नई राह – प्रियंका सक्सेना : Moral Stories in Hindi

रामनगर शहर की भीड़भाड़ वाली गलियों में नलिनी जब भी किताबें दबाए निकलती, मोहल्ले में कानाफूसी शुरु हो जाती —

“यही है विमल की विधवा!”

“विधवा होकर पढ़ाई करने जाएगी ? शर्म नहीं आती इसे ?”

“एक महीना नहीं हुआ पति को गुजरे और चल दी मैडम बन-ठन कर। “

लेकिन नलिनी हर आवाज़ को सुनकर भी अनसुना कर देती। उसकी आँखों में एक ही सपना था—अपनी पढ़ाई पूरी करना और अपने पैरों पर खड़ा होना। और उसको यह सब सच करने का हौंसला देने वाली हैं – उसकी सास दमयंती जी

कुछ दिनों पहले ही उसका जीवन उजड़ गया था। नलिनी की शादी विमल के साथ तीन साल पहले हुई थी। छोटा सा खुशियों से भरा हुआ घर जिसमें विमल, नलिनी और विमल की माँ दमयंती जी साथ रहते थे।

विमल एक प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर थे। अचानक तेज बुखार आया, उसी में ब्रेन हैमरेज हो गया और विमल दुनिया छोड़ गए। यह सब कुछ आठ दिनों के अंदर हो गया। नलिनी स्नातक के तृतीय वर्ष में पढ़ रही थी। किताबें खुली रह गईं पर जीवन की पंक्तियाँ अधूरी हो गईं।

मोहल्ले में तरह-तरह की बातें उठीं—

“अब तो मायके चली जाएगी।”

“इतनी जवान है, अकेली कैसे रहेगी?”

पर उसकी सास, दमयंती जी ने सबकी बातों को काट दिया। वह सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त थीं और उनकी पेंशन से घर का खर्चा सुचारु रूप से चलने लगा ।

उन्होंने पूरे आत्मविश्वास से कहा—

“नलिनी मेरी बहू नहीं, मेरी बेटी है! और ये अपनी पढ़ाई पूरी करेगी। लोग चाहे जितना कहें, मैं किसी की परवाह नहीं करती।”

यही संबल नलिनी के लिए जीवन की नई किरण बन गया। उसके मायके में भाई भाभी ही थे जब वे उसे लेने आए तो उसने उनसे अपनी सास के साथ ही रहने की इच्छा प्रकट की।

वे लोग भी दमयंती जी के विचारों से प्रभावित हुए और उन्होंने दमयंती जी और बहन की इच्छानुसार ही किया भी। हाँ जाते-जाते वे दोनों कह गए कि बहन तेरा मायका सुरक्षित है जब जी चाहे आ जाया करना।

नलिनी ने पढ़ाई फिर से शुरू की। पहले स्नातक पूरा किया, फिर एम.ए. किया। इसके बाद उसने बी.एड. में दाखिला लिया।बीच -बीच में नलिनी के भैया भाभी मिलने आते रहते हैं। उन्हें संतोष है कि नलिनी की पढ़ाई जारी है।

रात-दिन मेहनत करते हुए वह आगे बढ़ती रही। मोहल्ले की औरतें ताने कसतीं—

“इतनी पढ़ाई करके करेगी क्या?”

लेकिन हर बार दमयंती जी उसका हौसला बढ़ातीं—

“बिटिया, पढ़ाई ही तेरी ढाल है। यही तेरे लिए नई राह बनाएगी।”

बी.एड. के बाद नलिनी ने टीईटी परीक्षा दी। जिस दिन उसका परिणाम आया और वह पास हुई, उसकी आँखें भर आईं। दमयंती जी ने उसे गले लगाते हुए कहा—

“आज मेरा विमल गर्व से मुस्कराया होगा।”

दोनों सास-बहू या सही मायने में माँ-बेटी की आँखें भर आईं।

कुछ ही समय में नलिनी को शहर के एक उच्च माध्यमिक विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी मिल गई। जब वह पहली बार कक्षा में पहुँची और बच्चों ने खड़े होकर कहा—“गुड मॉर्निंग मैम”—तो उसे लगा जैसे जीवन ने उसके लिए नया अध्याय लिख दिया हो।

धीरे-धीरे उसकी लगन और मेहनत रंग लाई। छात्र उसके पढ़ाए विषयों में अच्छे अंक लाने लगे। कुछ प्रतियोगी परीक्षाओं में भी सफल हुए। वही समाज, जो कभी ताने कसता था, अब उसकी मिसाल देने लगा।

“नलिनी तो मोहल्ले की शान हैं।”

“देखो, विधवा होकर भी कैसे सब सँभाल लिया।”

नलिनी मुस्कराती थी, लेकिन जानती थी—यह सब उसकी सास की वजह से संभव हुआ था जिन्होंने बिना किसी की परवाह किए उसका साथ दिया।

एक शाम जब नलिनी स्कूल से लौटी तो देखा कि दमयंती जी किसी गहरी सोच में डूबी बैठी थीं।

“क्या हुआ माँ?” सीता ने पूछा।

“बेटी , तूने मेरी हर बात मानी। अब मेरी एक और ख्वाहिश है।”

नलिनी चौंकी—”कैसी ख्वाहिश माँ ?”

