आकाश की ओर बिखरे बादलों के पीछे सूरज धीरे-धीरे डूब रहा था। कमरे की खिड़की से यह दृश्य साफ़ दिखाई दे रहा था, मगर समिधा के मन में कहीं एक अंधकार गहरा होता जा रहा था। उसके सामने रखा चाय का कप ठंडा हो चुका था, जैसे उसकी ज़िन्दगी भी ठंडी पड़ गई हो। यह कोई पहली बार नहीं था जब वह खुद को इतना टूटा हुआ महसूस कर रही थी, लेकिन आज कुछ अलग था। उसके भीतर एक ज्वाला जल रही थी, एक सवाल उसे लगातार कचोट रहा था—”कब तक बेज्जत और आत्मसम्मान खो कर जियोगी?”
समिधा का विवाह अभिजीत से पांच साल पहले हुआ था। शुरूआत में सब कुछ सामान्य था। अभिजीत एक सफल व्यवसायी था, उसके पास दौलत और शोहरत दोनों थे। लोगों को लगता था कि समिधा बेहद खुशकिस्मत है, पर ये सिर्फ बाहरी दिखावा था। असलियत में अभिजीत एक कठोर व्यक्ति था, जिसका अहंकार उसे हमेशा दूसरों से ऊपर रखता था।
वह छोटी-छोटी बातों पर समिधा को अपमानित करता, उसकी भावनाओं को नकार देता। समिधा ने अक्सर खुद को समझाया था कि वह इस रिश्ते को निभा लेगी। उसने सोचा कि शायद वक्त के साथ अभिजीत बदल जाएगा। मगर वक्त ने तो बस उसकी ज़िन्दगी को और मुश्किल बना दिया था।
अपमान, ताने, और कई बार गुस्से में की गई गाली-गलौज उसकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गए थे। सास-ससुर भी हमेशा अभिजीत का ही पक्ष लेते और समिधा को चुप रहने की सलाह देते। उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ था। अभिजीत ने किसी बात पर गुस्से में आकर समिधा को घर के सामने अपमानित किया।
“तुम कुछ नहीं कर सकती। तुम्हारी ज़िन्दगी मेरी वजह से है, वरना तुम्हारी कोई औकात नहीं होती।” ये शब्द बार-बार उसकी कानों में गूंज रहे थे। समिधा ने हमेशा सहन किया था, लेकिन आज उसे महसूस हुआ कि उसकी आत्मा टूट रही है। रात के खाने के बाद, समिधा अपने कमरे में बैठी थी। उसने अभिजीत की ओर देखा, जो बिना किसी चिंता के सोने की तैयारी कर रहा था। उसे लगा जैसे उसके जीवन में उसकी कोई अहमियत ही नहीं बची थी।
एकांत में उसके आंसू छलक पड़े। उसने खुद से सवाल किया, “कब तक?” उसी वक्त उसका फोन बजा। उसकी बचपन की सहेली, आयुषी का फोन था। आयुषी ने उसकी आवाज़ में छिपे दर्द को पहचान लिया। “तुम्हें अब खुद के लिए खड़ा होना पड़ेगा, समिधा। ज़िन्दगी का हर दिन ऐसे बीतता रहेगा, अगर तुम खुद इसे नहीं बदलोगी।” समिधा ने आयुषी की बात सुनी और कुछ तय कर लिया। अगले दिन, जब अभिजीत ऑफिस गया, उसने एक छोटे बैग में अपने कुछ कपड़े और ज़रूरी चीजें रखीं।
जाने से पहले उसने अपने कमरे के शीशे में अपनी ओर देखा। यह वह समिधा नहीं थी जिसे वह पहचानती थी। वह एक टूटी हुई महिला थी, जिसने अपनी इच्छाएं और आत्मसम्मान दोनों खो दिए थे। वह सीधा आयुषी के पास पहुंची, जो पहले से ही उसका इंतज़ार कर रही थी।
“मैं जानती हूं, यह आसान नहीं होगा,” आयुषी ने उसे गले लगाते हुए कहा, “लेकिन यह फैसला तुम्हारी आत्मा की रक्षा के लिए ज़रूरी था।” समिधा ने खुद के लिए एक नई शुरुआत की। उसने एक छोटी नौकरी पकड़ ली और धीरे-धीरे अपनी ज़िन्दगी को संभालने लगी। कुछ ही दिनों में उसे एहसास हुआ कि उसकी असली ताकत उसके भीतर ही है।
उधर, अभिजीत को शुरू में लगा कि समिधा का इस तरह से चले जाना एक छोटा सा गुस्सा था, वह जल्द ही वापस आ जाएगी। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए, उसे एहसास हुआ कि समिधा ने उसे छोड़ने का निर्णय सच में ले लिया था। पहली बार, अभिजीत ने अपने व्यवहार पर सोचना शुरू किया।
उसने महसूस किया कि समिधा को उसने कभी सही मायनों में समझने की कोशिश ही नहीं की थी। उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। समिधा के बिना घर खाली हो गया था, उसकी ज़िन्दगी से एक महत्वपूर्ण हिस्सा गायब था। एक दिन, उसने समिधा को फोन किया। उसकी आवाज़ में वह गुस्सा नहीं था जो पहले हुआ करता था।
“समिधा, मुझे तुमसे बात करनी है।” उसकी आवाज़ में अब पछतावा था। “मुझे एहसास हुआ है कि मैंने तुम्हारे साथ बहुत गलत किया है। मैं तुम्हें वापस लाने की कोशिश नहीं कर रहा, लेकिन मैं सिर्फ इतना कह रहा हूं कि अगर मुझसे कोई चूक हुई हो, तो माफ कर दो।”
समिधा ने एक पल के लिए सोचा, फिर धीरे से कहा, “मैंने तुम्हें माफ कर दिया, अभिजीत, लेकिन अब मैं अपने लिए जी रही हूँ। तुम्हारे साथ वापस आना मेरे लिए अब संभव नहीं है, क्योंकि मैंने अपनी आत्मा को वापस पाया है।” अभिजीत ने फोन रखते ही अपनी गलती की गहराई को महसूस किया। समिधा ने आखिरकार वह निर्णय ले लिया था जो उसके लिए सबसे ज़रूरी था—अपने लिए खड़े होने का।
लेखिका : आरती द्विवेदी