“बहुत मुबारक हो वर्मा जी… ऐसा सुंदर , हैंडसम लड़का… और ऊपर से यूएस रिटर्न इंजीनियर!”
रहीश खान ने हँसते हुए कहा तो मोहनलाल की मूँछें गर्व से तन गईं।
“कहाँ भैया, हमारी औक़ात ही क्या है इनके सामने, खुद चलकर रिश्ता लेकर आए हैं तो ऊपर वाले की मेहर है,” मोहनलाल ने विनम्रता से जवाब दिया, लेकिन चेहरे की खुशी छुपाए नहीं छुप रही थी।
बैठक में कुर्सियों पर बैठे लोग चाय की चुस्कियों के साथ बातों का जायजा ले रहे थे। सामने सोफे पर बैठे थे—राघव वर्मा, सफ़ेद शर्ट-पैंट, हल्की दाढ़ी, नपी-तुली मुस्कान वाला लड़का, उसके माता-पिता और चाचा-चाची।
अंदर कमरे में, शीशे के सामने बैठी अनुजा खुद को तीसरी बार देख चुकी थी।
“दीदी, बाल ऐसे खुला रखो न, अच्छा लगेगा,” छोटी बहन राधा ने उसके पीछे खड़े होकर कहा।
“खुला रखूँगी तो मम्मी कहेंगी ‘कितनी बिखरी-बिखरी लग रही हो’, बाँधूँगी तो कहेंगी ‘बहुत बूढ़ी लग रही हो’… रहने दे, जैसा है वैसा ही रहने दे,” अनुजा ने आधी मुस्कान के साथ कहा।
दुपट्टा ठीक करते हुए उसने एक बार फिर खुद को ऊपर से नीचे तक नापा। साँवला रंग, गोल-सा चेहरा, आँखें बड़ी-बड़ी, लेकिन जिस चीज़ पर उसकी नज़र हर बार अटक जाती, वह थी उसकी भरी-भरी कमर और पेट की हल्की सी निकली गोलाई।
वह जानती थी, मोहल्ले की औरतें उसे पीछे से “थोड़ी भारी-भरकम” कहकर बुलाती हैं।
पर वो अपने दिमाग से जानती थी कि वह भारी-भरकम नहीं, “मोटापे की श्रेणी में” आती है। एमबीए की डिग्री, चार्टर्ड अकाउंटेंसी का कोर्स, मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब—सब कुछ होने के बावजूद, आईने में देखते ही उसके कानों में वही पुरानी आवाज़ गूँज जाती—
“चेहरा तो ठीक है, लेकिन शरीर थोड़ा… hmm…”
“चलो बिटिया, बुलावा आया है।” माँ सुनीता ने कमरे का दरवाज़ा खोलते हुए कहा।
अनुजा ने गहरी साँस ली। चलो, नाटक का अगला सीन शुरू।
वह ट्रे में शरबत के गिलास लेकर बैठक में आई। नज़रें झुकाए, धीमे कदमों से चलते हुए गिलास बाँटने लगी। जैसे ही उसने आख़िरी गिलास राघव की तरफ़ बढ़ाया, उसकी उँगलियाँ हल्के से काँपीं, गिलास की सतह पर बर्फ़ के टुकड़े खनक उठे।
राघव ने बस एक पल के लिए नज़र उठाकर उसे देखा। उसकी आँखों में अनुजा को कोई चमक, कोई कौतूहल नहीं दिखा। बस एक नाप-तौल, जैसे दुकान में कोई ग्राहक आम उठाकर दबा देखता हो।
शाम तक रस्मी बातें होती रहीं। दोनों को छत पर भेज दिया गया, “थोड़ा एक-दूसरे से बात कर लो” कहकर।
छत पर हवा चल रही थी, धूप ढल रही थी, पर हवा में मिठास कम और अजीब-सा बोझ ज़्यादा था।
“तो… आप डेलॉइट में काम करती हैं?” राघव ने मोबाइल के स्क्रीन से नज़र उठाकर पूछा।
“जी,” अनुजा ने सँभल कर जवाब दिया, “ऑडिट टीम में हूँ।”
“हूँ… अच्छा है, मेरे भी कुछ क्लाइंट्स डेलॉइट से डील करते हैं,” कहकर उसने फिर स्क्रीन की तरफ़ देखकर हल्की मुस्कान दी, जैसे किसी मैसेज पर हँसा हो।
बातें बहुत नहीं हुईं। और जो हुईं, उनमें न गर्मजोशी थी और न ही झिझक को तोड़ने की कोशिश। सब कुछ औपचारिक, जैसे दो फाइलें कुछ देर के लिए एक अलमारी में साथ रख दी गई हों।
रात को जाते-जाते राघव की माँ ने बड़े प्यार से कहा, “बिटिया बहुत संस्कारी लग रही है, बाकी आगे की बात हम फोन पर कर लेंगे मोहनलाल जी।”
दो दिन बाद फोन आया।
सुनीता फोन पर बात करती रही, ‘हाँ जी, बिलकुल… जी… अच्छा… अच्छा… अच्छा…’
फोन रखते ही उनका चेहरा बुझ गया।
“क्या हुआ?” मोहनलाल ने पूछा।
सुनीता ने सकुचाते हुए कहा, “कह रहे थे रिश्ता नहीं कर पाएँगे…”
मोहनलाल की भौंहें सिकुड़ गईं, “क्यों? क्या कमी रह गई? हमसे कोई बात छिपी रह गई क्या?”
