नींद के टुकड़े, ख्वाबों के पहाड़ – डॉ० मनीषा भारद्वाज्ञ :  Moral Stories in Hindi

रात के डेढ़ बजे।पंखे की घुरघुराहट के बीच बिस्तर तप रहा था। दाहिना घुटना जैसे किसी लोहे की कील से टिका हो। “अरे भगवान… ये गठिया का दर्द तो हजारों की फौज लेकर टूट पड़ा है,” मैं कराहा। पास ही सोई पत्नी सुमन करवट बदली।  

“फिर नींद उड़ी?” उसकी आँखें नींद से चिपकी थीं, पर चिंता साफ झलक रही थी।  

“हाँ… ये ‘दहाई’ नींद तो हमेशा ऐसे ही शर्मा जाती है, जैसे मैं कोई अनचाहा मेहमान होऊं,” मैंने कटु मुस्कान के साथ कहा।  

सुमन उठ बैठी, हाथों से गुनगुनाते हुए मेरे घुटने की मालिश करने लगी। उसकी उंगलियों में स्नेह का उष्ण तेल था। “कल डॉक्टर को दिखाना ही होगा। तुम्हारे ये ‘हजारों’ दर्द तो रोज नए बहाने ढूंढ़ लेते हैं।”  

“पर सुमन… कल तो मेरी लिखी कहानी का पाठ होना है न साहित्य संस्थान में? वो ‘सैकड़ा’ ख्वाब जो इन्हीं टूटे घुटनों के सहारे रचे थे!” मेरी आवाज़ में उत्साह का झरना फूट पड़ा।  

उसी क्षण, बेटा आकाश अचानक कमरे में आ धमका, आँखें चमकीली, पजामे पर स्याही के धब्बे। “पापा! देखो, मैंने वो रोबोट डिज़ाइन पूरा कर लिया! कल स्कूल साइंस फेयर में ज़रूर जीतेगा!” उसके हाथ में कागज पर जटिल खाके थे – एक किशोर के ‘सैकड़ों’ ख्वाबों की ठोस अभिव्यक्ति।  

मैं और सुमन एक दूसरे की ओर देखकर मुस्कुराए। आकाश की ऊर्जा ने कमरे की भारी हवा को हल्का कर दिया। “वाह! तुम तो सचमुच इंजीनियर बनने की ठान चुके हो,” मैंने गर्व से कहा।  

“हाँ पापा! आपकी तरह… जो दर्द में भी कहानियाँ लिखते रहते हो।” आकाश का सीधा-सपाट कथन सुमन की आँखों को नम कर गया।  

सुबह के सात बजे। डॉक्टर के क्लिनिक की प्रतीक्षा कक्ष। घुटना अब भी धधक रहा था – ‘हजारों’ दर्द वाला सच। सुमन अखबार पलट रही थी। तभी फोन की घंटी बजी। मेरे संपादक महोदय का नाम झिलमिलाया।  

“प्रकाश जी! आपकी कल की पाठ की रिपोर्टिंग हो गई। कहानी ने सबका दिल जीत लिया! एक प्रसिद्ध पत्रिका ने उसे छापने की इच्छा जताई है!” उनकी उत्तेजित आवाज़ कानों में मधु घोल गई।  

मैंने फोन काटा। सुमन की ओर देखा। मेरी आँखों में आँसू और होंठों पर विजय की मुस्कान थी। “सुना सुमन? वो ‘सैकड़ों’ ख्वाब… जो रातों की ‘दहाई’ नींद के चोर घंटों में जनमे थे… उन्होंने पंख फैलाना शुरू कर दिया!”  

सुमन ने मेरा हाथ थाम लिया, उसकी आँखों में चमक थी। “पर इस जीत की कीमत तो ये ‘हजारों’ दर्द चुका रहे हैं न?”  

“सही कहा। पर सुमन, देखो तो,” मैंने खिड़की से बाहर इशारा किया। एक फूलवाला अपनी टूटी साइकिल पर सजे गुलाबों को सँवार रहा था, चेहरे पर एक अदम्य मुस्कान। “ज़िंदगी का मज़ा ही इसी में है न? रात की ‘ईकाई’ नींद, दिन के ‘सैकड़ों’ ख्वाब, शरीर के ‘हजारों’ दर्द… और इन सबके बीच, हृदय की ‘लाखों’ उम्मीदें! यही तो है जीवन का सत्य – विरोधाभासों का सुंदर गुलदस्ता।”  

डॉक्टर के कमरे से मेरा नंबर पुकारा गया। सुमन मेरा हाथ पकड़कर मुझे उठाने लगी। “चलो, इस ‘हजारों’ दर्द की फौज से कुछ तो हार माननी पड़ेगी। फिर लौटकर आकाश के ‘सैकड़ों’ ख्वाबों वाले रोबोट पर काम करते हैं।”  

मैं लाठी टेकते हुए उठा। दर्द ने फिर कसकर ज़ोर आजमाया। पर आज वह कसक सिर्फ़ दर्द नहीं थी। वह उपस्थिति का प्रमाण थी – इस बात का कि मैं जीवित हूँ, सृजन कर सकता हूँ, प्यार कर सकता हूँ। जीवन की मिठास, कहीं उसके खट्टेपन में छिपी होती है। और उद्देश्य? उस क्षण में निहित होता है जब हम अपने टूटे घुटनों के बावजूद, ख्वाबों के पहाड़ पर चढ़ने का साहस जुटाते हैं।

हाँ… ‘रात ईकाई, नींद दहाई, ख्वाब सैंकड़ा, दर्द हजार’… पर जीवन की मिठास? वह तो अनंतहै।

(प्रकाश की डायरी)

डॉ० मनीषा भारद्वाज्ञ

ब्याड़ा (पंचरूखी) पालमपुर

हिमाचल प्रदेश

Dr. Manisha Bhardwaj 

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