श्रावण मास में युवतियां खेजड़े के वृक्ष की मजबूत डाल पर मोटे रस्से से हींड मांडकर बाग में झूला झूल रही थीं । राजस्थान के एक बड़े घराने की बहू सुप्यार अपनी ननद परीकंवर को झूले दे रही थी ।
उसने जोर से कहा “पेड़ की पत्तियाँ छू कर बताओ परी! तब जानूँ तुम जवान हो गयी हो ।”
परी की सभी सहेलियों ने भी हां में हां मिला दी । परी ने भाभी की ओर देखते हुए कहा “तुम्हें कौनसा मुझ से शादी करनी है भाभी? ” सभी लड़कियां ठहाके लगाकर फिर हंसने लगी ।
सुप्यार कंवर ने कहा ” पिताजी ने आज तुम्हारी शादी काछबा से पक्की कर दी है ।” परी झूले से नीचे उतरते हुए बोली “रुको, जरा! मैं बताती हूँ तुम्हें…. ” भाभी हंसते हुए भागने लगती है व परी पीछे ।
ऐसे ही हंसते खेलते ननद भाभी सहेलियों की तरह हंसी मजाक करती रहती, तो कभी सगी बहिनों की भांति सुख दुःख में एक दूसरे का साथ निभातीं । सुप्यार ने परी को कभी मां की कमी नहीं खलने दी
एक दिन प्रभात वेला में झील के किनारे ननद भाभी टहल रही थी । दर्पण की तरह पानी में सूर्य दिख रहा था । उसकी लालीमा और रश्मियों को देखकर परी ने भाभी से कहा “सच बताओ भाभी काछबा कैसा लगता है?” एक बड़ा सा कछुआ पानी से निकलकर झील के के पास ही जमीन पर घूम रहा था
भाभी ने उसकी ओर इशारा करते हुए कहा “वह देखो कछुआ! इसी खानदान का जीव है तुम्हारा पति काछबा!” परी उसे देखकर बहुत दु:खी हुई उसने कहा “ये क्या मजाक है भाभी! मैं एक मानव जाति की यौवना और यह एक जल का जीव! मै काछबा से कभी विवाह नहीं कर सकती । यह मेरा अटल फैसला है ।
चाहे कहलवा देना पिताजी से मैं यह शादी नहीं करूंगी ।” परी जैसी संस्कारवान, मर्यादाओं का पालन करने वाली व सदाचारी युवती अपने पिता से विवाद कर उनके फैसलों को कैसे नकार सकती थी ? इसीलिए तो भाभी को मध्यस्थता करने के लिए निवेदन किया था । आखिर ये तो परी के जीवन का सवाल था ।
भाभी तो जानती थी ससुर जी ने जिस काछबा जी से विवाह तय किया है, वह एक ऐसा इंसान है जिसकी प्रसिद्धि के दूर दूर तक चर्चे होते हैं । वह हृष्टपुष्ट तो था ही उसका चेहरा भी दैदीप्यमान था । अपनी भरपूर जवानी में वह रूपवान और शूरवीर था । वह वैभवशाली जीवन यापन करने वाला शक्तिशाली और बहुमुखी प्रतिभा का धनी था ।
नौकर चाकर और सेवादारों की कोई कमी नहीं थी । उसके अस्तबल में काठियावाड़ नस्ल के घोड़ों की हिनहिनाहट और हाथियों की चिंघाड़ें पूरे गाँव में गूंजती है । भाभी सोचती थी, कि ऐसा पति मिल जाने पर परीकंवर के सामने मैं नीची हो जाऊँगी, और यह बात भाभी को कतई पसंद नहीं थी । ननद के प्रति भाभी के मन में ईष्या की अग्नि धधकने लगी
सुप्यार कंवर ने परी का रिश्ता छुड़ाने की नियत से उसके कान भरे “मैं क्या जानूँ । कल तुम्हारी बारात आयेगी तुम उसी समय शादी करने से मना कर देना फिर वो क्या करेंगे । इसे संस्कार हीनता नहीं, यह तो सही समय पर लिया गया सही निर्णय होगा परी!
सुबह काछबा की बारात का नगर में आगमन हुआ । पांच सौ घोड़े, सवा सौ हाथी और गोरबन्द सजे सात सौ ऊंटों की बारात के आगे ढोल, नगाड़े, मस्क, शहनाई, ढोलक मजीरे जैसे वाद्य यंत्र बज रहे थे और कालबेलिया कलाकार झूम झूम कर नृत्य करते बारात के साथ आगे बढ़ रहे थे । नगर के लोगों का हुजूम गलियों, सड़कों, चौराहों पर पुष्प वर्षा से स्वागत कर रहा था ।
बारात को को वहीं रोककर । पांच आदमी परीकंवर के पिता के घर लग्न का समय पूछने व कन्या को उपहार देने गये । परी कंवर ने भाभी की बातों पर विश्वास करके उपहार लेने से मना करते हुए काछबे से विवाह करने से साफ मना कर दिया ।
काछबा बहुत दुखी हुआ परन्तु बारात कुंवारी वापस जाने की यहाँ रीत नहीं, इसलिए अगले नगर जाने का निश्चय किया । अगले नगर जाने का रास्ता परी के महल के सामने से गुजरता था । जाती हुई बारात को देखने एकत्रित हुई भीड़ में परीकंवर भी खड़ी थी । उसने बारात के आगे गाने बजाने वाले ढाढी से पूछा
” रे, ढाढी! बता तो सही काछबा कौनसा है?” ढाढी गाने लगा जिसका सार यही था कि बाकी तो सभी घोड़ों पर आ रहे हैं, जबकि काछबा हस्ती पर असवार है । हे परी कंवर! दूसरों ने तो अपने कानों में मुरकियां पहन रखी है जबकी काछबा ने अपने कानों में उज्जवल मोतियों के लांग पहन रखे हैं । विश्व में यह पहला उदाहरण है जब एक ढाढी अपने गीत के माध्यम से इतना बड़ा रहस्योद्घाटन करता है ।
सरोवर हंस के समान तेजस्वी पुरुष का सौन्दर्य और शोभा देखकर परीकंवर हतप्रभ रह गयी । वह पश्चाताप करने लगी ” भाभी ! इतना बड़ा धोखा क्यों किया तुमने …। मेरा पति बनने योग्य तो यही शूरवीर था… । हे, भगवान मुझे माफ करना ऐसे महान व्यक्ति से मैंने शादी करने से मना करके बहुत बड़ा अधर्म कर दिया ! ” परी कंवर मुर्छा खाकर वहीं गिर पड़ी … ।
जब काछबा को इस बात बात का पता लगा तो वह हस्ती की सवारी छोड़ कर पैदल चलकर उसके पास आया । परीकंवर अपने किये पर पश्चताप करते हुए फूट फूट कर रोने लगी ।
काछबा ने परिस्थिति को समझकर उसे माफ कर दिया और उसी मण्डप में दोनों ने विवाह किया ।
लेखक : नेमिचन्द गहलोत