मैं जाहिल नहीं – ज्योति आहूजा :

 Moral Stories in Hindi

अमित की शादी हो गई थी।

लड़की एक सादगी भरी, घरेलू पृष्ठभूमि से आई थी। ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, न ही कोई नौकरी करती थी, और न ही कोई बड़े सपने लेकर इस शहर में उतरी थी। वो बस एक नई शुरुआत के भाव से, एक जीवनसाथी की उम्मीद में आई थी।

पर लड़के के मन में कोई कोना उसके लिए नहीं था।

वो हर बार सोचता —

“काश कोई ऐसी लड़की मेरी ज़िंदगी में आती जो मेरे लेवल की होती… पढ़ी-लिखी, कमाऊ… और सबसे ज़रूरी — मुझे छोड़कर ना जाती।”

कभी वो खुद से नहीं पूछता था कि क्यों गई वो पहली लड़की…

बल्कि उस एक अधूरी कहानी की सज़ा वो इस मासूम पत्नी को देने लगा था।

अमित जो एक नामी कंपनी में काम करता था । एक लड़की जो उसके बराबर कमाऊ, सुंदर और आत्मविश्वासी थी से प्रेम करता था पर वो लड़की उसे छोड़कर चली गई थी ।

और शादी के बाद अपनी पत्नी सुरभि के लिए मन में कोई जज़्बात नहीं,,,

उसे लगता —

“ये क्या नाम कमाएगी समाज में? ये तो नासमझ है, जाहिल है… ना ढंग से बात करती है, ना समझदारी झलकती है।

वो अपनी हर बात में उसे छोटा दिखाने लगा —

ना कोई तारीफ़, ना कोई सहयोग।

शब्दों से नहीं, लेकिन नज़रों से तिरस्कार टपकता था।

और उस लड़की की दुनिया —

जो पल-पल उसके इशारों को समझने, उसके करीब जाने की कोशिश कर रही थी —

धीरे-धीरे खुद से सवाल करने लगी…

अमित शादी के बाद भी भीतर ही भीतर उलझा हुआ था।

उसके चेहरे पर शांति थी, लेकिन मन में एक सवाल हर रोज़ गूंजता था —

“मैंने हाँ क्यों की थी इस रिश्ते के लिए? क्या ये वही जीवन है जिसकी मैंने कल्पना की थी?”

उसे लगता —

“मुझे तो चाहिए थी एक ऐसी लड़की — बहुत पढ़ी-लिखी, कॉन्फिडेंट, समाज में बात करने लायक, स्मार्ट, थोड़ा स्टैंडर्ड वाली… जो मेरे साथ बराबरी में खड़ी हो सके…”

और जब वो अपनी पत्नी  सुरभि को देखता —

जो उसकी हर बात मान रही थी, कोशिश कर रही थी जुड़ने की, समझने की —

तो भी उसका दिल नहीं पिघलता।

“न जाने क्यों मैं इससे जुड़ नहीं पा रहा… ये मेरे मन के मुताबिक नहीं लगती… शायद कुछ कमी है, या शायद मेरे मन में ही भटकाव है…”

वो रोज़ खुद से लड़ता,

और  सुरभि हर रोज़ उसके मन का हाल उसकी आँखों में पढ़ने की नाकाम कोशिश करती…

एक दिन माँ ने देखा कि बेटा लगातार खोया-खोया रहता है।

माँ ने बहुत प्यार से बात की।

उसने बेटे के सिर पर हाथ रखा और धीरे से कहा —

“बेटा, तू आज भी उसी लड़की को याद करता है जिसने तुझे छोड़ा?”

लड़का चुप रहा।

माँ ने आगे कहा —

“सोच के देख, अगर तेरी उससे शादी हो भी जाती —

और फिर जब वो और ज़्यादा कमाने लगती, और तेरी ज़िंदगी के उलझे मोड़ों में उसका मन हट जाता —

तो तब छोड़कर जाती तो क्या करता तू?”

“उसका चला जाना तेरा नसीब नहीं था, तेरा सबक था।शायद उसका जरूरत से अधिक कमाना उसके अहंकार का कारण बन गया था ।

और जो बहू इस घर में आई है, वो तेरे नसीब की सच्चाई है —

जिसने तुझे अपनाया, बिना किसी शर्त के।”

लड़के की आंखों में हलचल थी।

माँ की बातों ने कहीं कुछ हिला दिया था —

पर वो अभी भी उस मोह से पूरी तरह बाहर नहीं आया था।

माँ ने एक लंबी साँस लेकर कहा —

“हर ज़्यादा कमाने वाली लड़की अच्छी बीवी नहीं होती,और हर कम पढ़ी-लिखी लड़की जाहिल नहीं होती।

कभी उसकी आँखों में झाँककर देख — वहाँ तू खुद को पाएगा।

शादी के कुछ हफ्ते बीत गए थे।

पत्नी ने अब तक हर बात को सहा था —

उसके रूखेपन को, उसकी बेरुखी को, और उसके मन की दीवारों को भी।

पर एक रात, जब वो कमरे में अकेले बैठे थे,

उसने धीरे से पूछ लिया —

“आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?

