की शुरुआत थी।रक्षाबंधन वाले दिन सुबह दस बजे मुन्नी और उसकी छोटी बहन अपनी सुंदर ड्रेस में फल-मिठाई और राखी के साथ भाई-बहन के नए रिश्ते के बंधन के लिए घर आ गई थीं ।

मेरे से ज़्यादा मेरी माँ उत्साहित थीं।मेरे जन्म के इतने वर्षों बाद पहली बार मेरी कलाई में राखी बँधी थी।मैंने नोटिस किया था कि राखी बाँधते समय मुन्नी की आँखों में ख़ुशी के आँसू झिलमिला आए थे।मेरे द्वारा दोनों बहनों को रुपये दिलवाने के अतिरिक्त माँ ने दोनों को अलग से सुंदर सूट भी गिफ़्ट में दिए थे ।

 और इस रक्षाबंधन वाले दिन से मेरी कलाई पर अगले दो वर्षों तक मुन्नी द्वारा मुझे राखी बाँधी गई ।दो वर्षों बाद मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए कानपुर चला गया।यद्यपि मेरे कानपुर निवास के पहले साल मुन्नी द्वारा पोस्ट से मुझे राखी भेजी गयी पर मेरे द्वारा किसी प्रतिक्रिया के अभाव में यह सिलसिला बंद हो गया था।

और कुछ वर्षों बाद मेरी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होने पर मैं दिल्ली की एक फर्म में लग गया था ।माँ-पिताजी ने भी मेरे बचपन के उस मोहल्ले को छोड़ शहर के पॉश इलाक़े में फ्लैट ले लिया था ।और इस तरह भागती- दौड़ती ज़िंदगी के ग़ुबार में मुन्नी और उसका परिवार भी गुम हो गया था और खो गई थी वह मुँह बोली बहन जिसने बड़ी हौंस से मेरी कलाई में राखी बाँधी थी ।

 …………और अचानक उस दिन चाँदनी चौक के बाज़ार में मुन्नी को देखा। इतने बरसों के बाद उसे देखकर मैं असमंजस में था किन्तु वह मुझे देखते ही पहचान गई।बैसे तो रिश्ते में मैं उसका मुंहबोला भाई था , भले ही मैंने उस रिश्ते को कभी कोई ख़ास अहमियत नहीं दी थी ।इस समय सलवार सूट के साथ कैनवास के जूते ,कंधे पर सफ़ारी बैग और बड़े से काले चश्मे में उसका हुलिया, बचपन की उस शर्मीली मुन्नी जिसे मैं जानता था ,बिल्कुल भिन्न था ।हुलिया उसका जो भी था पर वह स्वयं में आत्मविश्वास से परिपूर्ण लग रही थी ।

  “अरे बिट्टू तुम यहाँ दिल्ली में ? अब तो तुम बड़े इंजीनियर बन गये होगे , शादी बादी भी हो गई होगी ।अंकल आंटी तो हमारे बचपन के मोहल्ले को छोड़ अलग कालोनी में चले गये थे ,  इसके बाद तो संबंध ही जैसे ख़त्म हो गए ।”- एक साँस में वह यह सब कह गई।

 “  मैं दिल्ली में ही नौकरी करता हूँ , शादी हो गई है और एक बेटा भी है ।और मनोरमा तुम कैसी हो ? पति क्या करते हैं ?- मैंने पूछा ।” पति सेन्ट्रल डिफेंस में एकाउंटेंट हैं और मैं ‘असहाय रक्षक संस्था ‘ नामक ग्रुप की अदना सी कामरेड हूँ ।पति परिवार की रक्षा का दायित्व सँभाले हैं और मैं अपनी संस्था के द्वारा गरीब असहाय महिलाओं की रक्षा का दायित्व ।”-उसने बेबाक़ी से कहा।

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  बाज़ार के बीच इस तरह खड़े-खड़े बात करना कुछ अजीब सा था अतः मैंने वार्तालाप को विराम देते हुए कहा- देखो मनोरमा कैसा इत्तिफ़ाक़ है कि सात दिन बाद रक्षाबंधन का त्यौहार पड़ रहा है और आज अचानक पुरानी बहन से मुलाक़ात भी हो गई । क्यों न इस रक्षाबंधन पर तुम घर आ जाओ और फिर से हम उस पुराने रिश्ते को आरम्भ कर लें।—मैने प्रस्ताव देते हुए कहा।

  सुनकर पहले तो वह हँसी तत्पश्चात गंभीर हो कर उसने कहा -“ मैं और मेरी संस्था उस मिथक को तोड़ने में लगे हैं जिस में परंपरागत बहन ही भाई को राखी बाँधती है ।रक्षाबंधन का अर्थ है- ‘रक्षा का बचन पत्र ‘ ।यह बचन कोई भी दे सकता है , इसमें पुरुष और स्त्री की बाध्यता क्यों ? जब एक रानी ने एक बादशाह को राखी के धागे भेजे थे और वह बादशाह फौज लेकर रानी की रक्षार्थ दौड़ा चला आया था ,तो क्या वह रानी का भाई था ।हमारी संस्था रक्षाबंधन बाले दिन सेना के लोगों के राखी बाँधती है और सेना के हर क्षेत्र में महिलाएँ भी हैं ।हम कलाई में कोई फर्क नहीं करते।स्त्री हो या पुरुष ,देश की सीमा पर रक्षा का बचन पत्र दोनों निभाते हैं ।”

  “ मनोरमा जी मैं मानता हूँ कि आपके द्वारा भेजी राखी का मैं उचित सम्मान नहीं दे पाया जिसका मुझे खेद है ।टूटे धागे को पुनः जोड़ा भी तो जा सकता है ।”

  “ धागे जुड़ तो अवश्य जाते हैं पर उसमें गाँठ तो पड़ ही जाती है ।बैसे रक्षाबंधन बाले दिन तो नहीं पर किसी दिन मिलने ज़रूर आऊँगी।इतना कह कर बचपन की वह मूंहबोली बहन कंधे पर लटके बैग को हिलाते हुए चाँदनी चौक की भीड़ में खो गई……….

और मैं रक्षाबंधन की नयी परिभाषा से रूबरू होता उसे भीड़ में विलीन होते देखता रहा ।

                                                *****समाप्त*****

                                                                                       लेखक—नरेश वर्मा

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