मुक्ति (भाग-2) – कंचन सिंह चौहान : Moral stories in hindi

कितनी सुंदर थी वो गोल भरा सा मुँह बड़ी सी काली.काली आँखें, घुँघराले बाल, मैं मुग्घ हो गई थी अपनी ही कृति पर। मुझे जीवन में खुश रहने का सहारा मिल गया था। मैं उसी को सोचती, उसी को जीती।

मुझे नही पता, मेरे पति भी खुश थे या नही लेकिन कभी-कभी सारिका अकेले पड़ी होती और वे उसे बड़े प्यार से निहार रहे होते और मैं पहुँच जाती तो यूँ आँखें चुराने लगते जैसे कोई गलत काम कर रहे हों, मुझे हँसी आ जाती और मैं मुस्कुराती हुई कहती “काँहें अपने बिटिया के खेलाइब कौनो चोरी है का” और वो बाहर चले जाते।

लेकिन एक दिन उन्होने अपने भाव व्यक्त किए “सुनो! मेरे साहब के एक ही बिटिया है लेकिन उन्होने उसे लड़के की तरह रखा है। खूब पढ़ाया लिखाया है और सारी खुशी दी है। हम अपनी बिटिया को भी ऐसा ही बनाना चाहते हैं।

मैने चूल्हे में पड़ी रोटी को निकालने से अपना हाथ रोक लिया। इनका मुँह देखते हुए आश्चर्य से बोली “सच्ची…?”

“हाँ”

`”बकिर अपने एतना पइसा कहाँ है…..?

“तो क्या हुआ हम तो हैं।……….लेकिन! ……. उसके लिए तुम्हे बदलना होगा।”

`”हम्मै…?”

`”तुम्हा तो सबसे अधिक उसके साथ रहोगी। बच्चा माँ का दर्पण होता है, पता है तुम्हे ? “

`”हम्मै ई कुल बड़ी‌‌‌ – बड़ी बात नाहीमालूम।”

“”तो तुम उसे कैसे बताओगी ?”

ये तो मेरे लिए सबसे बड़ा प्रश्न था। मैं कैसे बताऊँगी ……. सच में मुझे तो कुछ भी पता नही, मैं कैसे बता पाऊँगी ………लेकिन एक ही पल पहले कितनी खुशी हुई थी ये सुनकर कि मेरी मेरी बिटिया भी लड़को के साथ पढ़ेगी, कितना अच्छा सपना था ये। मै कितना चाहती थी कि भईया के साथ मैं भी झोला और कलेवा ले के स्कूल जाऊँ, लेकिन बड़के बाबूजी नही जाने दिये। किसी ने मुझसे कहा नही मगर मैं जानती थी मगर बड़के बाबू जी सभी लड़कियों के लिये यही कहते थे कि कलक्टर थोड़े न बनना है, जो लड़कियों को पढ़ने भेजा जाये। वैसे कलक्टर तो भईया भी नही बने, लेकिन मैने ये बात समझ ली कि लड़कियाँ स्कूल नही जातीं…. लेकिन मैं तो इस काबिल ही नही हूँ, कि अपनी बिटिया को पढ़ा सकूँ मैं उदास हो गई।

`”तुमने पढ़ाई क्यों नही की अपने मायके में ?” उन्होने पूँछा।

मैं उनका मुँह देखने लगी। आज ये कैसे कठिन कठिन प्रश्न पूँछ रहे हैं, जो

पूँछते हैं उसी का उत्तर नही होता मेरे पास।

`”हम पढ़ाऐ तो पढोगी तुम ?” ये था उनका अगला प्रश्न लेकिन ये उतना कठिन नही था।

`”यह उमिर में पढ़ब तो कुछ अइबो करी ?” मैने आश्चर्य से पू¡छा।

“क्यों नही ? तुम चाहोगी तो सब आएगा। नही चाहोगी तो कुछ नही आएगा।”

बात सिर्फ मेरी होती तो मैं शायद ना नुकुर करती, लेकिन इसका संबंध मेरी एकमात्र खुशी से था, जिसके लिए मैने अभी-अभी बड़ा प्यारा सा सपना देखा था। वो सपना इतना खूबसूरत था कि सत्य परिणिति के लिए कुछ भी किया जा सकता था।

`”लेकिन आप कब पढ़इहैं हम्मै? दिन भर तो आप नौकरी पर रहत हिन।”

“रात में तो घर पर रहते हैं।”

मैं कुछ नही बोली। बस फिर से चूल्हे की लकड़ी खिसकाने में लग गई। लेकिन कुछ कहने की जरूरत भी नही थी। उन्हें मेरी मौन स्वीकृति मिल चुकी थी।

