मुक्ति (भाग-3) – कंचन सिंह चौहान : Moral stories in hindi

ये आवाज तो इनकी थी। मैने सारिका को जहाँ का तहाँ छोड़ा और दौड़ कर दरवाजा खोलते ही इनसे लिपट कर फिर उसी बेग से रोने लगी। ये कुछ भी समझने में असमर्थ थे।

ऐसी स्थिति अब तक कभी नही हुई थी। इन्होने मुझे पकड़े हुए ही दरवाजा धीरे से लगाया और एक मजबूत रक्षक की तरह मेरे शरीर के गिर्द अपने हाथों के घेरे का कवच बना दिया। मेरा डर अब धीरे धीरे कम हो रहा था। इन्होने मुझे धीरे से बिस्तर पर बिठाया और मेरे आँसू पोंछते हुए बोले “पहले तो तुम शांत हो! फिर बताओ कि हुआ क्या ?”

मेरी हिचकियाँ बँध गईं। मेरी समझ में नही आ रहा था कि मैं कैसे इन्हे इनके ही भाई की पशुता बताऊँ ये क्या सोचेंगे ? अगर कहीं इन्हे क्रोध आ गया तब तो अनर्थ हो जाएगा ? जो बात रात के अँधेरे में दब गई वो पूरे गाँव में फैल जाएगी। चार लोग कुँवर जी को गलत कहेंगे तो चार मुझे भी कहेंगे। और कुँवर जी के ऊपर चार लोगों की सच्चाई का उतना दाग नही लगेगा, जितना मेरे ऊपर एक झूठे आरोप का। मैं क्या करूँ मेरे कुछ समझ में नही आ रहा था।

इनका प्रश्न बार-बार आ रहा था, “हुआ क्या कुछ पता तो चले।”

मैने बिलखते हुए कहा “देखीं हम जौन कुछ बताइब आप नाराज ना होवा जाई !”

“बताओ तो पहले।” इन्होने धैर्य के साथ कहा।

मैने अपनी बात कहनी चाही, लेकिन उसके पहले ही फिर आँसू उमड़ पड़े “हम कईसे बताई, हमरे मुँहा से नाही निकरत बाय।”

इस वाक्य के पूरा होते ही इनके चेहरे की रंगत बदल गई, “कल छोटे आए थे क्या ” इन्होने मेरी तरफ चिंता के साथ देखते हुए कहा।

इस वाक्य को इनके मुँह से सुनते ही मैं इनका हाथ पकड़ कर बिलखने लगी। हाँ का शब्द मेरे मुँह से निकल ही नही रहा था।

“मुझे नही पता था कि मैं जो सुन रहा हूँ वो सच है।” कहते हुए इन्होने मुझसे हाथ छुड़ा लिया।

इससे पहले कि ये आगे बढें मैं दौड़ कर दरवाजे के पास गई और कुंडी लगा कर दरवाजे से लग कर खड़ी हो गई “ना ना बाहर ना जायें आप। हमार किरिया है।” कहते हुए मैने इनके पैर पकड़ लिये ” देखें अबहीं ले त कुछ नाही भै। ऊ देखीं… ऊ हसिया बाय ना, उहै उठाय लेहे रहेन हम। कुँवर जी आगे नाही बढ़ि पाइन। बकिर अब आप बाहर जाई के रिसियइहैं त गउँवा भर में ऊ बात फईलि जाई जौन भईबे नाही कीन। गाँव के मनई मेहरारुन के तो आप जनिबै करथिन। तनी हमरे इजती के सोची सारिका के पापा। आपके सारिका के मूड़ेक् किरिया।” आवेग के साथ कही जा रही मेरी बात उनकी समझ में आ गई थी। इन्होने धीरे से अपना हाथ छुड़या और सारिका के बगल में जा कर लेट गए।

