परवरिश – सविता गोयल

“हैलो दीदी, कैसी हैं आप?
ओह, मैं भी क्या पूछ रही हूँ — आपके तो मजे हैं, अब नई बहू रानी से खूब सेवा करवा रही होंगी!”
वंदना ने चहकते हुए अपनी ननद कुसुम से फोन पर पूछा।

“हम ठीक हैं,” — कुसुम के मुंह से इतनी ठंडी प्रतिक्रिया सुनकर वंदना को बहुत आश्चर्य हुआ।
अभी छह महीने पहले ही कुसुम के बेटे आदित्य की शादी हुई थी।
कुसुम को अपने बेटे पर बहुत गर्व था, जैसा कि हर मां को अपने बच्चों पर होता है।
आदित्य था भी बहुत समझदार और विवेकी। पढ़ाई के सिलसिले में वह लगभग दो साल तक अपने मामा-मामी के घर ही रुका था, क्योंकि उसका इंजीनियरिंग कॉलेज उसी शहर में था।
जब वह अपनी मामी वंदना के पास रहता था, तो वंदना भी उसके व्यवहार और जिम्मेदार स्वभाव से बहुत प्रभावित थी।
वह हमेशा अपने बच्चों को आदित्य का उदाहरण देती थी।

जब आदित्य ने अपनी पहली सैलरी अपनी मां कुसुम के हाथ पर रखी, तो गर्व और खुशी से कुसुम की आंखें भर आई थीं।
अब वह अपने बेटे के लिए एक अच्छी सी दुल्हन की तलाश में थीं — ऐसी जो परिवार की जिम्मेदारी संभाल सके।
उनकी यह तलाश आरती पर जाकर खत्म हुई — पढ़ी-लिखी, खूबसूरत और कार्यकुशल।
कुसुम को आरती हर तरह से आदित्य के लिए योग्य वधु लगी।
आदित्य ने भी अपनी मां की पसंद दिल से स्वीकार कर ली।
वंदना को भी आरती बहुत अच्छी लगी।
धूमधाम से दोनों की शादी हो गई और सबकुछ हंसी-खुशी बीत गया।

लेकिन अब कुसुम को लगने लगा था कि आदित्य के मन में उसके लिए पहले जैसा सम्मान और प्यार नहीं रहा।
एक अजीब सी कुंठा उसके मन में घर करने लगी थी, जो शायद उसे खुश नहीं रहने दे रही थी।

वंदना ने कुछ सोचकर पूछा —
“क्या हुआ दीदी? आपकी आवाज़ में कुछ उदासी सी लग रही है?”
“क्या बताऊं भाभी, बहू के आने के बाद लगता है इस घर में मेरी कोई जरूरत ही नहीं रही।”
“क्यों दीदी, आप ऐसा क्यों बोल रही हैं? क्या आदित्य और आरती आपका ध्यान नहीं रखते?”
“ध्यान तो रखते हैं भाभी, लेकिन अब पहले की तरह आदित्य के पास मेरे लिए वक्त ही नहीं रहता।
पहले वह सारी तनख्वाह मेरे हाथों में लाकर रखता था, लेकिन अब उसमें से हर महीने पाँच हजार अपनी बीवी को जेब खर्च दे देता है।
मैं आरती को किसी चीज़ के लिए मना थोड़ी ही करती हूँ, फिर उसे अलग से पैसों की क्या जरूरत?”

वंदना ने हँसते हुए कहा —
“दीदी, आप बस इतनी सी बात से दुखी हो गईं? आपको तो खुश होना चाहिए कि आपका बेटा आपके दिए हुए संस्कारों को निभा रहा है।
आपका बोया हुआ बीज आज एक फलदार वृक्ष बन गया है।”
“यह तुम क्या बोल रही हो भाभी?”
“हाँ दीदी, आपने ही तो उसे औरतों का सम्मान करना सिखाया है।

सच बताऊँ तो इस समय आपकी हालत उस घर के बड़े बच्चे की तरह हो गई है,
जो दूसरे बच्चे के आने पर सोचने लगता है कि उसकी माँ का प्यार अब बँट गया।
लेकिन यह बात तो आप भी जानती हैं कि माँ की ममता अपने सभी बच्चों के लिए समान होती है।
तो मेरी प्यारी दीदी, जब माँ अपने सभी बच्चों को समान प्यार दे सकती है,
तो एक बेटा अपनी माँ और पत्नी दोनों को समान प्यार और सम्मान क्यों नहीं दे सकता?”

वंदना की बात सुनकर जैसे कुसुम की आँखों से पर्दा हट गया।
उसे याद आने लगा कि जब आदित्य छोटा था, तो वह अपनी माँ को हर चीज़ के लिए
दादी या दादाजी के सामने गिड़गिड़ाते देखता था।
क्योंकि उसके पिता कभी कुसुम को उसकी खुद की जरूरत के लिए पैसे नहीं देते थे,
अपनी सारी तनख्वाह अपने पिता के हाथों में देते थे।
यह सब देखकर आदित्य को बहुत बुरा लगता था,
लेकिन कुसुम ने हमेशा उसे अच्छे संस्कार और औरतों के प्रति सम्मान सिखाया था।

उसी परवरिश की बदौलत आज आदित्य एक अच्छा इंसान बना था।
कुसुम की आँखें छलछला आईं —
“मेरा बेटा मेरे दिए संस्कार नहीं भूला है।
मैं सच में खुशनसीब माँ हूँ, जिसकी परवरिश में कोई खोट नहीं।”

“शुक्रिया भाभी, तुम उम्र में मुझसे छोटी हो,
लेकिन आज तुमने मुझे बहुत बड़ी सीख दी है।
मेरा परिवार बिखरने से बच गया,
मेरा बोया पौधा आज सचमुच फलदार वृक्ष बन गया है।”

कुसुम के मन में अब एक नई, सकारात्मक ऊर्जा भर गई थी।

दोस्तों, यह सच है —
अगर हमारे बच्चे हमारी दी हुई अच्छी सीख को जीवन में नहीं भूलते,
तो हमें अपनी परवरिश पर गर्व होना चाहिए।
बेटे की शादी के बाद अक्सर माँओं को लगता है कि बेटा बदल गया,
लेकिन तब बेटा एक पति भी बन जाता है।
जिस तरह हम अपने जीवनसाथी से उम्मीद रखते हैं,
वैसे ही उसकी जीवनसंगिनी की भी अपनी उम्मीदें और इच्छाएँ होती हैं।

दिल समंदर की तरह होता है —
प्यार उसमें कभी बँटता नहीं, बस उसके लिए एक नई जगह बन जाती है।

(समाप्त)

सविता गोयल 

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