एक ही चेहरे की दो परछाइयां —मेधा और नेहा। जुड़वाँ बहनें थीं, एक ही दिन, एक ही समय, एक ही कोख से जन्मी थीं, पर फिर भी ज़िंदगी ने उनके लिए राहें अलग-अलग लिख दी थीं। उन दोनों के स्वभाव, व्यक्तित्व और जीवन के प्रति दृष्टिकोण में ज़मीन-आसमान का अंतर था।
नेहा—चमकदार गौरवर्ण त्वचा, सिल्की खुले बाल, हँसी जो सबको आकर्षित कर ले। आत्मविश्वास की आभा और वाणी का चातुर्य ऐसा कि कमरे में कदम रखते ही सबकी निगाहें उसी पर ठहर जाए। नेहा जहां भी जाती, लोग मुड़कर देखते। वहीं मेधा शांत थी, थोड़ी झिझकी हुई, न ज्यादा बोलती, न दिखावे की कोशिश करती। पर उसकी आँखों में एक विशेष गहराई थी — आत्ममंथन की, लगन की, और चुपचाप कुछ कर गुजरने की। मेधा देखने में साधारण थी—गहरी त्वचा, बड़े चश्मे, बाल हमेशा कसकर बंधे हुए।
बचपन से ही लोग नेहा की सुंदरता के कायल थे। पडोसी हों या रिश्तेदार या स्कूल के टीचर, सब नेहा को ‘कितनी प्यारी बच्ची’ कहकर सराहते। मेधा , जो उन्हीं के बगल में खड़ी होती, अक्सर अनदेखी रह जाती। माँ-पापा भी नेहा की उपलब्धियों पर खुलकर खुश होते और मेधा की मेहनत को अक्सर “सीरियस रहने की आदत” कहकर टाल देते।
मेधा को फ़र्क़ नहीं पड़ता था। उसे किताबों में दिलचस्पी थी। उसका मन पढ़ाई में रमता था। मेधा हर साल स्कूल में अव्वल आती। विज्ञान के प्रश्न हों या गणित की गुत्थियां, मेधा उन्हें ऐसे सुलझाती जैसे संगीत की कोई रचना रच रही हो। शिक्षक उसकी बुद्धिमत्ता से प्रभावित थे। नेहा को यह बात धीरे-धीरे चुभने लगी। उसे लगने लगा कि वह सिर्फ़ अपने रूप के लिए जानी जाती है, जबकि मेधा को सम्मान मिलता है—उसके दिमाग़ के लिए, उसकी मेहनत के लिए।
मेधा, जो हमेशा अपनी किताबों में डूबी रहती, नेहा की इस चुपचाप जलन से अनभिज्ञ थी। एक दिन स्कूल में भाषण प्रतियोगिता थी। मेधा ने तैयारी में कई दिन लगाए थे। उसका भाषण विज्ञान और समाज के संबंध पर था। नेहा ने हिस्सा नहीं लिया, पर जब मेधा मंच से उतरी और पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा, तब नेहा के भीतर कुछ टूट गया। दिखावे के लिए नेहा मुस्कराई, तालियां भी बजाई लेकिन आँखों में एक ऐसी आग थी जो किसी कोने में वर्षों से जल रही थी।
उस रात, जब मेधा अपनी डायरी में दिन भर का अनुभव लिख रही थी, नेहा उसके कमरे में आई। मुस्कुराती हुई बोली, “बहुत अच्छा भाषण था। पर आवाज़ थोड़ी धीमी थी… और तुम्हारा चेहरा भी उतना आकर्षक नहीं लग रहा था। कैमरे में ठीक से नहीं आएगा।” मेधा चुप रही। उसे समझ नहीं आया कि तारीफ है या तंज़। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। ये पहली बार नहीं था जब नेहा ने उसके काम में कोई न कोई कमी निकालने की कोशिश की हो।
नेहा को लगता था कि सुंदरता ही उसकी ताकत है — और क्यों न हो? स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों से लेकर कॉलेज की फैशन शो तक, नेहा ही सुर्खियों में रहती। मेधा इन सबमें कभी आगे नहीं आई। वह हमेशा लाइब्रेरी, नोट्स और पेपर्स में खोई रहती।
लेकिन वक्त ने एक नया मोड़ लिया।
कॉलेज खत्म होने के बाद जब करियर बनाने की बात आई, तो नेहा को उम्मीद थी कि उसकी लोकप्रियता ही उसे ऊंचाई तक ले जाएगी। मॉडलिंग और सोशल मीडिया की दुनिया ने आकर्षित किया, जहां उसने थोड़ी लोकप्रियता जरूर पाई लेकिन स्थिरता नहीं। आकर्षण क्षणिक था और दुनिया उसकी प्रतिभा को संदेह की निगाह से देखती।