रात में वो मुझे आधे घंटे में जो कुछ पढ़ाते, मैं पूरे दिन में जब- जब समय मिलता उसका अभ्यास करती। मुझे लिखना पढ़ना छ: महीने में ही आ गया। सारिका मेरी पढ़ाई के साथ साथ ही बढ़ रही थी। ये मुझे किताबें ला कर देते और मैं काम से समय मिलते ही उन्हे आत्मसात करने लगती, इस भावना के साथ कि जल्द ही मुझे सारिका में ये सब डाल देना है।

उस दिन ये अभी लौटे नही थे। गाँवों में वसूली का काम था। अक्सर देर हो ही जाती थी। सारिका सो गई थी और मैं सारिका के बगल में बैठी किताब पढ़ रही थी। दरवाजा खुला ही था। सामने से देवर जी ने प्रवेश किया। मैं उन्हे देख कर खड़ी हो गई।

उन्होने कहा “भईया नाही अइहैं आज । जऊने गाँव मा उसूली खरती गए रहिन उहाँ रिश्तेदारी है तो वै सब रोक लिहिन। एक आदमी आय रहा खबर लई के।”

मैं बिना कुछ बोले सर पर पल्ला सम्हालती रही, जिसका अर्थ था ‘मैने सुन लिया।’ मैं उनसे अधिक बात नही करती थी। देवर होते हुए भी उनकी उम्र मुझसे बड़ी थी अत: मैं उनका सम्मान करती थी।

अपनी बात कह लेने के बाद उन्हे चले जाना था लेकिन वो पास की कुर्सी पर बैठ गए। मैने कनखियों से उन्हे देखा, तो वो एक टक मुझे निहार रहे थे। नारी में नीयत पहचानने की एक जो इन्द्रिय होती है वहाँ कुछ कंपन हुई। इस क्रिया के साथ प्रतिक्रिया होती है स्थिति को समझदारी से संभाल लेने की। मैं इसी कोशिश में काम याद आने के बहाने बाहर निकलने लगी। लेकिन इतने में कुँवर जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मेरा पूरा शरीर झनझना उठा। मैने उन पर नज़र डाली तो एक बेशर्म हँसी के साथ वो मुझे देख रहे थे। एक झटके में अपना हाथ छुड़ाते हुए मैं दूर जा खड़ी हुई और काँपती हुई आवाज में चिल्ला उठी ” होश में नाही हईन का कुँवर जी। “

वो अभी भी उसी तरह मुस्कुरा रहे थे “एतना चिल्लाओ ना! बाबूजी दुआरे पर हईन आवाज नाही पहुँची।” कह कर वो कुर्सी से उठे और उनके कदम मेरी तरफ बढ़ने लगे।

मैने विस्तर के पास पड़ी हँसिया उठा ली “आगे ना बढ़िहैं कुँवर जी। हम गर्दन अलग कई देब। औरत के इज्जती पे आइ जाए तो कुच्छू कई सकत है। ई बात धमकी ना समझिहैं कुँवर जी।” मेरे अंदर इतनी शक्ति ना जाने कहा¡ से आ गई थी। मैं जान लेने और देने दोनो को तैयार थी।

कुँवर जी समझ चुके थे कि बात सिर्फ धमकी तक नही सीमित थी। अगले क्षण ही कही गई बातें सच हो सकती थीं। वासना तो अपने आप में सबसे बड़ी कायरता होती है, ऐसी कायरता रखने वाला आगे बढ़ने की हिम्मत कैसे कर सकता था। वो बाहर निकल गए। उनके निकलते ही मैने दौड़ के दरवाजा बंद किया। कुंडी, सिटकिनी सब लगा दी। देखा तो सारिका चिल्ला चिल्ला के रो रही थी। मैने दौड़ के उसे उठाया और सीने से लगा कर खुद भी फूट कर रोने लगी। मेरी सारी शक्ति जैसे निचुड़ गई थी। मैं काँप रही थी। मेरे रोने का वेग रात भर कम ना हुआ। सारिका मेरी गोद पा कर सो गई थी। मैं उसे लिए रात भर रोती रही। थोड़ी थोड़ी देर में कुँवर जी की कुटिल हँसी वाला चेहरा सामने आ जाता और मेरे आँसुओं में ज्वार आ जाता। पता नही कितनी देर बाद दरवाजा खटका। मैं फिर भीतर तक काँप गई। सारिका को मैने जोर से चिपका लिया। दरवाजा फिर खटका और साथ में आवाज आई `”सारिका!”

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मुक्ति (भाग-3) – कंचन सिंह चौहान : Moral stories in hindi

 

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