रघुवा ने अत्यंत चिंतित मन से धीरे-धीरे चलते हुए स्कूल के प्रांगण से बरामदे में प्रवेश किया। इससे पहले वह केवल एक बार अपने पुत्र को दाखिल करवाने ही तो स्कूल के अंदर आया था। कितनी रौनक थी उस दिन यहां ! साफ-सुथरा स्कूल देखकर उसका अपना मन भी कितना खुश हो गया था कि चलो मैं तो नहीं पढ़ पाया, लेकिन मेरा बेटा शहर के इस मशहूर स्कूल में जरूर पढ़ेगा ! वह ही जानता है कि तब कितने जुगाड़ों से उसने दाखिले की फीस का इंतजार किया था ।
कल शाम हालांकि उसने अपने कपड़े धोने के लिए अपनी कल की कमाई में से कुछ चिल्लड़ निकालकर साबुन की एक छोटी सी नई टिकिया खरीदी थी और अच्छी तरह रगड़-रगड़कर कर अपनी पैबंद लगी कमीज और पाजामे को धोया था, लेकिन इतनी मशक्कत के बाद भी उसके कपड़ों में जगह-जगह मैल नज़र आ रही थी। खैर..
उसके पुत्र केशव को आज अपने पिता द्वारा स्कूल में आने का अंदेशा था। इस बात से वह परेशान भी था और उसका ध्यान स्कूल के बरामदे की ओर ही लगा हुआ था। अतः रघुवा के बरामदे में प्रवेश करते ही केशव ने अपनी कक्षा की खिड़की से पिता को अपनी कक्षा की ओर आते देखा लिया । जैसे ही रघुवा केशव की कक्षा के दरवाजे पर पहुंचा, उसने उसे अपने आगे बैठे,अपेक्षाकृत लंबे छात्र के पीछे छिपने की कोशिश करते हुए पाया।
अतः पुत्र के इस व्यवहार से आहत होकर रघुवा ने वहीं खड़े रहना उचित समझा और कक्षा में पढ़ा रहे अध्यापक को, बाहर से ही ,दोनों हाथ जोड़ कर विनम्रतापूर्वक कक्षा से बाहर आने की प्रार्थना की। छात्रों को लिखने का थोड़ा सा कार्य देकर जैसे ही अध्यापक उसके पास पहुंचे, वह भरे हुए कंठ से फट पड़ा,
‘ नमस्ते मास्साब ! मैं, रघुवा, इस जमात में पढ़ रहे केशव का बापू हूं। आप को तो पता ही है कि मैं पिछले कई सालों से अपनी रिक्शा पर नगर के दूसरे स्कूल के बच्चों को घर से स्कूल और स्कूल से पुनः घर लाने-ले जाने का काम करता हूं। घर-गृहस्थी के खर्च पूरे करने के लिए मैं स्कूल के बाद भी सवारियां ढोता हूं। मैं खुद तो अनपढ़ और जाहिल हूं । मेरे माता-पिता मुझे पढ़ा नहीं पाये, लेकिन
अपने पुत्र केशव की तेज बुद्धि देख कर मैं इसे पढ़ा-लिखा कर अच्छी जिंदगी देना चाहता हूं। इसी लिए मैंने पैसों की तंगी के बावजूद इसे आप के इस नामी स्कूल में दाखिल कराया है, लेकिन ,मास्साब, पिछले एक महीने से मैं बहुत परेशान हो गया हूं। केशव अपनी एक अलग ही जिद पर अड़ा हुआ है कि मैं रिक्शा चलाना छोड़ कर कोई दूसरा अच्छा धंधा करूं। मुझे रिक्शा चलाते देखकर अब
इसे शर्म आने लगी है। आप ही इसे समझाइए कि मैं दूसरा धंधा नहीं कर सकता हूं। यह इस बात को मानने को तैयार ही नहीं है कि मेरे पास रिक्शा बेचकर ,नया धंधा करने लायक पैसे नहीं आ सकते। फिर, मैं कौन सा पढ़ा- लिखा हूं ! अपनी अनपढ़ता के कलंक से बचाने के लिए ही तो मैं इसे
यहां पढ़ाने का जतन कर रहा हूं, लेकिन मास्साहब, यहां यह कैसी पढ़ाई है, जिसमें बच्चे को अपने बाप की मेहनत पर भी शर्म आने लगती है? मैं जाहिल हूं, किंतु मुझे तो अपने बाबा के काम पर कभी शर्म नहीं आई। एक बात और मास्साब् ! अपने पुराने वाले सरकारी स्कूल में इसने न तो कभी अपनी शर्मिंदगी की बात की थी और न ही कभी ऐसी ज़िद ही की थी।’
अध्यापक पूर्णतः नि:शब्द हो चुके थे।
क्योंकि ,उस वक्त, अपने आपको जाहिल कहने वाले उस अनपढ़ रिक्शा चालक के चेहरे पर भी उन्हें चिंता और परेशानी की वही लकीरें साफ-साफ दिखाई दे रही थीं, उसके माथे पर वही सारे प्रश्न चिन्ह दिखाई दे रहे थे, जो कल शाम, ड्राइंग रुम में बैठी अपनी तथाकथित ‘आधुनिक मित्रमंडली’ के बीच में, अपने ‘अल्पशिक्षित छोटे से दुकानदार’ पिता को वहां आने से रोकने का इशारा करते समय, अपने पिता के चेहरे पर दिखे थे।
वे इस परेशान रिक्शा चालक के माथे की लकीरों को पढ़ते हुए सोच रहे थे कि जाहिल यहां कौन है ? मैं, या यह सीधा-सरल, किंतु जीवन और संबंधों को समझने में अति कुशल रिक्शा चालक ?
तभी अपने अंतर्द्वंद्व की पीड़ा से दग्ध वे रघुवा की ओर बढ़े, ‘आप बिल्कुल निश्चिंत होकर अपना कर्म करें। मैं केशव को श्रम की कीमत और अपने माता-पिता के सम्मान के भाव को समझाने का पूरा प्रयास करुंगा। मुझे आशा है कि इस शिकायत के साथ आपको दुबारा स्कूल में नहीं आना पड़ेगा।
अध्यापक की सांत्वना से अब रघुवा के माथे की चिंतित लकीरें धीरे-धीरे हल्की-हल्की मुस्कान में बदलने लगी थीं।
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब ।
#जाहिल