मैं क्या इतनी बुरी हूँ… या बस इसलिए कि मैं वो नहीं हूँ, जिसे आप चाहते थे?”

पति ने चुप्पी तोड़ी।

कहने लगा —

“मैं… अभी भूल नहीं पा रहा हूँ।

जो गया, वो लौट कर नहीं आएगा, पर वो खाली जगह… भर नहीं रही।”

पत्नी की आँखें भर आईं, पर उसकी आवाज़ मजबूत थी।

वो बोली —

“फिर आपने मुझसे शादी क्यों की?

किसी को अपनी ज़िंदगी में जगह नहीं देनी थी, तो मुझे क्यों लाए इस बंधन में?”

एक पल चुप्पी रही।

फिर उसने खुद ही कहा —

“अब जब आपने ये रिश्ता बना लिया है,

तो आपको मुझे अपनाना पड़ेगा…

क्योंकि मैं अधूरी नहीं हूँ।

मैं इस घर को, इस रिश्ते को — पूरा समर्पण देना चाहती हूँ।

लेकिन हर रोज़ तिरस्कार सहने के लिए नहीं।”

पति कुछ नहीं बोला।

 सुरभि कुछ देर रुकी… फिर कहा,,

“और आप बार-बार मुझे जाहिल मत समझिए…

मैं कम पढ़ी-लिखी नहीं हूँ।

मैं एक पोस्ट-ग्रेजुएट हूँ।

बस बहुत ज़्यादा इसलिए नहीं पढ़ पाई क्योंकि…”

वो वाक्य अधूरा छोड़ देती है।

कभी-कभी कुछ दर्द बताए नहीं जाते,

बस आँखों से रिसते हैं।

वो रात लंबी थी।

पत्नी की आवाज़ में जो दृढ़ता थी, वो अचानक भावुक हो गई।

वो कहने लगी —

“हाँ, मैं नौकरी नहीं कर रही।

मैं पैसे नहीं कमा रही।

लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मुझे अकल नहीं है…

या मैं इस लायक नहीं कि आपका साथ निभा सकूँ।

मुझे दुनिया की हर बात की समझ है,

बस ज़रा अलग अंदाज़ से।”

वो कुछ और कहने वाली थी —

अपने हुनर के बारे में,

अपने अंदर के उस कलाकार को दिखाने वाली थी,,

जिसे अब तक किसी ने पहचाना ही नहीं था —

लेकिन वो बीच में ही चुप हो गई,

क्योंकि पति उठकर वहाँ से चला गया था ।

एक बार फिर वो अधूरी बात उसके गले में ही रह गई।

लेकिन उसने हार नहीं मानी।

उसे बचपन से अपनी माँ को खूबसूरत स्वेटर बुनते देखा था,

नरम ऊन में लिपटी माँ की ममता जैसे उसके हाथों में भी उतर आई थी।

वो बुनाई जानती थी।

वो क्रोशिया जानती थी।

वो डिज़ाइनिंग और सिलाई की बारीकियाँ समझती थी।

और धीरे-धीरे, ठंड आने लगी।

वो चुपचाप, बिना किसी को बताए —

अपने पति के लिए एक सुंदर, गहरे रंग का ऊन का स्वेटर बुनने लगी।

हर फंदा उसकी चुप्पी से बना,

हर टांका उसके अधूरे सपनों से,

और हर डिज़ाइन — उस प्यार से, जो उसे आज तक मिला नहीं।

वो स्वेटर धीरे-धीरे तैयार हुआ था —

हर दिन थोड़े-थोड़े धागों से, जैसे वो अपने टूटे भरोसे को जोड़ रही हो।

वो बस देना चाहती थी… बिना किसी उम्मीद के।

लेकिन एक दिन, जब वो स्वेटर अलमारी में रख रही थी,

तो सासू माँ की नज़र उस स्वेटर पर पड़ गई।

वो चौंकीं —

“अरे, ये तुमने बुना है? ये तो मार्केट से भी ज़्यादा सुंदर लग रहा है!”

और वहीं से एक नया सिलसिला शुरू हुआ।

सास ने पड़ोस की औरतों को बताया।

आस-पड़ोस की औरतें आईं, देखा —

उनके चेहरे पर हैरानी थी, आंखों में तारीफ़ थी।

“आप तो बहुत सुंदर डिज़ाइन बनाती हैं  भाभी ।

क्या हमारे लिए भी एक-एक स्वेटर बुन देंगी?”

