पैसा ही सब कुछ नहीं होता – राजिन्दर कौर   : Moral Stories in Hindi

“बहू रानी सुनंदा बिटिया को भी अपने साथ रसोई में रखा कर, देख देख कर वो भी कुछ सीख जाएगी। इस वर्ष बारह की हो जायेगी। मेरी पोती इस से एक दो साल बड़ी है, रोटी सब्जी बना लेती है।” घर में काम करने वाली कांता ने अपनी मालकिन यशोदा से कहा।

“क्या बोलूं कांता मौसी मैं तो बहुत कोशिश करती हूं पर इस बाप बेटी के कान पर जूं नहीं रेंगती।” 

“बहू रानी ये तुम्हारी जिम्मेवारी है, माना कि अब सब ऐश आराम है। कल का क्या भरोसा जाने कब जिंदगी में कौन सा मोड़ आ जाए कोई नहीं जानता।” कांता ने धीरे से कहा

“कांता तुम्हे घर के काम में हाथ बटाने के लिए रखा है, ना कि परिवार के मामले में दखल देने के लिए। मेरी बिटिया राज करेगी राज , किसी राजकुमार से उसकी शादी करवाऊंगा। तेरे जैसे चार पांच नौकर उसके आस पास घूमेंगे। खबरदार अगर मेरी बेटी के बारे में कोई सलाह दी तो।” अचानक से सुनंदा के पिता प्रताप की कड़कदार आवाज़ कांता के कानों में पड़ी। वो बेचारी वही सिर झुका के बोली 

“जी मालिक।”

“और तुम भी कान खोल कर सुन लो, मेरी बिटिया घर का कोई काम नहीं करेगी।” प्रताप ने यशोदा की ओर देख कर कहा और वहां से चला गया।

कांता और यशोदा एक दूसरे का मूंह देखने लगी। फिर यशोदा बोली

“कांता मौसी मैं किसी भी तरह अपनी बिटिया को रसोई का काम सिखाना चाहती हूं, उसे पराए घर जाना है। चाहे कितने भी नौकर हो, पर लड़की को घर का काम आना ही चाहिए।”

कांता कुछ देर के लिए सोच में पड़ गई। फिर उसकी आंखों में एकदम से चमक आ गई। वह बोली

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“मालकिन आप का काम हो जायेगा।”

“पर कैसे?

“वो सब आप मुझ पर छोड़ दीजिए।”

अगले दिन कांता अपने साथ अपनी पोती चंचल को भी ले आई। चंचल जब कभी भी यहां आती थी तो सुनंदा और चंचल एक दूसरे के साथ खेल लेती थी। आज भी चंचल को देख कर सुनंदा खुश हो गई। 

“अरे चंचल बहुत दिनों बाद आई, आजा मेरे कमरे में खेलते है।”

“नहीं कमरे में नहीं, यहां बाहर खेलते है।” कांता चंचल को सब सिखा कर लाई थी।

“बाहर क्या खेलेंगे?

“ये देख मेरे पास बर्तन है, उसी के साथ घर घर खेलेंगे।”

सुनंदा के लिए ये सब नया था। वो खुशी खुशी मान गई।

दोनों खेलने लगी। 

“सुनंदा तूं सब्जी बना, मैं रोटी बनाऊंगी।” चंचल ने कहा

“पर मुझे तो सब्जी बनानी नहीं आती।”

“अरे कोई मुश्किल नहीं है, मै सिखाती हूं।” 

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चंचल ने धीरे धीरे सब्जी में कब क्या क्या डालना है। कितने देर में सब्जी बन जायेगी। सब समझा दिया। सब समझ कर सुनंदा सब्जी बनाने लगी। कभी भूल जाती तो चंचल से पूछ लेती। ऐसे ही चंचल रोज आने लगी। धीरे धीरे सुनंदा को काफी जानकारी हो गई। उसे इस खेल में मजा आने लगा था।

जब काफी दिन हो गए तो एक दिन कांता बोली। अरे क्या नकली नकली सब्जी बनाती रहती हो। आज असली बना कर देखो। कांता ने असली बर्तन और चाकू सब्जी उनको दे दी। सुनंदा ने कभी चाकू पकड़ा भी नहीं था। पर उस दिन चंचल की मदद से उसने सब्जी काटी भी और बनाई भी।

जब यशोदा ने खाई तो उसे यकीन नहीं हुआ कि ये सुनंदा ने बनाई है। उसने बेटी को बहुत प्यार किया। अब सुनंदा की रुचि भी रसोई में बढ़ गई। जब तब कुछ न कुछ बनाने लगी। जवान होने तक वह पूरी तरह दक्ष हो गई। इस बात का प्रताप को कभी पता न चला।

वक्त आने पर प्रताप ने सुनंदा की शादी बहुत पैसे वाले घर में कर दी। जब वह पहली बार बेटी से मिलने उसके घर गया तो घर की दोनों बड़ी बहुएं खाना बना रही थी। और उन्होंने ही खाना परोसा भी। प्रताप ने सुनंदा की सास से पूछा

“आप के घर में इतने नौकर है, फिर भी बहुएं काम कर रही है?

“नौकर घर की साफ सफाई और दूसरे कामों के लिए होते है। घर की अन्नपूर्णा तो बहुएं होती है।और मेरी दोनों बहुओं के हाथों में बहुत स्वाद है। उम्मीद करती हूं सुनंदा भी हमारी इसी परंपरा को आगे बढ़ाएगी।”

सास की बात सुन कर प्रताप के हाथ पैर ठंडे हो गए। उसे पता था, सुनंदा को तो कुछ भी नहीं बनाना आता था। तभी सुनंदा की आवाज उनके कानों में पड़ी

“पापा हलवा लीजिए, आज मेरी पहली रसोई थी।”

प्रताप ने कांपते हाथों से कटोरी को पकड़ा और एक चमच मूंह में डाला। वह हैरान रह गया। हलवा बहुत स्वाद था।

“ये तूने बनाया?

“जी पापा।” 

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प्रताप ने अपनी पत्नी की ओर देखा तो वह धीरे से बोली। 

“अगर आप बाप है तो मैं भी मां हूं। अपनी बच्ची का भला बुरा किस में है, मुझे भी पता है।”

प्रताप की आंखों आसूं आ गए। उन्होंने ने आंखो ही आंखों में यशोदा से माफी मांगी। तब यशोदा ने मुस्करा कर कहा 

“ये सब कांता मौसी का कमाल है।” 

प्रताप हैरान रह गया। उसने घर आ कर सबसे पहले कांता से माफी मांगी। अब वह समझ गया था कि पैसा ही सब कुछ नहीं होता। उस दिन के बाद एक नए प्रताप का जन्म हुआ। जिसे देख के सब बहुत खुश हुए।

राजिन्दर कौर

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