ट्रेन की खिड़की से आती हवा में अजीब-सी घुटन थी। सावित्री देवी अपने पल्लू को बार-बार ठीक कर रही थीं, जैसे इस बेचैनी को संभालना चाहती हों। तीन दिन पहले तक सब सामान्य था, लेकिन पिंकी मौसी का फोन उनकी नींद, चैन सब छीन ले गया था।
“अरी सावित्री, तेरे आदित्य को देखा था कल मॉल में… एक लड़की के साथ, जैसे पति-पत्नी रहते हैं न… वैसे।”
पहले तो उन्होंने हँसकर टाल दिया, “अरे… तू भी न… मेरा बेटा कुछ भी नहीं छुपाता।” मगर कॉल कटने के बाद से दिल में जैसे कोई पत्थर रख दिया गया हो। लिव-इन… ये नाम उन्होंने बस अख़बार में पढ़ा था, बड़े शहरों के सीरियल्स में देखा था। अपने गाँव, अपने घर में तो ऐसा कभी नहीं हुआ।
उस रात चारपाई पर लेटे-लेटे आदित्य का बचपन उनके सामने घूमने लगा। पाँच साल का था, स्कूल से भागते हुए आया था, “माँ, आज मैंने शर्मा अंकल के पेड़ से आम तोड़ा… गलती हो गई।” वो हँस पड़ी थीं, “गलती मान ली तो आधा माफ़।”
कभी पेंसिल खो जाए, तो सच-सच बताता, जेबखर्च से बची टूटी टॉफी भी दिखाकर कहता—“देखो, ये बचा ली।” वह बच्चा, जो अपनी छोटी-सी गलती भी छुपा नहीं पाता था, आज अगर सचमुच यह कर रहा है, तो मुझसे क्यों छुपा रहा है? क्या मैं उसकी अपनी नहीं रही?
शहर की कैब जैसे-जैसे पते के करीब पहुँच रही थी, सावित्री का दिल और तेज़ धड़क रहा था। आखिर दरवाज़ा खुला—एक लड़की, खुले बाल, ढीला-सा टॉप, और आँखों में झिझक।
“जी… आप?”
“हम… आदित्य के मम्मी-पापा,” सावित्री ने आवाज़ में मिठास भरने की कोशिश की।
अंदर आदित्य खड़ा था, जैसे चोरी पकड़ ली हो।
“माँ… पापा… आप अचानक…”
“अचानक क्यों?” रामसिंह जी ने ठंडी आवाज़ में कहा, “बेटे के घर आए हैं, पहले से बताना जरूरी है?”
सावित्री ने सीधा पूछा, “ये लड़की कौन है?”
“मेरी दोस्त है… निधि ।
हम साथ रहते हैं।”
“शादी हुई है?”पिता ने लड़की से पूछा ।
क्या तुम्हारे माता पिता को पता है ।
तभी लड़की बोली “ मेरे पैरेंट्स नहीं है मामा ने पाला है ।
उन्हें मैंने भी नहीं बताया ।
और तभी आदित्य तुरंत बोला ।
हमने शादी नहीं की।
बस… साथ हैं।”
“साथ मतलब? और अगर कल को बात बिगड़ जाए तो?”
आदित्य ने लापरवाही से कहा, “तो अलग हो जाएँगे… अगर साथ सही रहा तो ठीक, नहीं तो…”
“बस!” रामसिंह जी की आवाज़ गरज उठी, “शादी जैसे पवित्र बंधन को तुमने मज़ाक बना दिया है! ये कोई खिलौना है जो मन आया तो रखा, मन नहीं तो फेंक दिया? बेटा, समाज उसी रिश्ते को अपनाता है जिसमें सच्चाई की मोहर होती है। ये लिव-इन? इसे कभी भी समाज स्वीकार नहीं करेगा।”
हमे समाज की परवाह नहीं । आदित्य ने कहा ।
समाज की परवाह नहीं? बेटा, तुझे किसकी हवा लग गई? क्या सब दोस्त ऐसे हैं तेरे?”
आदित्य ने कंधे उचकाते हुए कहा, “सब तो नहीं… लेकिन बहुत लोग आजकल ऐसे ही रहते हैं। हम बंधना नहीं चाहते… ज़िम्मेदारी नहीं चाहिए।”
उस दिन सावित्री का सब्र टूट गया। उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के सीधे सवाल दाग दिया—
“आदित्य, शादी क्यों नहीं करना चाहता तू? किसी से तुझे घबराहट हो रही है? तूने किसको देख लिया पूरे खानदान में? तेरे सारे बड़े भाइयों की शादी हो चुकी है, तेरे चाचा के बच्चे, ताऊ के बच्चे—सब अपनी ज़िंदगी में खुश हैं। तो तू क्यों अलग राह पकड़ना चाहता है?”