सुनीता कुछ पल चुप रही, फिर धीमे से बोली, “कह रहे थे… लड़की गुन के हिसाब से अच्छी है, पढ़ाई-लिखाई, नौकरी सब ठीक, लेकिन… हेल्थ वाइज़ नहीं जंच रही उनके बेटे को। बोले—‘थोड़ी स्लिम-ट्रिम होती तो बात और थी’…”
“यानी… सीधी भाषा में कहें तो उन्हें हमारी बेटी मोटी लगी?” मोहनलाल की आवाज़ एकदम कठोर हो गई।
सुनीता की आँखों के कोने गीले हो गए, “बोले कि… ‘लड़के की पर्सनैलिटी का मैच नहीं हो रहा, लोग कहेंगे इतनी गोरी–सुडौल लड़कियाँ थीं, इसको ढूँढकर ला दिए…’”
कमरे के दरवाज़े पर खड़ी अनुजा के पैर जैसे ज़मीन में धँस गए। पेट में कोई पत्थर-सा उछल कर हलक में अटक गया।
तो बात वहीं आकर रुक गई—मेरी डिग्री, मेरी नौकरी, मेरा स्वभाव, मेरा घर… सब मजाक। असली फ़ैसला पेट और कमर की इंच टेप से होगा।
वह दबे पाँव वापस कमरे में लौट गई, पर आँखों से आँसू बहने लगे।
रात को खाने की मेज़ पर सन्नाटा पसरा था।
“छोड़ो न, ऐसे लोग दुनिया भर में हैं,” राधा ने हिम्मत देता स्वर बनाया, “दीदी, तुमको उनकी क्या ज़रूरत है?”
अनुजा ने चम्मच रख दिया, “मम्मी, भूख नहीं है।”
वह उठकर कमरे में चली गई।
तीन दिन बाद शाम को माहौल कुछ अलग था। घर में फिर से चहल-पहल थी। सुनीता ने नए परदे निकाल लिए थे, मोहनलाल ने दुकान से आते ही मिठाई के डिब्बे मेज़ पर रखे।
“अब ये क्या नया तमाशा है?” अनुजा ऑफिस से लौटते ही थकान से जूझती हुई बोली।
“रमेश भाई साहब आए थे,” मोहनलाल ने चमकती आँखों से कहा, “कह रहे थे वर्मा लोग फिर से बात करना चाहते हैं।”
“क्या?” अनुजा के मुँह से अचानक निकला।
“हाँ, शायद लड़के ने अपना मन बदल दिया होगा। सुना है, मोहल्ले में किसी ने उन्हें हमारे घर की हैसियत बता दी—दुकानें, फ्लैट, प्लॉट… फिर किसी ने तुझे ऑफिस जाते देखा, बोले—‘लड़की तो अच्छी खासी कमाती होगी।’ बस, वहीं से सोच बदली होगी।
उन्होंने कहा है कि… अगर हम तैयार हों तो वो आगे की बात चलाना चाहते हैं,” मोहनलाल ने उत्साहित होकर बताया।
अनुजा को जैसे किसी ने हल्का-सा थप्पड़ मार दिया हो।
“और आप…?” उसने धीमे पर काँपते स्वर में पूछा।
“अरे हम क्यों मना करेंगे?” मोहनलाल ने संयत आवाज़ में कहा, पर आँखों में चमक साफ़ थी, “आजकल अच्छे रिश्ते कहाँ मिलते हैं? यूएस रिटर्न इंजीनियर, अपना बिज़नेस… ऊपर से कह रहे थे कि अगर शादी हो जाए तो राघव तुम्हारी दुकान की ऊपरी मंज़िल में ऑफिस सेट कर लेगा, मिलकर बिज़नेस भी बढ़ाएँगे।
देखो बेटी, मैंने उन्हें इशारा कर दिया है कि… अगर सब ठीक रहा तो शादी के बाद नीचे वाली दुकान का आधा हिस्सा उनके नाम कर दूँगा।”
अनुजा की कुर्सी जैसे हिल गई।
“मतलब… पहले मैं मोटी और हेल्थ वाइज़ ठीक नहीं थी। अब दाम थोड़ा बढ़ गया तो अचानक मैं सही लगने लगी?” उसकी आवाज़ तेज़ हो गई, “और आप… आप भी इसी बात पर राज़ी हो गए?”
