सुबह के पाँच बज रहे थे। रसोई में हल्की-हल्की खटर-पटर की आवाज़ आ रही थी। गैस पर चढ़ी चाय उफान मारने को थी और स्नेहा जल्दी-जल्दी उसे उतारने की कोशिश कर रही थी। आज भी उसने अलार्म बजने से पहले ही आँख खोल ली थी। आदत बन चुकी थी—घर के उठने से पहले उठ जाना, सबके लिए दिन आसान कर देना।
पीछे से ससुर जी की खाँसी सुनाई दी। स्नेहा तुरंत दौड़कर पानी ले आई।
“इतनी जल्दी क्यों उठ जाती हो, बहू?”
“आप लोग हैं तो घर है, बाबूजी,” स्नेहा मुस्कुरा दी।
इसी घर में तीन महीने पहले नई बहू बनकर आई थी स्नेहा। पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर और नौकरीपेशा। शादी से पहले वह एक निजी कंपनी में काम करती थी, लेकिन विवाह के बाद ससुराल के आग्रह पर उसने फिलहाल नौकरी छोड़ दी थी। उसका मन मान तो गया था, पर कहीं न कहीं भीतर एक टीस थी—खुद को रोक लेने की टीस।
घर में सबसे अलग थी उसकी ननद काव्या।
काव्या देर से उठती, रात देर तक मोबाइल में डूबी रहती, कभी ऑनलाइन गेम, कभी चैट, कभी रील्स। पढ़ाई में तेज थी, पर लापरवाह। स्नेहा के आने से पहले भी घर में उसे लेकर कई बार बहस हो चुकी थी। सास जी डाँटतीं, पापा समझाते, पर काव्या की दिनचर्या नहीं बदलती।
“छोटी है अभी,” कहकर बात टाल दी जाती।
पर अब स्नेहा थी।
पहले दिन से ही उसने देखा—सुबह छह बजे सब अपने-अपने काम में लग जाते, और काव्या दस-साढ़े दस बजे उठती। तब तक नाश्ता ठंडा हो चुका होता, सब थक चुके होते। सास जी का मूड बिगड़ जाता और दिन की शुरुआत खटास से होती।
एक दिन सास जी बड़बड़ाईं,
“इस लड़की को कुछ नहीं सूझता, बस फोन और मस्ती। इसकी वजह से पूरा घर अस्त-व्यस्त हो जाता है।”
स्नेहा चुप रही। वह जानती थी, डाँट और ताने से कोई नहीं बदलता।
उसी दिन दोपहर को उसने काव्या के कमरे में झाँका। काव्या बेड पर पड़ी हेडफोन लगाए कुछ देख रही थी।
“काव्या, चाय पीएगी?”
“अभी नहीं भाभी,” बिना देखे जवाब आया।
स्नेहा चुपचाप चाय वहीं रख आई।
अगले कई दिनों तक यही क्रम चलता रहा। स्नेहा सुबह उठती, सबके काम करती, काव्या के उठने का इंतज़ार करती, ताकि साथ बैठकर खाना खा सकें। कई बार उसे खुद भूख लगती, पर वह रुक जाती।
धीरे-धीरे यह बात काव्या के मन में खटकने लगी।
एक दिन वह अचानक रसोई में आ खड़ी हुई।
“भाभी, आप रोज़ मेरा इंतज़ार क्यों करती हो?”
स्नेहा ने चौंककर देखा।
“ऐसे ही… परिवार साथ खाए तो अच्छा लगता है।”
“लेकिन मैं तो देर से उठती हूँ, आपको परेशानी होती होगी।”
“परेशानी नहीं, आदत है,” स्नेहा हल्के से हँसी।
उस दिन काव्या चुप रही, पर रात को देर तक उसे नींद नहीं आई। उसे लगा—भाभी मुझसे कुछ कहती क्यों नहीं? माँ तो रोज़ डाँटती हैं, पर भाभी ने कभी ऊँची आवाज़ में बात नहीं की।
अगले दिन काव्या ने अलार्म लगाया। सात बजे उठा तो शरीर बोझिल था, पर मन में एक अजीब-सी जिद थी। वह बाहर आई तो स्नेहा सब्ज़ी काट रही थी।
“अरे, आज जल्दी?” स्नेहा ने आश्चर्य से पूछा।
“हाँ… ऐसे ही,” काव्या ने आँखें चुराईं।
उस दिन दोनों ने साथ नाश्ता किया।
धीरे-धीरे यह सिलसिला बढ़ने लगा। कभी काव्या सब्ज़ी धो देती, कभी चाय बना देती। स्नेहा कुछ कहती नहीं, बस काम बाँट लेती। न आदेश, न शिकायत।
एक शाम काव्या ने खुद पूछा,
“भाभी, आप फिर नौकरी क्यों नहीं करतीं? आपको अच्छा लगता था न?”
स्नेहा एक पल चुप रही।
“लगता था… पर कभी-कभी किसी और की ज़रूरत पहले आ जाती है।”
“तो आपको बुरा नहीं लगता?”
“लगता है,” स्नेहा ने साफ़ कहा, “पर मैं जानती हूँ, अभी यह ज़रूरी है। समय आने पर मैं फिर शुरू करूँगी।”
काव्या के मन में कुछ टूट-सा गया। उसने पहली बार किसी बड़े को अपने मन की बात बिना शिकवे के कहते सुना था।
कुछ हफ्तों बाद काव्या ने खुद रूटीन बना लिया। सुबह वॉक, मोबाइल का समय सीमित, पढ़ाई में ध्यान। सास-ससुर यह बदलाव देखकर हैरान थे।
“ये सब कैसे हुआ?” सास जी ने एक दिन पूछा।
काव्या मुस्कुरा दी, “डाँट से नहीं, समझ से।”
स्नेहा चुपचाप सुनती रही।
एक दिन काव्या का रिज़ल्ट आया। कॉलेज में टॉप किया था। पूरे घर में खुशी थी। मिठाई बाँटी गई। पापा ने गर्व से कहा,
“हमारी बेटी ने नाम रोशन कर दिया।”
काव्या ने स्नेहा का हाथ पकड़ लिया।
“अगर भाभी न होतीं, तो मैं अब भी वही होती।”
स्नेहा की आँखें नम हो गईं।
उस रात काव्या ने पहली बार खुलकर कहा,
“भाभी, आपने कभी मुझे छोटा नहीं समझा, न निकम्मा। सब कहते थे—‘बिगड़ैल है।’ आपने सिर्फ इंसान समझा।”
स्नेहा ने उसके सिर पर हाथ रखा।
“हर इंसान सही समय पर समझता है।”
कुछ महीनों बाद स्नेहा को फिर नौकरी का ऑफर मिला। इस बार घर वालों ने खुद कहा,
“अब तुम भी अपने सपने पूरे करो।”
स्नेहा ने जॉइन किया। घर का संतुलन काव्या संभालने लगी। वही लड़की, जिसे कभी जिम्मेदारी से डर लगता था।
एक सुबह स्नेहा जल्दी में थी। काव्या ने चाय पकड़ा दी।
“भाभी, देर हो रही है, मैं सब देख लूँगी।”
स्नेहा मुस्कुरा दी। उसे लगा—उसने कुछ पाया है, बिना छीने, बिना लड़ाई।
कभी-कभी बदलाव चिल्लाकर नहीं आते,
वे चुपचाप किसी के धैर्य, प्रेम और विश्वास के सहारे घर में उतरते हैं।
और तब समझ आता है—
कुछ भी जीतना हो, दिल से जीता जाता है, दबाव से नहीं।
लेखिका : आरती कुशवाहा