इन्होने कुँवर जी से क्या कहा, मुझे नही पता। लेकिन कुँवर जी अब खाने के लिए भी अंदर नही आते थे। कुँवर जी को ईश्वर की तरफ से काला रंग, मोटी नाक, छोटी छोटी आ¡खें, मिली थीं। इसके बाद जो अपनी तरफ से बनता है वो होता है स्वभाव उसे कुँवर जी ने अपनी सूरत से भी अधिक खराब बना लिया था। जब इन्होने पढ़ाई की कुँवर जी ने गाँव के बिगड़ैल लड़कों के साथ आवारगी की। इन्हे जब नौकरी मिली, कुँवर जी तब तक भाँग, गाँजा, ताड़ी लेने के आदी हो गए थे। उनके चरित्र के विषय में खबर कान में पड़ चुकी थी, लेकिन गाँव में तो बिना आग के ही धुँआ होने लगता है, यह सोच कर मैं इस बात पर ध्यान नही देती थी। कुँवर जी की सूरत और सीरत के कारण कोई लड़की वाला रिश्ता ले कर नही आता था।इस बात की चिंता शायद इन्हें भी थी। लेकिन उनकी नीचता की हद यहाँ तक होगी यह कोई नही जानता था।

ये घटना कुछ दिनों तक मेरे दिमाग से उतरी ही नही, लेकिन इन्होने अपने मौन स्नेह से धीरे-धीरे मुझे सामान्य कर दिया।

मैं अपनी सारिका में रम गई। अब तो मैं जोड़ जोड़ कर अंग्रेजी भी पढ़ लेती थी। सारिका ढाई साल की थी तब। अपनी तोतली भाषा में खूब बातें करने लगी थी वो। इन्होने मुझे सारिका से किताबी भाषा (जिसे गाँव में अड़बी तड़बी कहा जाता था) बोलने का निर्देश दे रखा था!उस दिन शाम को जब मैने उससे दूध पीने को कहा तो वो बोली “पापा हाथ छे पीना ऐ”

उसकी बोली के साथ साथ ही मेरी ढेर सारी ममता उमड़ पड़ती। मैने उसे चूमते हुए कहा “पापा तो रात में आएंगे” उसने सिर हिलाते हुए कहा “नई दल्दी आएंगे।”

वो रोज अपने पापा से जाते समय जल्दी आने का वादा लेती थी और उसके पापा अपना वादा निभाने की कोfशश भी करते थे। अब वो जितनी जल्दी हो सके अपनी बिटिया के पास आ जाते थे। आज वो पास के ही गाँव में गए थे, मुझसे भी कहा था जल्दी आने को। इसीलिए मैने सारिका को दूध पीने के लिए अधिक बार नही कहा और प्यार से उसके गाल हिला कर दूध रखने चली गई।

इन्हे जल्दी आना था, इस हिसाब से कुछ खाना बनाने की तैयारी कर रही थी तभी बाहर से शोर सुनाई दिया। मैं ड्यौढ़ी तक आई लेकिन कुछ भी समझ में नही आया कि हुआ क्या है।

ओसारे में बाबूजी के चिल्लाने की आवाज आ रही थी। वो पूरी तरह से दूसरे पर आश्रित थे। सब शोर के साथ भाग गए थे और वे अकेले चिल्ला रहे थे। मैने घूँघट खींचा और और ओसारे की चौखट पर पहुँच कर धीमे से बोली “का भै बाबू जी ? “

बाबूजी चिल्लाते हुए बोले “कुछ नाही, कुछ नाही भै। सब अईसे कहत है। क्यौ अऊर होई। अरे भगवान एतना निर्दई नाही हईन। ऊ हमरे बुढ़ापा में हम पर अईसन पहाड़ नाही गिरईहै।”

बाबू जी की सांत्वना से मैं अंदर तक सिहर गई। क्या कह रहे हैं बाबूजी …………? क्या सारिका के पापा को कुछ हो गया ? मेरा स्वयं पर से नियंत्रण छूटने लगा। मैं ओसारा पार कर के दरवाजे पर दलान में पहुँच गई। गाय भैंस की मड़ईया के पास कँहार का लड़का खड़ा था। मैने उससे पूँछा “का भै रे किसना ? “

“सब कहत हैं कि बड़का भई या के डकईत गोली मार दिहिन।”

” है S S S” और मैं अपनी सुध-बुध खो बैठी।

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