मेज़ पर रखी कटोरी काँपी, चम्मच खनक गई। राधा और सुनीता हड़बड़ा कर उधर देखने लगीं।
“अनुजा, आवाज़ नीची कर,” सुनीता ने फुसफुसाकर कहा, “पड़ोस वाले सुन लेंगे।”
“सुने मम्मी!” अनुजा की आँखों से आँसू बह निकले, “आज अगर मैं डॉक्टर नहीं, दुकानदार की बेटा होती तो क्या इतने ‘दाम’ लगते? पहले मेरी काबिलियत नहीं दिखी, अब आपके दुकान का आधा हिस्सा और मेरे पैकेज का कैलकुलेशन दिख रहा है।
पापा, आपने उन्हें क्या कहा? कि आपकी मोटी, घटिया दिखने वाली बेटी से शादी कर लेंगे तो बदले में आप अपने सालों की कमाई, दुकान, नाम, सब दे देंगे?”
मोहनलाल झुँझला गए, “ये क्या भाषा है तुम्हारी? घटिया किसने कहा तुम्हें?”
“उन लोगों ने कहा था न पापा, ‘हेल्थ वाइज़ फिट नहीं है, लोगों के सामने अच्छा नहीं लगेगा।’ उस दिन आप चुप थे, बस ‘ठीक है जो आप कहें’ कहकर फोन रख दिया था। आज वही लोग जब आपकी दुकान देखकर लौटे, तो आपको भी रिश्ता सही लगने लगा?”
मोहनलाल की गर्दन झुक गई, “बेटी, तू गलत समझ रही है…”
“गलत मैं कभी समझती ही नहीं पापा, ये मेरी सबसे बड़ी कमी है,” अनुजा ने होंठ भींचते हुए कहा, “मैं स्पष्ट देखती हूँ। आप शहर के इज़्ज़तदार कारोबारी हैं। मुझे आपने इतना पढ़ाया-लिखाया, विदेश भेजा, मैं अपनी मेहनत से वहाँ जॉब लेकर वापस आई। आप कहते रहे—‘तू मेरी शान है।’
आज वही शान, कुछ लोगों की नज़र में सिर्फ़ एक ‘डील’ बन कर रह गई—
लड़की मोटी है, लेकिन बाप की दुकान मोटी है।
आपको नहीं लगता, ये मेरे और आपके दोनों के लिए अपमान है?”
सुनीता बीच में बोली, “बेटी, ये ज़माना ही ऐसा है…”
“तो क्या मैं भी ज़माने जैसी बन जाऊँ?” अनुजा चीख़ने से खुद को रोकते हुए बोली, “अगर मैं शादी करूँगी तो ऐसे इंसान से जो मुझे इंसान की तरह देखे, तौलने की वस्तु की तरह नहीं। जो मेरे सीवी में पहले मेरा ‘काम’ देखे, फिर रंग-रूप, साइज़ पर बात करे… वो भी हँसते हुए, मज़ाक में, स्वीकार करके।
अगर कोई आदमी अपने जीवन साथी की बुनियाद ही ‘शरीर की शेप’ पर रखता है, तो पापा, वो कल को सफ़ेद बाल, झुर्रियाँ और बीमारी पर क्या करेगा? नया रिश्ता ढूँढ लेगा?
और आप… आप मेरी शादी ऐसी जगह करवाकर मुझे किस सज़ा में धकेलना चाहते हैं? रोज़-रोज़ के ताने सुनने में? ‘तुम्हारे पापा ने इतना दिया, इसलिए तुम्हें झेल रहे हैं’ वाली नज़र सहने में?”