वहीं, मेधा ने शांतिपूर्वक सिविल सेवा की तैयारी की। कई बार असफल हुई, परंतु हार नहीं मानी। नेहा के लिए यह अविश्वसनीय है — वही बहन जिसे लोग “बोरिंग” और “दिखने में औसत” कहते थे, आज आईएएस बन गई! देश की सेवा, प्रतिष्ठा, समाज में मान — सब मेधा की मुट्ठी में है ।
नेहा के अंदर कुछ चटकने लगा। वह मुस्कराती, लेकिन दिल की गहराई में एक जलन, एक असहजता घर करने लगी। उसे मेधा की मेहनत से अधिक लोगों की प्रशंसा चुभने लगी। सोशल मीडिया पर मेधा के सम्मान समारोह की तस्वीरें, लोगों की बधाइयां, खबरों की सुर्खियां — नेहा सब देखती, और भीतर ही भीतर खुद को खोता पाती। उसे गहन ईर्ष्या होने लगी उस बहन से जिसे वो अपने आगे कुछ नहीं समझती थी।
एक दिन माँ-पापा ने नेहा से कहा, “देखो, मेधा कितनी आगे बढ़ गई। उसी से कुछ सीखो।” ये शब्द तीर की तरह चुभे। वह जो हमेशा सामने आगे रहती थी, आज पीछे क्यों लग रही है ? क्या उसकी सुंदरता, उसका व्यक्तित्व, उसका वाक्चातुर्य अब मायने नहीं रखता ?
उस रात नेहा ने मेधा की ऑफिस डायरी पढ़ने की कोशिश की — शायद कोई कमजोरी, कोई छुपी बात मिले, जिससे वह खुद को ऊपर महसूस कर सके। लेकिन डायरी में बस योजनाएं थीं — समाज सुधार की, बालिका शिक्षा की, ग्राम विकास की। एक पन्ने पर लिखा था — “नेहा में भी बहुत क्षमता है। काश वो खुद को साबित करने का रास्ता ढूंढ पाए।”
नेहा की आंखें भर आईं। उसने खुद को आईने में देखा — वही चेहरा, वही आंखें, जो मेधा की थीं। पर उस पल उसे समझ आया कि सच्ची सुंदरता प्रशंसा में नहीं, परिश्रम में है। उसने मेधा की सफलता को प्रतिस्पर्धा मान लिया था, जबकि वह तो प्रेरणा हो सकती थी।
सुबह जब मेधा ऑफिस जाने लगी, तो नेहा ने उसे दरवाजे पर रोककर गले लगा लिया। पहली बार बिना किसी दिखावे के। मेधा हैरान हुई फिर मुस्करा दी। दोनों बहनों को गले लगा देखकर लिविंग रूम के दरवाज़े पर खड़े माँ पापा भी बहुत खुश हुए।
नेहा ने उस रात पहली बार खुद से एक वादा किया— अब वह भी खुद को तलाशेगी, अपनी ताकत को। अब वह अपनी काबिलियत से दुनिया को चौंकाएगी, बिना किसी बनावटी लिबास के, बिना किसी दिखावे के।
“सिर्फ सुंदरता नहीं,” नेहा ने आईने में खुद से कहा, “अब मैं अपने विचारों की खूबसूरती से भी पहचानी जाऊंगी।”
उस रात से नेहा ने सोशल मीडिया से दूरी बना ली। अगले दिन वह अपने शहर के थिएटर ग्रुप से जुड़ गई, जहां उसने अभिनय सीखा, मंच पर आत्मविश्वास खड़ा किया। कुछ वर्षों में वह भी एक जानी-मानी थिएटर कलाकार बनी—अपने बलबूते पर।
जब मंच पर उसके अभिनय की सराहना होती, और लोग कहते—“तुम्हारे अभिनय में एक गहराई है”—तो नेहा मन ही मन मुस्कुराती और मेधा को दिल ही दिल में धन्यवाद बोलती कि मेधा ने उसका परिचय खुद से कराया। अब वह जान चुकी है असली चमक आईने के पीछे नहीं अपने भीतर होती है।
इस तरह एक ही चेहरे की दो परछाइयां — दो बहनें अपने-अपने रंग में चमकने लगीं, मेहनत के उजाले में दमकने लगीं जहां ईर्ष्या का कोई स्थान शेष नहीं रहा।
धन्यवाद
-प्रियंका सक्सेना ‘जयपुरी’
(मौलिक व स्वरचित)
#ईर्ष्या
कहानी का शीर्षक – परछाइयों की तासीर