आदित्य ने नज़रों को ज़मीन पर टिका दिया, “माँ… ये जो शादी के बाद पति-पत्नी में रोज़ झगड़े होते हैं, वो मुझे नहीं चाहिए।”
सावित्री तुरंत पलट पड़ीं, “क्यों? क्या तुम अब नहीं झगड़ते? क्या तुम्हारी ज़िंदगी में मतभेद नहीं आते? बेटा, शादी में जब लड़ाई होती है, तो सिर्फ दो लोग नहीं, दो परिवार भी होते हैं जो बीच में बैठकर समझाते हैं, सुलह कराते हैं, हक जताते हैं। लेकिन तुम्हारे इस केस में तो कोई तुम्हारा साथ नहीं देगा, क्योंकि किसी को तुमसे कोई मतलब नहीं रहेगा।”
रामसिंह जी ने कठोर स्वर में कहा, “सब यही कहेंगे—अपनी ज़िंदगी का मालिक खुद है, जो करना है करो। और जब अलग हो जाओगे, तो तुम्हारी ज़िंदगी बर्बाद ही होगी। ये रिश्ता समाज कभी नहीं अपनाएगा, ये समझ ले।”
सावित्री की आवाज़ अब काँप रही थी, “बेटा, रिश्ते सिर्फ आज के लिए नहीं होते… ये आने वाले कल की नींव रखते हैं। तू सोच रहा है कि इस तरह तू आज़ाद है, लेकिन असल में तू उस सहारे को खो रहा है, जो मुश्किल वक्त में सिर्फ शादी जैसे पवित्र बंधन से मिलता है। और जब कल को तुम्हारे बच्चे होंगे, तो वो क्या कहेंगे? कि मम्मी-पापा की शादी ही नहीं हुई?”
वो दोनों उठकर चल दिए। आदित्य ने पुकारा, “माँ… पापा…”
रामसिंह जी बस इतना बोले, “जब अपने रिश्ते को नाम दे सको, तब बुलाना। हम मेहमान बनकर नहीं, माँ-बाप बनकर आएँगे।”
नहीं तो हम समझेंगे कि हम अपने बेटे को सदा के लिए खो चुके । कभी बात ना कर पायेंगे तुझसे ।ये हमारा अंतिम कठोर निर्णय है।
क्यों कि हम भारतीय परम्परा को मानते है । ये विदेशी बातें हमारी समझ के बाहर हैं ।
और ऐसा कहकर दरवाज़ा बंद हुआ, और कमरे में सन्नाटा फैल गया।
लड़की ने धीमे स्वर में कहा, “आदि… तुम्हें इतना सीधे नहीं बोलना चाहिए था।”
आदित्य झुंझलाया, “तो क्या कहता? झूठ? कि हम शादी करेंगे जबकि अभी इरादा नहीं? मैं साफ हूँ—अगर साथ सही रहा तो ठीक, नहीं तो…”
लड़की ने आह भरी, “यही बात उन्हें चुभ गई। उनके लिए शादी ज़िंदगी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है, और तुम उसे बस एक विकल्प की तरह देख रहे हो।”
कुछ दिनों तक यही चुप्पी घर में पसरी रही। लेकिन हर रात आदित्य के कानों में माँ-पापा के शब्द गूँजते—“ये बस किराए का ठिकाना है… घर तब बनेगा जब रिश्ते की नींव मजबूत होगी…” एक दिन उसने खिड़की के पास बैठी लड़की से कहा, “शुरू में लगा था, उनकी बातें पुरानी सोच हैं… लेकिन अब लगता है, वो बंधन बोझ नहीं, सहारा है। अगर तुझसे सच में ज़िंदगी बितानी है, तो उसका नाम भी होना चाहिए… ताकि कल को कोई पूछे, तो हम सिर ऊँचा करके कह सकें—हाँ, ये मेरा घर है, मेरी पत्नी है।”
उन्होंने काँपते हाथों से माँ को फ़ोन लगाया और खुल कर बात की ।
दो दिन बाद दरवाज़ा फिर से खुला—सावित्री और रामसिंह जी खड़े थे। इस बार आदित्य ने बिना रुके कहा, “माँ, पापा… उस दिन जो मैंने कहा, वो गलत था। मैं समझ गया हूँ, रिश्ता सिर्फ साथ रहने का नाम नहीं, जिम्मेदारी है। अगर ये भी तैयार हो तो… हम शादी करेंगे। आपके आशीर्वाद से।”
लड़की की आँखों में नमी थी, “हाँ… मैं भी चाहती हूँ कि हम अपने रिश्ते को सही नाम दें।”
सावित्री ने दोनों के सिर पर हाथ रखा, “बेटा, शादी ठप्पा नहीं, भरोसे का वचन है।”
रामसिंह जी ने हँसते हुए कहा, “और वचन से बड़ा कोई कॉन्ट्रैक्ट नहीं होता।”
चाय के कप मेज़ पर रखे गए। बाहर शाम की हवा खिड़की से अंदर आई—जैसे इस किराये के ठिकाने ने पहली बार सच में घर का रूप ले लिया हो।
ये कहानी उम्मीद है अच्छी लगेगी ।
ज्योति आहूजा
कठोर कदमकठोर कदम