माहौल एकदम भारी हो गया था। राधा के हाथ अपने आप अनुजा की पीठ पर चले गए।
मोहनलाल कुछ कह नहीं पा रहे थे। उनकी आँखें लाल हो गईं, शायद गुस्से से, शायद शर्म से, शायद दोनों से।
“अगर आपने इस रिश्ते पर ज़रा भी ज़ोर डाला न पापा,” अनुजा की आवाज़ काँपी लेकिन शब्द स्पष्ट थे, “तो मैं समझूँगी कि मेरे लिए आपकी और उन वर्मा लोगों की सोच में ज़्यादा फर्क नहीं। आप भी मुझे बोझ मानते हैं, जिसे जितनी जल्दी किसी भी कीमत पर ‘ठेल देना’ है।
आपने मुझे पढ़ाया, पर ये नहीं सोचा कि लड़की को दिमाग भी मिल जाएगा, जो अपना फैसला खुद कर सकेगी।
मैं साफ़ कहती हूँ—मैं यह शादी नहीं करूँगी। आप चाहें तो उनसे कह दीजिए कि ‘हमारी बेटी ज़्यादा हेल्थ वाइज़ स्ट्रॉन्ग निकल गई, हमारे पैसे से ज़्यादा अपनी इज़्ज़त का वजन रखती है।’”
कमरे में एकदम खामोशी फैल गई।
सुनीता की आँखों से आँसू बह निकले, “अनुजा… तू बात समझ… तेरे पापा तुझे बोझ थोड़ी मानते हैं।”
मोहनलाल ने धीरे-धीरे कुर्सी से उठकर खिड़की की तरफ़ मुँह कर लिया। बाहर सड़क पर लोग, गाड़ियाँ, धूप, धूल—सब कुछ धुंधलाया हुआ-सा दिख रहा था।
कुछ देर बाद उन्होंने गहरी साँस ली, फिर बिना मुड़े बोले, “सुनीता, फोन लाओ।”
सुनीता ने काँपते हाथों से फोन थमाया। मोहनलाल ने खुद वर्मा जी का नंबर डायल किया।
“हाँ वर्मा जी… मोहनलाल बोल रहा हूँ… जी…
आपने रिश्ते की बात फिर से चलाई थी न…
जी… नहीं, हम… हम मना कर रहे हैं।
क्योंकि… जिस लड़की को आपने पहले दिन उसके शरीर के आधार पर ठुकरा दिया था, वो हमारे लिए सिर्फ़ फिगर नहीं, हमारे घर की प्रतिष्ठा है।
और सच कहूँ तो… अब हम भी अपने घर की बिटिया को ऐसी जगह नहीं भेज सकते, जहाँ उसके मन से ज़्यादा उसके वज़न की चिंता हो।
जी… जी… आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, जो आपने पहले ही अपनी सोच दिखा दी, वरना बाद में हमारी बेटी की ज़िंदगी बर्बाद होती। नमस्ते।”
फोन रखते ही मोहनलाल की आँखों से दो मोटे आँसू नीचे लुढ़क गए।
उन्होंने पलटकर अनुजा की तरफ देखा।
“बेटी,” उनकी आवाज़ भारी थी, “तू सही कहती है… मैं एक पल को डगमगा गया था। जब उन्होंने ‘दुकान’, ‘ऑफिस’ और ‘संभावनाएँ’ गिनाईं, तो मैं भी उनकी तरह हिसाब लगाने लगा।
पर जब तूने सामने खड़े होकर मुझसे सवाल किया, तो याद आया… मैंने बरसों पहले तेरे सामने क्या वादा किया था।”
अनुजा की आँखें बड़ी हो गईं, “क्या?”
“तू पाँच साल की थी,” मोहनलाल हल्की मुस्कान के साथ बोले, “स्कूल से आई, किसी बच्चे ने तुझे ‘गोलू’ कह दिया था। तू घर आकर रोने लगी—‘मैं मोटी क्यों हूँ?’ मैं तेरे सामने बैठकर बोला था—‘मेरी बेटी गोल नहीं, गोल्ड है। लोग तो सोने को भी तौलते हैं, पर सोना कभी खुद को कम नहीं मानता।’
आज वही बात तू मुझे याद दिला रही है। अगर मैं सिर्फ तेरे शरीर के नंबरों के आगे नतमस्तक होकर तेरी पढ़ाई, तेरी मेहनत, तेरी इंसानियत, सबको तौल दूँ, तो मैं कैसा बाप हुआ?”
