मुक्ति (भाग-6) एवं (अंतिम भाग ) – कंचन सिंह चौहान : Moral stories in hindi

” क्या मतलब ?”

“मतलब तो तुम ही जानती हो शायद ! उन सब बातों का मतलब जो तुम्हारे लिये होती हैं। ऐसी बातें सब क्यों करते हैं तुम्हारे लिये ?” सारिका ने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए कहा और मैं उस दृष्टि का सामना नही कर पाई। मैं दूसरे कमरे में जा के फफक कर रोने लगी। मैं अपनी छोटी सी बेटी को इतनी बड़ी सच्चाई कैसे बताऊँ ? वो ज़बान कहाँ से लाऊँ ?

मैं उसी कमरे में पड़ी रोती रही, रात होने पर सारिका आई और मेरे सिरहाने बैठ गई। मेरे आँसू पोंछते हुए वो बोली ” मैने तुमको बहुत दुःखी कर दिया ना ! मैं सबकी बातों में आ गई और तुमसे ऐसे पूँछ बैठी। मुझसे गलती हो गई माँ। अब मैं तुमसे कुछ नही पूछूँगी। बस एक बार मुझे माफ कर दो।” कह कर वो मेरे सीने से लग गई और सुबकने लगी।

मैने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा, ” नही बेटा तूने कुछ भी गलत नही किया, मैने ही बताने में देर कर दी। मैं हिम्मत नही कर पाती थी, क्या करूँ ? लेकिन अब आज ही बता दूँ तो ठीक होगा क्यों कि फिर पाता नही दोबारा इतना साहस बटोर पाऊँगी कि नही ?”

और इसके बाद मैने रो रो कर किसी तरह सारिका को सब कुछ बता दिया। सारिका मेरे साथ रोती जा रही थी ” कैसे तुमने सब कुछ सह लिया माँ ! तुममें कितनी ताकत है ? कितना धैर्य है ? सब कुछ मेरे ही लिये तो झेल गई न तुम माँ ! … और मैने आज तुमसे कैसे ऐसी बात पूँछ ली ? …. ये भी नही सोचा कि तुम्हे कितना कष्ट होगा ।”

मैं सारिका को समझाती रही उसके आँसू पोंछती रही। तब तक सामने कुँवर जी प्रकट हो गए।” ई कौन नौटंकी चलत बाय, हम कही कि आज एतनी देर होइ गै खाब काहें नाही मिला ?” उन्होने तेज़ गर्जना के साथ कहा और मैं खड़ी हो गई।

तभी संजीव ने अंदर आते हुए कहा, ” माँ की तबियत खराब है इसलिये खाना नही बनाया।”

” तोसे पूँछन हैं का रे ?”

“लेकिन मैं बता रहा हूँ न !”

” काहें बतावत हए बिना पूँछे” उन्होने कहा और सारिका की तरफ मुड़ते हुए कहा ” औ तैं ? तहूँ बेराम हए का

रे ?”

“दीदी माँ के पास बैठी थी, बीमारी में किसी की जरूरत भी पड़ती है।”

“यै दूनो बइठि के नौटाकी करिहै औ खाब एकर नानी आई के बनाई का ?”

मुझे बोलना पड़ गया, ” खाब हम बनाये जात हई बकिर लड़ीकन के आगे बोली आपन सही राखा करा।”

“बहुत जबान बढ़ि गै बा रे तोर ! हमरे बल पे खात हए, ऐस करत हए औ हमही से गुर्रात हए। रुक आज तोर पीठ तोड़ि दी सब ठीक होइ जाय।” कहते हुए वो मेरी तरफ झपट रहे थे कि संजीव ने उनका हाथ कस के पकड़ते हुए उन्हे पीछे की और ढकेल दिया।

” ऐसी हिम्मत अब मत कीजियेगा, वर्ना लोग तमाशा देखेंगे कि बेटे ने बाप पर हाथ उठा दिया और खाने की धमकी मत दीजिये. एक एक कौर और एक एक दाने का सौ गुना ज्यादा दर्द आप उन्हे दे चुके है। आपने किया ही क्या है ? सिर्फ मर्द होने की धौंस ही दी है न उन्हें.. शर्म आती है मुझे कि मैं आपका बेटा हूँ। कई पापों का फल मिला है मुझे कि आप मेरे बाप हुए। लेकिन कोई एक पुण्य हो गया था शायद कि जन्म मेरा इस कोख से हुआ़।….अब एक मिनट में आप इस कमरे से निकल जाइये और फिर कभी मेरी माँ से बात मत कीजियेगा क्योंकि जिस छत्रछाया के बदले आप इतनी गुलामी करा रहे थे उसके लिये अब मैं बड़ा हो गया हूँ। मैं रहूँगा हमेशा उनके साथ। निकलिये… तुरंत निकलिये !”