उसने झिझकते हुए ‘हाँ’ कहा।

और फिर…

एक-एक करके ऑर्डर आने लगे।

पहली बार उसके हाथों से निकले हुए धागे कमाई में बदलने लगे थे।

धीरे-धीरे उसकी पहचान बनने लगी।

फिर एक दिन एक ग्राहक ने कहा —

“मुझे किसी बड़े कारीगर की तलाश थी जो मेरे ब्रांड के लिए डिजाइन बना सके…

आपका काम मॉल में बिक सकता है।”

उसका कनेक्शन एक प्रोफेशनल फैशन सेलर से हो गया।

डिज़ाइन्स अब मॉल में बिकने लगे।

और फिर धीरे-धीरे पूरे शहर में उसकी पहचान बनने लगी।

उसका एक खुद का ब्रांड नाम सामने आया।

“सुरभि क्रिएशंस “

और फिर —

एक दिन उसे स्किल एंटरप्रेन्योरशिप अवॉर्ड के लिए कॉल आया।

अब वो ‘जाहिल’ नहीं थी किसी की नज़रों में,

बल्कि वो थी — हुनर की मिसाल, सादगी की ताक़त, और चुपचाप उड़ान भरती आत्मा।

सब कुछ बदल रहा था…

घर के कोने में बैठी, जो लड़की कभी “जाहिल” समझी गई थी —

अब अपने हुनर से शहर की पहचान बन रही थी।

लेकिन पति अब भी दूर था।

भीतर से वो हिला था, लेकिन उसने अभी तक कुछ स्वीकार नहीं किया था।

वो देख रहा था — कैसे उसकी पत्नी को लोग सराहते हैं,

कैसे उसकी बनाई चीज़ें मॉल में बिक रही हैं,

कैसे अख़बार में उसका नाम छपने लगा है…

और फिर एक दिन,

ठंडी हवा चल रही थी —

पत्नी ने वो स्वेटर,

जिसे उसने महीनों पहले अपने हाथों से सिर्फ उसी के लिए बुना था,

धीरे से निकालकर पैक किया।

स्वेटर के नीचे एक छोटा-सा काग़ज़ रखा —

उसका हाथ काँप रहा था, पर शब्द बिल्कुल साफ़ थे। 

✍️ स्वेटर के साथ रखा वो छोटा-सा पत्र:

“मैं जानती हूँ कि मैं तुम्हारे सपनों जैसी नहीं हूँ…

ना दिखने में, ना पढ़ाई में, ना कमाई में…

पर मैं एक बात ज़रूर जानती हूँ —

जो भी मैं करती हूँ, उसमें तुम्हारा हिस्सा शामिल होता है।

ये स्वेटर, तुमसे कोई जवाब माँगने के लिए नहीं दिया,

बस इसलिए कि ठंड लगे तो याद रहे —

कोई है जो चुपचाप तुम्हारे लिए बुनता रहा है…

प्यार भी, और सहनशक्ति भी।

अगर कभी मुझे अपनाने का मन हो —

तो तब आना, मुझे किसी नाम, शोहरत या कीमत की वजह से नहीं…

बस मेरे होने की वजह से अपनाना।

वरना मैं अब ख़ुद को पहचान चुकी हूँ… और भंवर में खड़ी नहीं हूँ।”

स्वेटर जब पति के हाथों में पहुँचा,

तो वह देर तक उसे बस देखता रहा।

ऊनी धागों से ज़्यादा उसे उस ख़त की गर्माहट ने छू लिया था —

जो उसमें चुपचाप रखा था।

हर शब्द एक तमाचा था —

लेकिन नफरत से नहीं,

बल्कि उस मौन प्रेम से भरा हुआ जो उसने कभी समझा ही नहीं।

उस रात वह सो नहीं सका।

सुबह का सूरज चढ़ चुका था,

और वह सीधे किचन में आया, जहाँ वह चाय बना रही थी।

उसने पहली बार उसकी आँखों में सीधे देखा —

“मैंने तुम्हें कभी समझा ही नहीं…

कभी ये नहीं देखा कि तुममें क्या-क्या है —

बस ये देखा कि तुम वैसी नहीं हो जैसी मैं चाहता था।”

वो चुप रही।

“माफ़ करना… मैंने तुम्हें जाहिल समझा,

लेकिन आज मैं जान गया हूँ —

मैं ही अनपढ़ था… इंसानियत में, रिश्ते में, और समझ में…”

अमित  ने झुककर उसका हाथ थामा —

“अगर अब भी कोई जगह बची हो तुम्हारे दिल में,

तो मुझे वहाँ से शुरू करने दो… इस बार बिना शर्तों के।”

सुरभि की आँखें भर आईं —

लेकिन मुस्कान हल्की थी, दर्द से भीगी हुई।

“मैंने अपनाने की लड़ाई बहुत पहले शुरू कर दी थी,

बस अब तुम भी उसी जगह पर हो,

जहाँ से रिश्ता शुरू होता है — बराबरी से, इज़्ज़त से।”

अब वो सिर्फ एक पत्नी नहीं थी,

वो एक हुनरमंद स्त्री,

एक आत्मनिर्भर उद्यमी,

और एक दिल से मजबूत जीवनसाथी बन चुकी थी।

और उसका पति अब पहली बार

उसकी आँखों में खुद को ढूंढ रहा था —

जाहिल नहीं,

एक ज्ञानी की तरह ।

ये कहानी आपको कैसी लगी??

ज्योति आहूजा 

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