अनुजा की आँखें भर आईं। वह आगे बढ़कर उनके गले से लग गई, “पापा…”
मोहनलाल ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “और जहाँ तक शादी की बात है, शादी ज़िंदगी का मकसद है, लेकिन अकेला मकसद नहीं।
मैंने तुझे इसलिए नहीं पढ़ाया कि तू किसी की ‘ट्रॉफी पत्नी’ बनकर शेल्फ पर सज जाए। मैंने तुझे इसलिए पढ़ाया कि अगर कल को कोई तूफ़ान भी आए, तू खुद की नाव हाँक सके।
और सुन…” उनकी आँखें चमक उठीं, “तू मोटी नहीं है, तू मज़बूत है। और मज़बूत लोग ही दूसरों के सहारे नहीं, अपने दम पर खड़े होते हैं।”
राधा ने मुँह बनाते हुए कहा, “वाह पापा, आज तो आप पूरा मोटिवेशनल स्पीकर लग रहे हो… मैं रिकॉर्ड कर लेती तो इंस्टा पर रील डाल देती!”
सबके चेहरे पर हल्की-सी हँसी फैल गई। कमरे का बोझ थोड़ा हल्का हुआ।
समय बीतने लगा। वर्मा परिवार की बात मोहल्ले में घूमी, किसी ने अपने हिसाब से कहानी रंग दी, किसी ने नमक-मिर्च लगा दिया।
कहीं कहा गया—“लड़की ज़्यादा अकड़ू है, रिश्ते ठुकरा रही है।”
कहीं फुसफुसाहट हुई—“इतनी पढ़ाई-लिखाई से अहंकार आ ही जाता है।”
पर अनुजा ने तय कर लिया था, वह अब अपने लिए शर्मिंदा नहीं होगी।
ऑफिस में उसके काम की तारीफ बढ़ती गई। वह धीरे-धीरे कंपनी के बड़े क्लाइंट संभालने लगी। एक दिन उसके बॉस ने कहा, “हमारे दुबई प्रोजेक्ट के लिए किसी भरोसेमंद, स्थिर और संतुलित सोच वाले बंदे की ज़रूरत है। मैं सोच रहा हूँ, तुम्हारा नाम आगे कर दूँ।”
अपने आप ही उसके होंठों पर हल्की मुस्कान आई, “सर, मेरे साइज को देखकर कहीं आप अपनी राय न बदल लें?”
बॉस पहले तो चौंके, फिर हँस पड़े, “अगर अक्ल का वज़न नहीं देखना, तो शरीर का वज़न कौन देखता है? क्लाइंट अक्ल माँगता है, फोटो नहीं।”
कॉनफ़्रेंस रूम के बाहर निकलते हुए उससे टकराया—कबीर। वही ऑफिस का लड़का, जो अलग-अलग टीमों के बीच कोऑर्डिनेशन देखता था, हमेशा फाइलें, ईमेल और मीटिंग शेड्यूल्स में घिरा रहता।
“मैडम, बधाई हो,” उसने मुस्कुराकर कहा, “सुना है, आप दुबई वाली टीम की फर्स्ट च्वाइस बन गई हैं।”
“सुना ही है या थोड़ा बहुत योगदान भी दिया है?” अनुजा ने हल्के व्यंग्य में हँसते हुए पूछा, “क्लाइंट के सामने मेरी रिपोर्ट्स तुम्हीं तो संभालते थे, कई बार मेरी गलती भी तुमने कवर की।”
“गलती?” कबीर ने आँखें फैलाकर कहा, “तुम्हारी रिपोर्ट में गलती तलाशना मुश्किल होता है। हाँ, एक गलती ज़रूर है…”
अनुजा ने भौंहें चढ़ाईं, “कौन सी?”