“हाँ। मैं चाहती हूँ तू फिर से अपना घर-परिवार बसाए। ज़िंदगी सिर्फ नौकरी और किताबों से पूरी नहीं होती। रिश्तों का सहारा भी ज़रूरी है।”

नलिनी हकला गई—”लेकिन माँ… लोग क्या कहेंगे?”

दमयंती जी ने दृढ़ स्वर में कहा—”कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। तुम एक औरत भी हों बेटी । तुम्हें जीने का पूरा हक है और इस बार फैसला मैं करूँगी।”

कुछ ही दिनों में उन्होंने अपनी जान-पहचान से एक रिश्ता तय किया। शांत स्वभाव का, परिष्कृत सोच वाला समीर, उसी शहर के एक इंटर कॉलेज में अध्यापक है और सबसे बड़ी बात—नलिनी की मेहनत और संघर्ष को समझने व पहचानने वाला है।

पहली मुलाक़ात में नलिनी ने संकोच से पूछा—

“आपको सब पता है?”

समीर मुस्कुराए —“हाँ। और यही वजह है कि मैं आपके लिए आदर रखता हूँ। आप बच्चों को सिर्फ किताबें नहीं, जीना भी सिखाती हैं। मैं चाहता हूँ हम साथ मिलकर ज़िंदगी को नया रूप दें।”

नलिनी की आँखें भर आईं। उसने पहली बार महसूस किया कि कोई उसे उसकी असली पहचान से देख रहा है। शादी की खबर मोहल्ले में फैली तो फिर से फुसफुसाहटें शुरू हुईं—

“विधवा की फिर से शादी?”

“बहू को क्यों दुबारा ब्याह रही है गोमती देवी?”

“दमयंती जी अपने बुढ़ापे का सहारा छीन रही हैं। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही हैं। “

लेकिन दमयंती जी अडिग रहीं। उन्होंने स्पष्ट कहा—

“मेरी बहू की खुशी सबसे ऊपर है। जिसने अकेले समाज का सामना किया, उसे अब साथी की ज़रूरत है।”

शादी सादगी से हुई। मंडप में प्रवेश करते समय नलिनी की आँखों से आँसू बह रहे थे। उसके भैया भाभी विवाह में ख़ुशी ख़ुशी शामिल हुए और पूरी ज़िम्मेदारी से बहन का विवाह संपन्न करने में हाथ बटांया , अब नलिनी की भतीजी आराध्या भी दस साल की हो चुकी है और बुआ के विवाह में घर भर में चहकती घूम रही है।

दमयंती जी ने उसका हाथ थामकर कहा—

“बेटी, आज से तुम फिर से मुस्कराना सीख लो । यह नई राह तुम्हारा इंतज़ार कर रही है।”

नलिनी और समीर ने दमयंती जी का हाथ पकड़कर कहा,”माँ, आपको हम से एक वादा करना होगा। आप अब से हमारे साथ ही रहेंगी। “

दमयंती जी ने ना में सिर हिलाया परन्तु नलिनी और समीर भला ऐसे कहाँ मानने वाले थे उन्होंने शीघ्र अति शीघ्र घर में शिफ्ट होने का वादा ले ही लिया। समीर के माता-पिता ने भी बेटे का साथ देते हुए दमयंती जी को मनाया और विवाह के कुछ दिनों बाद ही दमयंती जी उनके साथ रहने लगी हैं।

नलिनी और समीर में शिक्षा को अपना साझा ध्येय भी बना लिया। दोनों अध्यापक मिलकर छात्रों को पढ़ाने लगे। नलिनी अकसर सोचती—

“अगर माँ ने समाज की परवाह की होती, तो शायद मैं आज भी अधूरी रह जाती।”

रात को उसने अपनी डायरी में लिखा—

“माँ ने मुझे सिखाया कि लोग चाहे जो कहें, असली हिम्मत अपने सपनों और अपने अधिकारों को जीने में है। वही हिम्मत मुझे आज अध्यापिका, पत्नी और इंसान के रूप में पूर्ण बना गई।”

इति।।

धन्यवाद

-प्रियंका सक्सेना ‘जयपुरी’

(मौलिक व स्वरचित)

डिस्क्लेमर: यह कहानी पूर्णतया काल्पनिक है। इस कहानी की कथावस्तु, पात्र व घटनाएं लेखिका की कल्पना मात्र है। यह कहानी केवल मनोरंजन के उद्देश्य से लिखी गई है।

#कुछ_तो_लोग_कहेंगे

कहानी का शीर्षक – नई राह

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