कुँवर जी उनमे से नही थे जो सक्षम से भिड़ें, वे दबे हुए को दबाना जानते थे और संजीव के तेवर कह रहे थे कि वो किसी से दबने वाला नही था। इसलिये कुँवर जी तुरंत बाहर निकल गए।

संजीव सारिका के पास जा कर खड़ा हो गया और उसके आँसू पोंछते हुए उसके कंधे को धीरे से थपथपाया और सारिका उससे लिपट गई, संजीव उसे एक संरक्षक की तरह सहारा देता रहा। जब मैं सारिका को आप बीती बता रही थी तो संजीव ने सब सुन लिया था और उसके पिता के साथ उसके तेवर उसी का परिणाम थे। उसने सारिका को बैठाते हुए कहा, ” मैं हमेशा सोचता था कि हर घर में लड़कों को अधिक दुलार दिया जाता है, मेरी माँ तो इतनी अच्छी है, फिर वो मुझसे प्यार क्यों नही करती ? आज मुझे सब समझ में आ गया, माँ मुझसे प्यार कैसे कर सकती है ? यही कहाँ कम है कि वो मुझसे नफरत नही करती।” कहते कहते उसका गला भर गया।

सारिका ने झट उसके मुँह पर हाथ रख दिया ” न! न! ऐसी बातें क्यों करते हो ? तुम तो माँ का सहारा हो, और मेरा भी।”

सारिका और संजीव दोनो रो रहे थे और दोनो ही एक दूसरे को समझा रहे थे। मुझे लग रहा था कि वर्षों की कड़ी धूप के बाद आज बादल हुए हैं। मैने उन दोनो के सर पर हाथ रखा और अपने आँचल में छुपा लिया।

इसके बाद मैने सारिका और संजीव दोनो के मुँह से कभी पापा शब्द नही सुना। उन दोनो ने फिर कभी उनसे बात नही की।

लेकिन मैं पहले की ही तरह काम करती रही। जिंदगी भर का दुर्व्यसन बुढ़ापे में तो निकलना ही था। उस व्यक्ति को ये कभी नही लगा कि मैं उसकी सेवा करती हूँ, लेकिन अगर कुछ कमी रह जाती थी तो तुरंत उसे पता लग जाता था। उसके बदले में मुझे कितनी गालियाँ को मिलतीं इसका कोई भी हिसाब नही लगाया।

६ माह से वो सन्निपात में है, उसे कुछ भी नही याद है शिवाय मुझे गालियाँ देने के। और मैं ६ माह से इसी अस्पताल में हूँ। सारिका पास के एक कस्बे में सरकारी अध्यापिका हो गई थी, रोज घर ना आ कर वहीं रहने लगी थी और संजीव लखनऊ में प्रतियोगिताओं की तैयारी कर रहा था।

आज अचानक उनकी साँसे तेज चलने लगीं। मैने दौड़ कर डॉक्टर को खबर की। डॉक्टर उन्हे आई०सी०यू० में ले गए और आ कर कहा ” आप अपने बच्चों को खबर कर दीजिये, कुछ भी हो सकता है।”

मैने सारिका और संजीव को खबर कर दी।

सुबह होते होते दोनो ही आ गये।

वार्ड के बाहर बेंच पर मै बैठी हुई थी। सारिका और संजीव मेरे अगल बगल बैठे हुए थे, तभी डॉ० मेरे पास आये और बोले, ” देखिये मैडम आप हिम्मत से काम लीजियेगा। आप जिस तरह से इतने दिन से मरीज की सेवा कर रही थी उससे साफ पता लग रहा था कि आपको अपने पति से बेहद लगाव था। लेकिन ज़रा सोच कर देखिये तो ६ माह से सिर्फ उनकी साँसे चल रही थीं और शरीर को तो बेहद कष्ट था। हम लोगों ने आपकी सेवा को देखते हुए आज भी बहुत कोशिश की कि उन्हे थोड़े दिन और बचा लिया जाये, लेकिन हम सफल नही हुए। वैसे आप भावनात्मक रूप से थोड़ा सा हट कर देखेंगी तो आपको लगेगा कि आज उन्हें अपने कष्टों से मुक्ति मिल गई”

मैं डॉक्टर को निर्निमेष सी देखती रही और भावहीन वाणी में मेरे मुँह से निकला, ” हाँ….. मुक्ति तो मिल गई।”

डॉक्टर कमरे से चले गए और सारिका, संजीव मेरे चेहरे को एकटक देखने लगे, जैसे पूँछ रहे हों

” किसे मुक्ति मिली माँ!……..उन्हे……या तुम्हे ?”

समाप्त

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