“तुम खुद को कम समझने लगती हो कभी-कभी,” कबीर ने सहजता से कहा, “मीटिंग में जब तुम बोलती हो न, तो क्लाइंट सीधे तुम्हारी तरफ देखता है, बाकी सब बैकग्राउंड बन जाते हैं।
और हाँ… अगर तुम सोच रही हो कि तुम्हारे हेल्थ या लुक्स की वजह से किसी ने तुम्हें कम जज किया होगा, तो कम से कम इस ऑफिस की तरफ से तो निश्चिन्त रहो। यहाँ हम अक्ल और ईमानदारी का सीटी स्कैन करते हैं, बॉडी एमआरआई नहीं।”
अनुजा पहली बार इतने करीब से उसे देख रही थी। साधारण चेहरा, साँवली त्वचा, बाल भी थोड़े बिखरे हुए, पर आँखों में एक साफ़-सुथरी चमक।
“तुम्हें कैसे पता कि मैं खुद को कम समझती हूँ?” वह पूछ बैठी।
“क्योंकि हम दोनों एक ही बस स्टॉप से निकलते हैं न रोज़,” कबीर ने आँख दबाकर कहा, “तुम अक्सर शीशे में खुद को देखती हो, चेहरा नहीं… कमर, पेट, बाहें। चेहरा देखना छोड़ दिया है शायद।
और जो इंसान अपने चेहरे में चमक नहीं देख पाता, वो अपने गुण भी नहीं देख पाता।”
अनुजा ने नज़र झुका ली।
“वैसे…” कबीर की आवाज़ में शरारत घुली, “अगर तुम्हें कभी लगे न कि दुनिया तुम्हें सिर्फ़ साइज के हिसाब से जज कर रही है, तो मेरे सामने आकर खड़ी हो जाना। मैं कह दूँगा—‘मैडम, जब ये एक्सेल शीट खोलती हैं, तो पूरी दुनिया की गिनती भूल जाती है।’”
दोनों हँस पड़े।
कुछ महीनों बाद, दुबई प्रोजेक्ट शानदार तरीके से पूरा हुआ। कंपनी ने अनुजा को प्रमोशन और बोनस दिया। घर में भी खुशी छाई।
एक शाम मोहनलाल ने धीरे से कहा, “बेटी… एक बात कहूँ?”
“जी पापा?”
“तुझको लगता है न कि मैं मजबूरी में तेरा रिश्ता करवाने की सोचता हूँ?”
अनुजा मुस्कुराई, “अब आप ऐसी बात क्यों कर रहे हैं?”
“क्योंकि आज ऑफ़िस से लौटते वक्त… कबीर तुझे गेट तक छोड़कर जा रहा था,” मोहनलाल ने सीधे-सीधे कहा, “और उसके चेहरे पर जो… अपनापन था न, वो मुझे बरसों पहले तेरी माँ की आँखों में दिखता था।
क्या वो… सिर्फ़ तुम्हारा कोऑर्डिनेटर है?”
अनुजा के गाल हल्के-से लाल हो गए, “पापा… अभी कुछ तय नहीं है… बस… अच्छी दोस्ती है।”
“दोस्ती से ही तो शुरुआत होती है,” मोहनलाल ने मुस्कुरा कर कहा, “और अगर कल को बात बढ़े… तो सुन, मैं किसी दुकान, फ्लैट, प्लॉट की डील नहीं करूँगा। एक ही बात कहूँगा—‘मेरी बेटी को उसके दिमाग, दिल और हिम्मत के लिए स्वीकार करोगे, तो स्वागत है। नहीं तो दरवाज़ा उधर है।’”
“आपको नहीं लगेगा कि आप बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं?” अनुजा ने चुटकी ली।
“अब बेटी, इतना तो सीख ही लिया है,” मोहनलाल ने कहा, “चार लोग क्या कहेंगे, उससे ज़्यादा ये ज़रूरी है कि मेरी बेटी आईने में खुद को देखकर शर्मिंदा नहीं, गर्व महसूस करे।
शारीरिक सुंदरता… उम्र के साथ कम होती है। पर जो गुण तूने कमाए हैं न, वो उम्र के साथ और चमकते जाएँगे।
समाज को बदलना हमारे बस में नहीं, पर अपनी बेटी का आसमान छोटा रखना तो मेरे बस में है… वो गलती अब नहीं करूँगा।”
अनुजा ने पापा के गले लगते हुए आँखें बंद कर लीं।
उसके भीतर जो बरसों से गाँठ बनकर बैठा सवाल था—
“क्या सच में शारीरिक सुंदरता के आगे सारे गुण बेकार हो जाते हैं?”
आज उसका जवाब साफ़ था—
नहीं। बेकार नहीं होते।
बस, उन्हें देखने वाली आँखें चाहिए। और वो आँखें किसी वर्मा या शर्मा की नहीं, सबसे पहले अपने ही माँ-बाप की, अपनी, और फिर उस इंसान की होनी चाहिए, जिसके साथ ज़िंदगी बितानी है।
कमरे की खिड़की से आती शाम की हवा ने उसकी आँसू भरी मुस्कान को हल्के से छू लिया।
हवा जैसे कह रही थी—
“अब तू खुद को कम मत समझना… दुनिया को समझने दे कि तू कितनी ज़्यादा है।”
मूल लेखिका
हेमलता गुप्ता