तुम मेरी बैस्ट हमसफ़र थीं…
प्रिय शुभांगी ! शुभाशीष ! आज सुबह से ही मेरा मन रह- रहकर मुझे समय की दहलीजों को लांघ कर अतीत की ओर ले जा रहा है। जैसा कि तुम जानती ही हो कि कल मेरी रिटायरमेंट थी। रिटायरमेंट का आयोजन खूब अच्छी तरह संपन्न हो गया था। तुमने अपने सेमिनार में व्यस्त रहने के कारण ,आने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए,
मुझ से माफी मांगी थी। बेटा, मैं तुम्हारी मां हूं। मुझसे अधिक तुम्हें कौन समझ सकता है ? तुम तो हर वक़्त, हर पल, हर स्थान और हर स्थिति में मेरे साथ -मेरे हृदय में हो । अतः माफी वाली तो कोई बात ही नहीं है। हां, आयोजन में सबके द्वारा दी जाने वाली शुभकामनाओं और धन्यवादों के आदान-प्रदान के समय में मुझे तुम्हारी कमी अवश्य खलती रही ।
यह पत्र भी मैं तुम्हें एक ‘विशेष धन्यवाद’ के लिए ही लिख रही हूं क्योंकि मैं जानती हूं कि मेरी इस यात्रा में तुम ही मेरी ‘बैस्ट’ हमसफ़र थीं। दरअसल तुम्हारे सहयोग के बिना मैं अपनी नौकरी के साथ न्याय करते हुए अपने ‘अस्तित्व’ को इस मुकाम तक कतई न पहुंचा पाती।
मुझे मालूम है कि मेरी नौकरी के दौरान तुम्हीं ने बहुत कुछ खोया है। बचपन में, मेरे काम पर जाते समय तुम्हारी आंखों की उदासी और वापसी में तुम्हारी प्रतीक्षारत आंखों में मुझसे मिलने की आतुरता ,मुझे आज भी अपराध-बोध से ग्रस्त कर देती है ।
जब तुम बहुत छोटी थीं तो कभी-कभी तुम्हें रोते हुए छोड़कर जाने से मैं सारा दिन परेशान रहा करती, लेकिन मेरे घर वापिस आने पर तुम सब कुछ भूलकर जब दोनों बाहें फैलाए दौड़कर मेरी गोद में चढ़तीं तो मैं अपनी सारी परेशानी भूल जाती।
फिर तुम थोड़ी बड़ी हुईं और मेरा एक नियत समय के लिए घर से बाहर जाना समझने लगीं। मुझे आज भी वे पल ज्यों के त्यों याद हैं,जब मेरे घर वापिस आने पर, तुम पहली बार ,दौड़ कर मेरे लिए छलकते हुए पानी का गिलास लेकर आई थीं।
उस वक्त मेरा ‘अस्तित्व’ प्रसन्नता के अतिरेक से खिल उठा था। तुम्हारा मानसिक सम्बल पाकर सचमुच मेरी आंखें छलछला उठी थीं और उस दिन से न जाने क्यों मेरा अपराध-बोध धीरे-धीरे घटना शुरू हो गया था। एक कामकाजी महिला के रूप में समाज में ‘अपनी विशेष पहचान’ मुझे और भी उत्साहित करने लगी थी।
फिर, एक दिन, तब तुम शायद नौवीं कक्षा में थीं, मैंने तुम्हारे सामने एक मां के रूप में अपना पर्याप्त समय न दे पाने का पछतावा प्रकट किया था, लेकिन तुम्हारे जवाब ने मेरे आगे का मार्ग बहुत आसान बना दिया था-‘ मां, मुझे गर्व है कि मेरी मां एक ‘वर्किंग वुमन’ हैं और उनका अपना एक अलग ‘अस्तित्व’ है।
अपनी मित्र मंडली में आपका परिचय देते समय मुझे इस बात का अभिमान होता है कि आप केवल एक मां, एक पत्नी,एक बेटी, एक बहन , एक बहू तथा अन्य अनेक रिश्तों के नाम से ही नहीं जानी जाती हैं,
अपितु, एक कुशल शिक्षिका के रूप में भी आपकी अपनी एक ‘विशेष’ पहचान है। मैं यह बात सभी को बड़ी शान से बताती हूं कि मेरी मां अपनी क्षमताओं का सदुपयोग करते हुए अपने कार्यों से न केवल अपने परिवार अपितु समाज के प्रति भी अपना उत्तरदायित्व निभा रही हैं।’
मेरी गुड़िया ! आज तुम्हारे समक्ष अपना हृदय खोल रही हूं कि उस पल में तुम्हारे कहे गए ये शब्द मेरे आगे की सारी सर्विस में मेरा जबरदस्त ‘सपोर्ट-सिस्टम’ रहे।
फिर तो तुमने धीरे-धीरे मेरे घर और बाहर के सभी दायित्वों में सहयोग देते हुए मानो मां- बेटी के लिए अधिकाधिक समय एक साथ बिताने का समाधान खोज लिया था । शायद तुम्हारा उद्देश्य अपनी मां द्वारा अपने अस्तित्व की जंग में झेल रहे अपराध-बोध से उसे मुक्त कराना ही था।
वस्तुत: तुम मेरी ताकत बन कर इस व्यवसायिक-यात्रा में मेरे साथ- साथ चलीं। यह अलग बात है कि इसके लिए तुम्हें अनेक बार अपनी भावनाओं के साथ समझौता करना पड़ा।
मेरी लाडो ! यद्यपि आज तुम स्वयं समाज में अपने ‘अस्तित्व’ के निर्माण में अग्रसर हो तथापि मैं तुम्हारे साथ-साथ तुम्हारी समस्त युवा पीढ़ी की भी एक बार हृदय से आभारी हूं क्योंकि हमारी पीढ़ी के अस्तित्व की जंग में तुम्हारी पीढ़ी ने भी अपने बचपन का बहुत सा अंश खो देने की एक लंबी जंग लड़ी है । हमारी विशेष पहचान में इस पीढ़ी का एक ‘मौन योगदान’ जुड़ा हुआ है। इस जंग में इसने मां के साहचर्य के अभाव में बहुत कुछ खोया है।
मेरी बिट्टो ! ‘स्वावलंबन’ के रूप में अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए नौकरी करना आजीविका के साथ-साथ एक सामाजिक दायित्व भी है और हमारे समाज में ,स्त्रियों के लिए, तो यह एक बहुत कठिन चुनौती है।
सो मेरी बच्ची ! मेरे इस सामाजिक दायित्व की चुनौती की सफलता के लिए और मेरे अस्तित्व को सुदृढ़ बनाने में मुझे अपना ‘मौन और मुखर’, हर तरह का सहयोग देने के लिए तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद। सदैव अपना ख्याल रखना और अब अपनी अस्मिता को बनाए रखने के लिए भी सदैव तत्पर रहना। शुभकामनाओं एवं शुभाशीष सहित,
तुम्हारी मां
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब।
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